12 जनवरी युवा दिवस पर विशेष :स्वामी विवेकानंद : एक विराट व्यक्तित्व
डॉ. सुनील कुमार ओझा
बलिया।।कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो हर काल और हर परिस्थिति में चिर नवीन एवं प्रासंगिक बने रहते हैं और कालजयी बनकर समय तथा समाज को सप्रेरणा देते रहते हैं। देश और दुनिया में विशेष महत्ता हासिल करके आध्यात्मिक एवं बौद्धिक क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित करना साधारण बात नहीं है। विशिष्ट विचारधारा और उत्कृष्ट आदर्शों के जरिये असामान्य बनकर कुछ ऐसा उभरकर सामने आता है, जो व्यक्ति को बुलंदियों पर पहुँचा देता है। सामान्य के बीच जन्म लेकर व्यक्ति असामान्य बन जाता है और परम सामान्य बनकर वह युगों-युगों तक आदरणीय और अनुकरणीय बना रहता है और शिखर पर पहुँचकर वह 'मील का पत्थर' बन जाता है। उसके लिए समस्त सृष्टि एक कुटुंब बन जाती है। वसुधैव-कुटुंबकम की भावना यहीं से जन्म लेकर उस विराट व्यक्तित्व के सृजन-सिंगार में सहायक बनती है। भारत में सामाजिक एवं सांस्कृतिक सरोकारों से संबद्ध चिंतकों की सोच में समय-समय पर सत्यम-शिवम एवं शिवभ-सुंदरम के प्रत्यक्ष दर्शन होते रहते हैं। सामाजिक जीवन में सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक स्तर पर अलग-अलग कालखंडों में होने वाले घटनाक्रम और बदलाव को लेकर जब विचार-विमर्श होता है तो ऐसा लगता है कि भारतीय दर्शन हमारे सामने अपनी सशक्त भूमिका में मूर्तिमान हो उठा है। वैसे तो मनीषियों और चिंतकों की श्रेणी में एक नहीं, अनेक नाम शुमार होते हैं, किंतु डेढ़ सौ वर्षों के बीच भारतीय एवं अंतरराष्ट्रीय समाज में मानव मूल्यों की पुनर्स्थापना एवं सांस्कृतिक पुनरुत्थान में एक सर्वाधिक सक्रिय विश्वस्तरीय चर्चित नाम जो उभरकर आया, वह था- *स्वामी विवेकानंद* ।
जीवन-परिचय
स्वामी विवेकानंद का जन्म पश्चिम बंगाल की वरेण्य वसुधा पर एक ऐसे परिवार में हुआ था, जिसमें आध्यात्मिक एवं धार्मिक संस्कारों, मानवीय संवेदनाओं, सामाजिक सद्भावों एवं सांस्कृतिक आदर्शों की प्रधानता थी उत्तरी कलकत्ता (अब कोलकाता) के 'सिमला' में 12 जनवरी, 1863 ई,पौष संक्रांति के दिन सुबह 6 बजकर 33 मिनट, 33 सेकंड पर उनका जन्म हुआ था। इनके बचपन का नाम नरेन्द्र था। इनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त, जो एक नामी वकील थे, एवं माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। अंग्रेजी की प्रारंभिक शिक्षा माता जी के द्वारा ही प्राप्त हुई थी।1879 ई. में उन्होंने मेट्रोपोलिटन स्कूल से प्रथम श्रेणी में परीक्षा पास कर प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। 1884 में स्नातक की परीक्षा स्कॉटिश चर्च कॉलेज से उतीर्ण की। शिक्षा के प्रारंभिक दिनों में विद्यालय में आयोजित वाद-विवाद, परिचर्चा, खेल-कूद, शास्त्रीय संगीत एवं भजन गायकी तथा नाट्य प्रस्तुतियों में ये विशेष रुचि लेने लगे थे। पुस्तकों के अध्ययन के फलस्वरूप अल्पायु में ही वे गंभीर विचारक बन गए थे।
संन्यास जीवन की ओर अग्रसर होने में इन प्रवृत्तियों का बेहद प्रभाव पड़ा, किंतु इस ओर कदम बढ़ाने के साथ-साथ उन्होंने जगत से नाता नहीं तोड़ा। सृष्टि के कल्याण के लिए वे सहृदय बने रहे। वे सदा ही मानव जीवन की कष्टमुक्तिका के लिए प्रयाशशील बने रहे। विद्या के प्रति उनमें विशेष अनुराग था।दार्शनिक स्वरूप की झलक छात्र जीवन में ही दिखने लगा था।संन्यासी गुरुभाइयों को एक साथ लेकरसर्वप्रथम रामकृष्ण मठ की स्थापना की। सन् 1887 ई. में बराहनगर में ही 'नरेन्द्र' और उनके दस गुरुभाइयों ने संन्यास ग्रहण किया तथा यह प्रतिज्ञा की कि वह संन्यासी जीवन मानव सेवा एवं मानव-कल्याण के लिए समर्पित होगा और भविष्य में चलकर उन्होंने ऐसा किया भी। संन्यासी बनने के बाद इनका नाम स्वामी विविदिशानंद हुआ। अपने की गोपनीय बनाए रखने के लिए
