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योगी की आक्रमकता ने अखिलेश मायावती को यूपी में किया पस्त, ट्वीटर ट्वीटर से अब नही मिलेगी राजनीति में सफलता


मधुसूदन सिंह

बलिया।। उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की आक्रमकता ने समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव और बहुजन समाज पार्टी की मुखिया बहन मायावती को 2017 से लगातार हासिये पर पहुंचाने का काम किया है। एक तरफ सीएम योगी ने हर चुनाव को चाहे वो लोक सभा का हो, लोक सभा का उप चुनाव हो, विधानसभा चुनाव हो, विधानसभा का उप चुनाव हो, विधानपरिषद का चुनाव हो, नगर निकाय चुनाव हो, किसी में भी थोड़ी भी शिथिलता नही बरती है।

वही दूसरी तरफ अखिलेश यादव हो या मायावती हो, 2014 से मिल रही लगातार शिकस्त के बाद भी ट्वीटर ट्वीटर के खेल के सहारे ही राजनीति कर रहे है। एक तरफ सीएम योगी है जो चिलचिलाती धूप में भी सभायें कर रहे है तो दूसरी तरफ अखिलेश यादव हो या मायावती, एसी कमरों में बैठ कर कार्यकर्ताओ का मनोबल ट्वीटर से बढ़ा रहे थे। एक तरफ सीएम योगी ने अपने आधिकारिक प्रत्याशियों के खिलाफ बागी बने पार्टी के नेताओं को येनकेन प्रकारेण चुनाव से अलग कराकर पार्टी के पक्ष में चुनाव प्रचार करने को विवश कर दिये और जो नही माना उसको बाहर का रास्ता दिखा दिये। वही अखिलेश यादव का अपने विद्रोहियों पर कोई नियंत्रण ही नही रहा। नतीजन चाहे वो वर्तमान विधायक हो, पूर्व मंत्री हो, पूर्व चेयरमैन हो, या अन्य पदाधिकारी हो, सब ने एक साथ मिल कर सपा की लुटिया डुबोने में कोई कोर कसर नही छोड़ी। आज यह कहने में कोई गुरेज नही है कि अखिलेश की समाजवादी पार्टी, समाजवादी पार्टी के संस्थापक स्व मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी से काफी अलग हो गयीं है।





सपा की हार के प्रमुख कारण

समाजवादी पार्टी की हार के कारणों में सबसे बड़ा कारण पार्टी का राष्ट्रीय व प्रदेश नेतृत्व की कठोर निर्णय लेने की क्षमता न होना है। पिछले दिनों हुए निकाय चुनाव में न तो अखलेश यादव ने, न ही अन्य नेताओं ने निकाय चुनाव जीतने की कोई स्पष्ट रणनीति बनायीं हो, यह दिखा, न ही अपने प्रत्याशियों को जिताने के लिये किसकी और कितनी सभायें लगेगी इसका ही निर्धारण किया। वही दूसरी तरफ सीएम योगी ने उन क्षेत्रो में प्रचार का स्वयं नेतृत्व किया जहां बीजेपी का प्रत्याशी हार की कगार पर खड़ा था, नतीजन श्री योगी ने हारी हुई बाजी को भी अपनी झोली में जीत के रूप में बदल कर डाल ली।

मुस्लिम मतदाताओं की नाराजगी

सन 2014 से जिस तरह से भाजपा का आक्रमण समाजवादी पार्टी के मुस्लिम नेताओं के ऊपर हो रहा है। आजम खान, इनके पुत्र, अफजाल अंसारी, मुख़्तार अंसारी की सदस्य जाने से लेकर इनको जिस तरह से शासन प्रशासन की प्रताड़ना मिली है और कभी आंदोलन करने और बोल मुलायम हल्ला बोल, के लिये प्रसिद्ध समाजवादी पार्टी का नेतृत्व चुप्पी साधे रहा, यह मुस्लिम समुदाय को अखर रहा था। इस नाराजगी में आग में घी का काम अतीक अहमद, अतीक के भाई और बेटे की ऐनकाउंटर में मौत ने किया। मुस्लिम समुदाय का मानना है कि अगर विधानसभा में अखिलेश यादव, अतीक प्रकरण में सीएम योगी को गुस्सा नही दिलाये होते तो इन लोगों की जान नही गयीं होती।

