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भगवान भोले है, पाने के लिये चाहिये भोलापन, दुर्गणों से निवृति नहीं : भगवान के तीन सखा(विभीषण, सुग्रीव व निषादराज )के चरित्र को देख कर सकते है प्रमाणित



लखनऊ।।भगवान राम के तीन सखा बताये गए हैं विभीषण जी, सुग्रीवं जी और निषाद राज जी। निषाद राज जी को तो सिद्ध सखा बताया जाता है। निषाद राज के पिता जी और दशरथ जी मित्र थे। प्रतापगढ़ जनपद से सटा आसपास का गंगा नदी का क्षेत्र, फाफामऊ, श्रृंगवेरपुर का पूरा इलाका निषादराज जी के ही हांथो में था। निषादराज के पिता जी अपने पुत्र को भेजा करते थे दशरथ जी के पास जिससे उनको राम जी का सानिध्य प्राप्त हो सके, और राम जी भी कभी कभी अपनी अयोध्या की चौरासी कोस की सीमाओं से परे जाया करते थे। आज भी आप कभी चले जाइये चित्रकूट या प्रयागराज और उन लोगों से मिलिए जो नाव चलाते हैं, जो निषादराज जी के वंशज हैं, वो आज भी बड़े गर्व से कहते हैं की राम जी हमारे सखा हैं।


कोल और भील समुदाय के लोगों को भी भगवान ने अपनाया। समाज के हर वर्ग को छुआ प्रभु श्री राम ने। भगवान जब चित्रकूट गए अपने वनवास गमन की यात्रा में तब वो एक पर्णकुटी बना कर निवास करते थे। ऐसा कहा जाता हैं कि राघव जी इतने सुन्दर थे कि कोल और भील वनवासी समुदाय से लोग और स्त्रियां उनके सौंदर्य को निहारने के लिए आते थे। वे राम जी, लखन जी और सीता जी के वार्तालाप को बड़े कौतुहल से सुनते थे और प्रसन्न होते थे क्योंकि ये लोग नागरी थे और विश्व की प्राचीनतम नगरी अयोध्या से आये थे और राजा के लड़के थे ।

भगवान भोले है, पाने के लिये चाहिये भोलापन, दुर्गणों से निवृति नहीं 

वस्तुतः राम जी का दर्शन रामावतार में इतना सुलभ नहीं था, वो परकोटो में रहा करते थे। देवताओं के लिए भी उनसे मिलना इतना सहज न था। वनवास का एक उद्देश्य यह भी था कि सामान्य जनता को उनके अवतार का दर्शन हो सके। अन्यथा राम जी का दर्शन सामान्य जन-मानस के लिए इतना सुलभ नहीं था जितना श्री कृष्णा जी का था, जो गाय चराने के लिए जाया करते थे। कोल, भीलों ने भगवान राम से कहा कि प्रभु हम आप की बड़ी सेवा कर रहे हैं क्योंकि हम आपकी कुछ भी वस्तु चुरा नहीं रहे हैं और आप को परेशान भी नहीं कर रहे हैं। अब सोचिये अखिल ब्रह्माण्ड नायक भगवान राम जी, जिनका दर्शन शंकर आदि देवताओं के लिए भी दुर्लभ है वो ऐसे वचन सुन के मुस्कुराये और उनकी आँखों में आंसू आ गए। भगवान कितने भोले हैं, भगवान को पाने के लिए उतना ही भोलापन भी चाहिए, दुर्गुणों से निवृत्ति नहीं । चोरी करना छूट जाए यह आवश्यक नहीं हैं लेकिन उनपर अपना अधिकार समझ कर के, उनसे वार्तालाप करने, उनसे मिलने कि इच्छा हो यह परम आवश्यक हैं। जैसे हैं हम वैसे उनके सामने उपस्थित हो जाएँ। जैसे जब कोई गंगा जी में नहाने जाता हैं तो पहले से स्नान कर के नहीं जाता। जो जैसे रहता हैं वैसे चला जाता हैं।