• राष्ट्र-चेतना के शिखर प्रहरी
• सच्चिदानंद तथा विवेकानंद के नाम से जाने जाते रहे।
शिकागो के विश्वधर्म महासम्मेलन में वे विवेकानंद के नाम से ही परिचित हुए थे,इसलिए विश्व स्वामी विवेकानंद के नाम से ही उन्हें जानता है।
विश्वभ्रमण
• संन्यासी बनने के बाद स्वामी विवेकानंद देश-विदेश का भ्रमण करने लगे।कभी अकेले तो कभी अपने संन्यासी भाइयों के साथ। अधिकतर पैदल ही चलते थे और समाज के सभी वर्गों का प्यार पाते थे। इस दौरान उन्होंने भारत को बहुत करीब से देखा और जाना। भारत के अतीत,वर्तमान और भविष्य के बीच सामंजस्य बनाते हुए उन्होंने भारत की समस्याओं को बहुत गंभीरता से लिया और उसके समाधान के लिए चिंतन शुरू किए विश्वधर्म महासम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व आकर्षक व्यक्तित्व, प्रखर प्रतिभा और तेजस्विता से प्रभावित होकर लोगों ने अमेरिका में आयोजित होने वाले 'विश्व धर्म महासम्मेलन में जाने के लिए उनसे विशेष आग्रह किया, जिसमें भारतीय जनता के प्रतिनिधि बनकर लोगों की आर्थिक सहायता से वे अमेरिका गए। 31 मई, 1893 ई. को स्वामी जी बम्बई से अमेरिका के लिए रवाना हुए। 11 सितंबर, 1893 ई. को 'विश्वधर्म महसभा' होने वाली थी। इसके पहले वे बोस्टन चले गए। वहाँ जाकर वोस्टन के विख्यात विद्वानों से मिले। हॉर्ड विश्वविद्यालय के प्राध्यापक राइट से मिले।
• हमारी भारतीय हिंदू परंपरा में 11 और 21 अंकों का बड़ा मांगलिक महत्व होता है। विश्वधर्म महासम्मेलन में स्वामी जी के लिए जो कुर्सी निर्धारित थी, संयोग से वह 21 नं. की थी ।' स्वामी जी उस कुर्सी पर आसीन हुए और बड़ी तल्लीनता से वक्ताओं की बातें सुनते रहे। 11 सितंबर,को संध्या समय में स्वामी जी ने अपना संक्षिप्त व्याख्यान दिया, जो काफी प्रेरणाप्रद और प्रशंसनीय रहा। उनके व्याख्यान का काफी स्वागत हुआ।उस धर्म महासम्मेलन में स्वामी जी विश्व के सर्वश्रेष्ठ वक्ता के रूप में उभरे। विश्वधर्म महासम्मेलन में एक ओर पश्चिमी देशों पर विवेकानंद जी के व्याख्यान का अच्छा खासा असर पड़ा तो दूसरी ओर भारतवासियों में आत्मविश्वास, आत्मगौरव, आत्ममर्यादा का भाव भी जगा 27 सितंबर, 1893 तक महासम्मेलन चला।
इसके बाद स्वामी विवेकानंद अमेरिका केबड़े-बड़े शहरों में घूम-घूमकर धर्मप्रचार करने लगे। 15 अप्रैल, 1896 को वे लंदन पहुँचे। फिर इग्लैंड जाकर वहाँ के लोगों को अपने आध्यात्मिक ज्ञान एवं अनुभवों से परिचित कराए। विदेशों में धर्मप्रचार का सिलसिला जारी रहा। पेरिस, विएना, एथेंस और मिस्र का भ्रमण करते हुए 9 दिसंबर, 1900 को वे कोलकाता के बेलूर मठ आए । देशप्रेम और दलित शिक्षा पर बल स्वामी विवेकानंद का जीवन मानवता के लिए समर्पित था। वे मानते थे कि किसी देश का भविष्य उसको जनता पर निर्भर करता है और राष्ट्र की शक्ति आम जनता में निहित होती है। वे भारत को एक गौरवशाली समृद्ध राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे। इसलिए उनका ध्यान भारत के मनुष्यों पर अधिक था। उनका कहना था कि "मनुष्य का निर्माण हो हमारा जीवनोद्देश्य है।" वे देश के शोषितों, पीड़ितों, बंचितों एवं अछूतों का उन्नति देखना चाहते थे, जो समाज के हाशिए पर हों। इसके लिए शिक्षा की आवश्यकता पर वे बराबर बल देते रहे। आध्यात्मिक दर्शन एवं धर्म के साथ-साथ वैज्ञानिक साधनों एवं उपलब्धियों को भी भारत के विकास के लिए वे अनिवार्य मानते थे।
