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शिक्षकों का सम्मान, सुरक्षा तथा उनके लिए सर्वथा उचित परिवेश का निर्माण करना राज्य व समाज का नैसर्गिक दायित्व : डॉ सुनील




बलिया।।व्यक्तित्व निर्माण और विद्यार्थियों में सदवृत्तियों के विकास सहित उनके अनुकलन तथा समाजीकरण व देशकाल परिस्थिति के अनुकूल अपनी उपयोगिता को प्रमाणित करने हेतु शिक्षार्थी व शिक्षा के बीच संप्रेषक के रूप शिक्षक की भूमिका से कोई इंकार नहीं कर सकता।शिक्षकों की महत्ता व भूमिका का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसी जी ने लिखा है कि-

गुर गृह पढ़न   गये  रघुराई,अल्पकाल विद्या सब आई।।



   इससे सिद्ध होता है कि चाहे राजा हो या प्रजा, मंत्री हों या अधिकारी  कितना ही प्रभावशाली व्यक्ति क्यों न हो,कोई भी अपने पुत्र,पुत्री और पाल्यों का गुरु नहीं हो सकता।स्वयम शिक्षक भी अपने पुत्र -पुत्रियों का योग्यतम शिक्षक नहीं हो सकता।अतएव प्रत्येक माता-पिता अपनी संतानों को ज्ञान-विज्ञान,कला-संस्कृति,संस्कार व परिधान आदि की शिक्षा प्रदान करने हेतु शिक्षकों की शरण गहते हैं।इस प्रकार कहा जा सकता है कि जहां माता-पिता की दृष्टि अपनी संतानों की गुणवत्ता मात्र तक ही सीमित रहती है तो वहीं शिक्षकों की दृष्टि राष्ट्र व समाज के अनुकूल गुणज्ञ नागरिकों के निर्माण की होती है।

     हालांकि यह सत्य है कि विद्यार्थियों की शिक्षा में शिक्षक-शिक्षार्थी और समाज की त्रिध्रुवीय भूमिका के बावजूद शिक्षार्थी रूपी बालक ही केंद्रबिंदु होता है।जहाँ समाज उचित परिवेश के सृजन करने हेतु जिम्मेदार होता है तो शिक्षक एक संप्रेषक के रूप में विद्यार्थियों के जीवन मे आने वाली समस्याओं के समाधान की क्षमताओं का विकास करता है।अभिभावक व माता-पिता सिर्फ और सिर्फ अपने पाल्यों में संभावनाओं को देखते हैं जबकि शिक्षक उन संभावनाओं को सम्भव बनाने का गुरुतर कार्य करता है।शिक्षक विद्यार्थियों के माता-पिता के स्वप्नों को धरातल प्रदान करने की चुनौती स्वीकार करते हुए अपने दायित्वों का निर्धारण करता है।जाहिर है कि अभिभावक या सरकारें इसके बदले कुछ टका या धन बतौर वेतन या अनुग्रह शिक्षकों को देकर भी ढिंढोरा नहीं पीट सकते।कोई भी सरकार शिक्षकों को दिए जाने वाले वेतन के बदले उन्हें दंडित या तिरस्कृत नहीं कर सकती।ध्यान रहे कि शिक्षकों की सेवाओं का मूल्य दिया जा सकता है,मोल नहीं।मूल्य पदार्थिक प्रदार्थों और वस्तुओं का होता है,जोकि शिक्षक के साथ नहीं होते।अतएव शिक्षक द्वारा दिया गया ज्ञान अनमोल तो शिक्षक की सेवाओं का भी कोई मोल नहीं चुका सकता।








     इतिहास साक्षी है कि गुरुकुलों में शिक्षण करने वाला स्वाभिमानी शिक्षक अपने जीवन मूल्यों व उद्देश्यों के प्रति जितना जागरूक था,उतना आज शहरों की चकाचौंध में शिक्षण करने वाला शिक्षक नहीं है।ऐसा क्यों है?ये विचारणीय है।विद्वानों के अनुसार शिक्षक का उत्कर्ष उसके शिक्षार्थियों की उपलब्धियों में निहित होता है।यही कारण है कि प्राचीन ऋषिगण व शिक्षक विद्यार्थियों के कौशल्य व नैपुण्य को ही अपनी महान उपलब्धि मानते थे,वे राजाओं के द्वारा दिये गए अनुग्रहों व दानादि को भी ग्रहण नहीं करते थे किंतु जब द्रोणाचार्य बदलकर कृपाचार्य अर्थात राज्याश्रित वेतनभोगी हो गए तो राज्य की चाटुकारिता और राज्यों की प्रत्येक नीतियों में भी असहमति के बावजूद खामोश होकर सहमति देना शिक्षकों को उनके उद्देश्य निर्धारण से विमुख करने हेतु जिम्मेदार है।अतः शिक्षकों को चाहिए कि वे कभी भी राज्याश्रित होकर भी राजनैतिक रूप से कभी भी दल विशेष के समर्थक या विरोधी न बनें।शिक्षकों को चाहिए कि दल,जाति, धर्म ,पंथ आदि से ऊपर उठकर सदैव देश और विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास के प्रति ही सजग व सचेत रहें तथा सरकार की गलत नीतियों की सदैव आलोचना करते हुए विचार परिवर्तन की कड़ी से सामाजिक परिवर्तन जारी रखें।

     शिक्षकों का सम्मान,उनकी सेवा सुरक्षा तथा उनके लिए सर्वथा उचित परिवेश के निर्माण करना राज्य व समाज का नैसर्गिक दायित्व है।किंतु जब जब समाज शिक्षकों की अहमियत को गौण करते हुए उन्हें विशिष्टजन की बजाय आम आदमी मानने लगता है तो शिक्षक भी हतोत्साहित होता है,दिग्भ्रमित होने लगता है,जोकि राष्ट्र के लिए कभी भी फलदायी नहीं होता है।अधिकारियों,सामाजिक लोगों,राजसत्ता के जिम्मेदारों व अन्यों को यह समझना चाहिए कि यदि शिक्षक निरुद्देश्य हुए,भटके तो उनकी औलादें घरों के कचरों से अधिक नहीं होंगीं। इसलिए आज जरूरी है समाज के हर तबका का की जो माहौल सतीश चन्द पी जी कालेज बलिया में बना है अगर शिक्षक और कर्मचारियों का हुजूम एक साथ खड़ा है तो अभिभावकों का हुजूम भी साथ हो।तभी यह लड़ाई में हम सब सुरक्षित रह सकते है।


(विचारक-डॉ सुनील कुमार ओझा असिस्टेंट प्रोफेसर, अमर नाथ मिश्र पी जी कालेज दुबेछपरा बलिया)