राम के स्पर्शमात्र से ही जीव में आती है चैतन्यता 

अहिल्या जी को श्राप मिला और वो शिला हो गयीं। वो महर्षि गौतम कि पत्नी थीं जो त्रयम्बक क्षेत्र में रहते थे। उन्हीं के तपोबल से त्रयंबेश्वर क्षेत्र कि स्थापना हुई। अहिल्या जी अत्यंत रूपवती थीं, इतनी रूपवती थीं कि ऐसी रूपवती स्वर्गादि लोकों में भी नहीं थी। वास्तव में कहा जाय तो वो महर्षि गौतम की तपस्या का स्वरुप ही थीं। कथा अधिकांश जनो को तो पता हैं कि कैसे राम जी ने उनका उद्धार किया। भगवान आये और महर्षि विश्वामित्र जी ने कहा कि आप इनके ऊपर अपने चरण रखिये। भगवान का शील और सद्वृत्ति देखिए कि वो विचार करते हैं कि अहिल्या जी महर्षि की पत्नी हैं और हमारी ब्राह्मणी माता हैं,कैसे इनके ऊपर पैर स्पर्श करा दूँ, यह तो शास्त्र विरूद्ध है। तब विश्वामित्र जी बोलते हैं तुम ऐसा कर सकते हो क्योंकि यह गुरु आज्ञा है और तुम गुरु के आदेश से ऐसा कर रहे हो। विश्वामित्र जी के कहने से जैसे हि उन्होंने चरण रखा, वो चेतन हो गयीं।





वास्तव में जीव में चेतनता चाहे वह कितने कर्त्तव्य का निर्वहन कर ले, चाहे जितना बुद्धि से जी ले, चाहे जितना सेवा कर ले चेतनता जीव के जीवन में राम जी के स्पर्श से ही आती है। जब तक वह राम जी का भजन नहीं करता तब तक कल्याण नहीं होता। श्री रामचरित मानस, उत्तर काण्ड में लिखा गया है

 "राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा।

 थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा ॥"

आध्यात्मिक अर्थ में सीखिए तो हम लोगों कि बुद्धि भी अहिल्या जी की तरह जड़ हो जाती है। कभी कभी हम लोग सेवा और धर्म का ही बहाना बना के जड़ हो जाते हैं और परमात्मा को भूल बैठते हैं। गोपियाँ भगवान श्रीकृष्ण को इसलिए प्रिय रहीं क्योंकि धर्म को भी त्याग दिया उन्होंने भगवान के लिए। भगवान गीता में कहते हैं मुझे वही सबसे ज्यादा प्रिय है जो मेरे लिए धर्म का भी त्याग कर दे।

 "सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः"।।

 धर्म ध्वज धारण करने वाले भगवान स्वयं कह रहे है मेरे लिए धरम का त्याग कर दो। मेरी शरण में आ जाओ, मै तुम्हारा कल्याण कर दूंगा।

ब्रह्मनिष्ठ संत का शाप भी बन जाता है वरदान 

जब अहिल्या जी में चेतनता आ गयी तो उन्होंने भगवान कि स्तुति की। उन्होंने कहा कि क्या कोई मेरे भाग्य की सराहना कर सकता है ? मैंने भला कौन सी साधना की थी, मुझे तो साक्षात् प्रभु के दर्शन प्राप्त हुए ! यही लाभ तो शंकर भगवान चाहते हैं। वे कहती हैं

 "मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना। देखेउँ भरि लोचन हरि भव मोचन  इहइ लाभ संकर जाना ॥"