नारी सम्मान और शिक्षा
सामाजिक संदर्भों में स्वामी विवेकानंद भारतीय नारी में सीता, सावित्री और दमयंती के आदर्शों को स्थापित करते हुए उसे भरपूर सम्मान देने की भावना का संचार समस्त भारत में करते थे। भारत के पतन के वे दो कारण मानते थे-एक, स्त्रियों का तिरस्कार और दूसरा, गरीबों को जातिभेद के द्वारा पीसना। इसके लिए उन्होंने दोनों की शिक्षा पर विशेष
बल दिया। स्वामी विवेकानंद जी देशभक्त तो थे ही, उससे अधिक वे मानवप्रेमी थे। भारत के प्रति उनकी निष्ठा सबसे अधिक थी। स्वामी लोकेश्वरा नंद जी ने लिखा है कि-'भारत उनके बचपन का झूला, यौवन की फुलवारी और बुढ़ापे की काशी थी। भारत का प्रत्येक धूल-कण उनके लिए पवित्र था।... भारत पुण्यभूमि है, भारत ऋषियों का देश है, भारत
सत्य की साधना में डूबा हुआ है। भारत की मृत्यु होने से सत्य की मृत्यु होगी। जितनी उच्च भावनाएँ हैं, इसी साथ की साधना के कारण भारत पुण्यभूमि है, क्योंकि सत्यता ही मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ संपत्ति है।'सामाजिक समरसता आधुनिक भारत के राष्टा स्वामी विवेकानंद ने भारत में आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक नवजागरण लाकर उसे विश्वस्तरीय स्वरूप में खड़ा किया और यथोचित सम्मान का हकदार बनाया। नववेदांतवाद का परिचय देकर। सामाजिक समरसता, भ्रातृत्व-भाव, सेवाधर्म और त्याग को मांनव के लिए कल्याणकारी बताया।स्वामी विवेकानंद एक धर्मवेत्ता और समाज सुधारक की भूमिका में भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए सतत क्रियाशील एवं संघर्षशील
बने रहे। चिंतक अतीत की अवांछित मान्यताओं को खारिज करते हुए वर्तमान की नई सोच को स्वीकार करता है।
कुछ छोड़ता है तो कुछ जोड़ता भी है, कुछ नकारता है तो कुछ अपनाता भी है। इस क्रम में वह काफी सजग और संजीदा बनकर अपने रचनात्मक दायित्वों का निर्वाह करता है।'
• स्वामी विवेकानंद जी 4 जुलाई, 1902 ई. को महासमाधि में लीन हो गए। विश्व के इतने बड़े धर्मवेत्ता, अध्यात्म-अनुभवी, मानव सेवाव्रती युगनायक
के 9 बजकर 10 मिनट पर महासमाधि में डूबे स्वामी जी की उम्र 39 वर्ष 5 माह 24 दिन थी। अल्प उम्र में विश्व के युवाओं का धड़कता दिल मानव-सेवा का अंतिम संदेश देकर शांत भाव में शाश्वत रूप से लीन हो
गया। समय और समाज का साक्षी बनकर अपनी संवेदना को जन सरोकारों से जोड़ते हुए जनसापेक्ष संवेदना के कारण वह कालजयी बनकर एक नया इतिहास रच गए। यही बात स्वामी विवेकानंद के विराट व्यक्तित्व के लिए सटीक एवं स्वीकार्य लगती है।
संदर्भ सूची
1. युगनायक विवेकानंद, भाग-2, लेखक- स्वामी गंभीरानंद, संस्करण-द्वितीय, पृष्ठ-25
2. मेरा भारत अमर भारत, विवेकानंद, रामकृष्ण मठ नागपुर, प्रथम संस्करण, पृष्ठ-31
3. मेरा भारत अमर भारत, विवेकानंद, रामकृष्ण मठ नागपुर, प्रथम संस्करण, पृष्ठ-37
4. आजकल (हिंदी मासिक), नई दिल्ली, जनवरी-2015, पृष्ठ-12
5. हिंदी की सर्जनात्मक छवियाँ, लेखक, डॉ. रघुनाथ उपाध्याय, आवरण मुख पृष्ठ
लेखक परिचय
पदनाम : असिस्टेंट प्रोफेसर, भूगोल विभाग, अमर नाथ मिश्र पी.जी.
कॉलेज, दुबेछपरा, बलिया (उत्तर प्रदेश)
उपसंपादक - बलियाएक्सप्रेस साप्ताहिक खबर।
(भारतीय राष्ट्रीय पत्रकार संघ उत्तर प्रदेश)
पत्राचार का पता : चौबेबेल, बबूबेल, हल्दी, बलिया,
उत्तर प्रदेश-277402
मोबाइल : 9454354932,6386941466
ई-मेल : dr.sunilojha@gmail.com