संघर्ष करने से घबराने वाली बन गयीं है समाजवादी पार्टी

ज़ब से अखिलेश यादव राष्ट्रीय अध्यक्ष और नरेश उत्तम प्रदेश अध्यक्ष बने है, समाजवादी पार्टी का एक भी बड़ा आंदोलन जनहित के लिये सड़कों पर नही दिखा है। जबकि मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव की ज़ब राष्ट्रीय और प्रदेश अध्यक्ष के रूप में जोड़ी थी, सपा आंदोलन के लिये ही जानी जाती थी। दुर्भाग्य है कि वर्तमान सपा नेतृत्व के इर्दगिर्द ऐसे नेताओं का जमावड़ा हो गया है जो सिर्फ ट्वीटर और टीवी डिवेट में ही पार्टी की आक्रमकता को दिखा सकते है, सड़कों पर दिखाने के लिये उनके पास जनाधार ही नही है। अगर सपा को अपनी खोयी हुई प्रतिष्ठा हासिल करनी है तो पार्टी नेतृत्व में बदलाव करना पड़ेगा, प्रदेश अध्यक्ष की कमान जुझारू नेता को देना पड़ेगा और विद्रोह करने वाले चाहे कितने भी बड़े क्यों न हो, उनको बाहर का रास्ता दिखाना पड़ेगा।

मुस्लिमों अन्य पिछड़ों को फिर से एक करना सबसे बड़ी चुनौती

2014 से लगातार हारने के बावजूद, अपने नेता को भाजपा द्वारा पप्पू साबित करने की मुहिम के बावजूद जिस तरह कांग्रेस ने पूरे देश में सड़को पर संघर्ष करने से पीछे नही हटी, आज उसका परिणाम सामने दिखने लगा है। कांग्रेस के संघर्षो की ही देन है कि भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत के अभियान को बड़ा झटका लगा है और दक्षिण से भाजपा मुक्त सरकारों की शुरुआत हो गयीं है।

इस नगर निकाय चुनाव को जहां भाजपा आगामी 2024 के लोक सभा चुनाव का ट्रेलर मानकर चुनावी समर में उतरी थी और सफल भी रही है। वही दूसरी तरफ अखिलेश यादव इसको बच्चों का खेल समझ कर अपने ऑफिस से खेलते रहे। इस चुनाव में सपा के मुस्लिम व यादव मतदाताओं के साथ ही अन्य पिछड़े वर्ग के मतदाताओं के सामने सबसे बड़ी दुविधा यह रही कि वो निर्णय ही नही कर पाये कि समाजवादी पार्टी का प्रत्याशी कौन है? साइकिल सिंबल वाला या विद्रोही। नतीजन मत का बंटवारा हो गया और समाजवादी पार्टी चारों खाने वहां चित हो गयीं जहां जहां विद्रोही प्रत्याशी मैदान में रहा।

समाजवादी पार्टी को अगर 2024 के चुनाव में अगर सफलता पानी है तो उसको सबसे पहले मुस्लिम मतदाताओं में फिर से भरोसा कायम करना होगा, नही तो इनको आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ जाने से कोई नही रोक सकता है। कर्नाटक का परिणाम मुस्लिमों में कांग्रेस के प्रति सहानुभूति पैदा कर रहा है।

सीएम योगी जैसी आक्रमकता स्वयं में लानी होंगी अखिलेश को

समाजवादी पार्टी के अधिकांश कार्यकर्ताओ का मानना है कि अगर पार्टी को फिर से सफल बनाना है तो अखिलेश यादव को भी सीएम योगी की तरह ही आक्रामक बनना पड़ेगा। प्रदेश अध्यक्ष के पद से नरेश उत्तम को हटाकर एक बार फिर से चाचा शिवपाल को प्रदेश अध्यक्ष बनाना होगा, तब पार्टी भाजपा को टक्कर दे सकती है। लगातार हार से कार्यकर्ताओ का मनोबल टूटा हुआ है, इनमे नई संजीवनी भरने के लिये संघर्षशील व सम्मोहक नेतृत्व आवश्यक है। कार्यकर्ताओ का मानना है कि जिस तरफ सीएम योगी अपने राजनैतिक विरोधियों के खिलाफ चाहे वो इनकी पार्टी के अंदर का हो या विपक्षी पार्टी का हो, परास्त करने के लिये हमेशा आक्रामक रहते है, अखिलेश को भी इसी तरफ बनना पड़ेगा।