कहने का तात्पर्य यह है कि जो ब्रह्मनिष्ठ संत होते हैं उनका वरदान तो वरदान, श्राप भी कल्याणकारी होता है। अब नल नील को देखिये, दोनों लोग बाल्यकाल में बड़े नटखट थे। ऋषि मुनियों का कमंडल जिसमे अभिमंत्रित जल होता था, पूजा सामग्री इत्यादि जाकर नदी में फेंक आया करते थे। उससे पूजा विधि विधान में विघ्न पड़ता था। ऋषियों ने सोचा की ये बालक हैं इनको बहुत कठोर दंड देना उचित नहीं है,अतः श्राप यह दिया कि जो भी वस्तु जल में फेंकेंगे वो तैर जाएगी, स्थिर हो जाएगी, डूबेगी नहीं। ये वानर हैं जब कुछ भी डूबेगा नहीं तो परेशान करना बंद कर देंगे तथा कही और चले जायेंगे। अब देखिये यह श्राप है परन्तु जब सेतु बंधन का समय आया तब हनुमान जी ने बताया कि रघुवर हमारी सेना में ऐसे भी सैनिक हैं जिनके जिम्मे हम सेतु बंधन का सारा काम देने जा रहे हैं। नल, नील जो पत्थर रख देंगे वो डूबेगा ही नहीं। भगवान राम ने कहा इतना बड़ा गुण बताया नहीं इन लोगों ने। तब नल नील सोचे हमें तो श्राप मिला था अब इसको गुण कैसे बताएं। अर्थात ऋषि मुनियों का श्राप भी गुणकारी होता है। इसी प्रकार महर्षि गौतम का इन्द्र को दिया हुआ श्राप भी सफल हुआ जब उन्हें मिथिला में विवाहोत्सव देखने का अवसर मिला।

        छोटे बड़े का भेद नहीं करते श्रीराम 

ऐसे ही गिलहरी की भी कथा आती है। राम जी के सेतु बंधन में वो भी अपने छोटे छोटे हांथो से योगदान दे आती थी। उसको भी राम जी ने अपनी हथेली पर उठा कर के सहलाया था। ऐसा कहा जाता है कि उनके सहलाने पर ही आज भी पूरी प्रजाति में तीन धारियां पीठ पर पायी जाती हैं।

भगवान सबके हैं, हर वर्ग के हैं। वो किसके नहीं है ? वो सबके हैं। वो रावण के भी हैं। हनुमान जी से उन्होंने कहा

“सो अनन्य जाकी मति असि न टरै हनुमंत।

मैं सेवक सचराचर स्वामि रूप भगवंत ।।"


हनुमान मैं तुम्हे भेज तो रहा हूँ सीता जी का पता लगाने लेकिन उतना ही करना जितना कहा है। मेरा अनन्य भक्त वही है जो यह जानता है कि सारा जगत ही मेरा स्वरुप है। इसी तरह जब उद्धव जी ने सेवक की परिभाषा भगवान से पूछी। भगवान श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया,

" यावत् सर्वेषु भूतेषु मद्भावो नोऽपजायते ।

तावत् एवं उपासीत् वाक् काय दृष्टि वृत्तिभिः ।।”

शबरी जी की कथा भी यहां प्रासंगिक है। भगवान की यात्रा में सब ऋषियों ने उनका स्वागत करने कि चेष्टा की है और हर जगह भगवान ने बस यही पूछा है कि शबरी मैया कि कुटिया कहां है। शबरी जी ने भगवान राम की कैसे प्रतीक्षा की है,यह हम सब जानते ही हैं। संतों ने अपनी लीला में देखा है की भगवान् ने उनके जूठे बेर खाये हैं।

.......तो मै रावण को बना दूंगा अयोध्या का राजा 

अब राम जी के स्वभाव से तनिक और परिचित हो जाइये, कितना महान स्वभाव है उनका। विभीषण जब भगवान के पास शरणागति करने आये तो भगवान ने उनको लंका का राजा बना दिया। समुद्र स्नान करवा कर सुशोभित कर दिया राज्यपद पर। तब कुछ वानरों ने शंका व्यक्त करी कि प्रभु आपने अभी लंका को जीता भी नहीं है, अभी तो आप समुद्र तट पर आये हैं केवल, और रघुकुल रीत है कि प्राण जाये पर वचन न जाय। अब आप विभीषण को लंका का राजा बना चुके हैं तो एक बात यह कि यदि आप हार गए रावण से तो आपकी कुल परंपरा नष्ट हो जाएगी और दूसरा प्रश्न यह है कि यदि समय रहते आपके बल पौरूष का भान करके रावण भी आपकी शरण में आ गया, जिस प्रकार से विभीषण आया है तब आप क्या करेंगे ? रावण राज्य-लोलुप है यदि वह आता हैं तो यही सोचेगा कि सुंग्रीव को राज्य दिया आपने, विभीषण को दिया और वो स्वयं जिसने लंका जैसे बड़े राज्य का शासन किया है, जो राज्य-सुख का भोगी है उसे आप क्या देंगे ? भगवान राम पहले प्रश्न का उत्तर देते हुए अपने कौशल और क्षमता के बारे में कुछ नहीं कहते हैं बस लखनलाल जी की ओर देखते हैं और समझाते हैं कि ये केवल मेरे निर्देश मात्र से त्रिभुवन का नाश कर सकते हैं तो हार का तो प्रश्न ही नहीं उठता। ऐसी क्षमता लखनलाल जी में है। दूसरा, उन्होंने कहा कि देखो रावण की लंका तो मैंने विभीषण को दे दी अब यदि वह भी शरणागत हो गया तो आप लोग संभवतः भूल चुके हैं कि अयोध्या के राजपद पर मेरी पादुकाएं शासन कर रही हैं, जिस अयोध्या पर चक्रवर्ती राजाओं ने शासन किया है वो अयोध्या मैं रावण को दे दूंगा। सारी जनता रोने लगी। ऐसे हैं प्रभु श्रीराम। प्रभु क्या नहीं दे सकते हैं ! रावण को जो लंका मिली थी वो ऐसे नहीं मिली थी,

"सिर सरोज निज करन्हि उतारी। पूजेउँ अमित बार त्रिपुरारी"

यह रावण का पराक्रम था। लोग एक लोटा जल भगवान् शंकर को नहीं चढ़ाते हैं यहां और रावण ने अपने सर को काट कर के उसी को पुष्प समझ करके अनंत बार भगवान् का अभिनन्दन किया, उन सिर रुपी पुष्पों की माला चढ़ा देता था भगवान् के चरणों में। शिल्पकार विश्वकर्मा जी के द्वारा बनाई गयी सोने कि लंका तप करने पर दशानन को मिली थी। लंका निःशुल्क नहीं मिली थी, यह उसके तप का प्रभाव था। जो लंका इतना तप करने पर रावण को मिली वो भगवान राम ने विभीषण जी को ऐसे ही दे दी वो भी संकोच में कंही कम तो नहीं दे रहा हूँ।

 "मोर दरसु अमोघ जग माहीं"

मैं समस्त इच्छाएं पूरी कर देता हूँ, ऐसे हैं प्रभु श्रीराम ! भगवान ने यह भी नहीं सोचा कि भगवान् शंकर क्या सोचेंगे।

"जो संपति सिव रावनहि, दीन्हि दिएँ दस माथ।

सोइ संपदा बिभीषनहि, सकुचि दीन्हि रघुनाथ ॥"


ऐसे अद्भुत भगवान राम जी का भजन सबको करना चाहिए। प्रभु हम सबके हैं, प्रत्येक प्राणी मात्र में उनका निवास हैं। जन जन के राम हैं। राम के भजन से सब पूजन हो जाता है। कहा गया है -

"रामहि भजहिं ते चतुर नर" ।

लेखक - सुशांत चतुर्वेदी,


सहायक आचार्य

9140966710