Breaking News

फिरोज गाँधी ने इलाहबाद से भेजे 3 वकील, गांधी टोपी पहनने वालों की आ जाती थी शामत, होली के दिन जेल मे लाठीचार्ज




मधुसूदन सिंह

बलिया।। पूरे जिले पर फिर से कब्जा कर लेने के बाद अंग्रेजों द्वारा जबरदस्त दमन चक्र चलाया गया। गांधी टोपी पहनकर निकलने वालों की तो खैर ही नही थी थी। टोपी पहने जो मिल जाता था उसकी समझिये शामत आ गयी। पुलिस उस व्यक्ति की इतनी बेरहमी से सार्वजनिक स्थानों पर पिटाई करती थी कि दूसरा व्यक्ति टोपी पहनने के विषय मे सौ बार सोचने को मजबूर हो जाता था। जो भी क्रन्तिकारी गिरफ्तार होते थे उनके पक्ष मे दलील पेश करने के लिए कोई भी वकील खड़ा ही नही होता था। नतीजन क्रांतिकारियों को फर्जी आरोपों मे भी अंग्रेज जजों द्वारा सजा देकर जेल भेज दिया जा रहा था।


बलिया के न्यायालयों की मनमानी देख कर श्री फिरोज गांधी ने इलाहाबाद के तीन एडवोकेट जिसमें पं० शिव चरण लाल, श्री गोपाल जी मेहरोत्रा और सतीश चन्द्र खरे थे, बलिया के बन्द नेताओं की पैरवी के लिए कानूनी सलाहकार कमेटी इलाहाबाद की तरफ से भेजा। इन लोगों के आ जाने के कारण यहाँ के वकीलों में पैरवी करने का साहस हुआ। बाबू मुरली मनोहर जब जेल से रिहा होकर निकले तो सेशन कोर्ट में अभियुक्तों को छुड़ाने के लिए निःशुल्क पैरवी करने लगे।


पुलिस ने अधिकांश मुकदमें धारा 395/397, 304, 307, 395, 436, भा ० द० वि० के अन्तर्गत चलाया था । 34/38 तथा आर्म्स एक्ट के अंतर्गत भी कुछ लोगों पर मुकदमें कायम हुए थे।





बलिया जेल की दशा

बलिया जेल में केवल  150 बन्दियों के खाने-पीने और बिस्तरे का प्रबन्ध था । सितम्बर के अन्त तक जेल में बन्दियों की संख्या 6 सौ हो गई । एक चबूतरे पर दो-दो तीन-तीन बन्दी किसी तरह लेट कर गुजारा करते थे। बहुत से बन्दी तो बैठे-बैठे सोने की जगह न मिलने के कारण रात काट लेते थे। पैखाने का इन्तजाम ठीक नहीं था। बैरक में पेशाब करने की जगह एक ही थी जिससे पूरे बैरक में पेशाब की दुर्गन्ध रात में होती थी। कैदियों को खाने के लिए चोकर की कच्ची रोटियाँ दी जाती थीं जिससे अधिकतर बन्दी पेट के मरीज हो जाते थे। इन बीमार लोगों का इलाज जेल का डाक्टर नहीं करता था। दवा माँगने पर फटकार देता था। उस समय दवा का प्रबन्ध सीमित बन्दियों तक के लिए ही रखा जाता था। बहुत से बन्दी दवा के अभाव से जेल में ही मर गए। कुछ जेल से बाहर निकलने के बाद जेल की बीमारी से मर गए।


बलिया जेल में खाने-पीने और सोने की तकलीफ तो भी ही किन्तु जो भी बन्दी जेल में जाता था उसकी पिटाई जेल के फाटक पर ही बड़ी बेरहमी से की जाती थी ताकि जेल में जाकर वह भय के मारे शान्ति से रहे और इसका प्रभाव जेल में बन्द अन्य बन्दियों पर भी पड़े जिससे जेल की इस दुर्व्यवस्था के विरोध में कोई आवाज उठाने का साहस न कर सके ।


होली के दिन जेल में लाठी चार्ज


सन् 1943 में होली के दिन जेल के बन्दियों ने जेल के अधिकारियों से कि आज होली का दिन है, आज हमें चोकर की वही कच्ची रोटियाँ नहीं मिली चाहिए। जेल के अधिकारियों ने बन्दियों की बातों को अनसूनी कर दिया। इस पर बन्दियों ने जेल में नारा लगाना शुरू किया तथा लोहे की छड़ों पर तसला बजाना भी प्रारम्भ कर दिया। जेल के अन्दर इस हंगामें को सुनकर पुलिस कप्तान कुछ सिपाहियों को लेकर आया और वैरिकों को खुलवा कर बैरक के अन्दर बुरी तरह लाठी चार्ज करवाया। जिससे बहुत से बन्दी खून-खून हो गए और उनके खून छीटों से बैरक की दीवारें लाल हो गई । 


जेल के अन्दर जेल की व्यवस्था का यदि कोई बन्दी विरोध करता था तो उसे फाटक के पास लाकर बुरी तरह पीटा जाता था। पैरों में बेड़ी और हाथ में हथकड़ी डाल दी जाती थी। कुछ बन्दियों को जेल की कोठरियों में तनहाई की सजा दे दी जाती थी । तसला बजाने के अपराध में 6 नेताओं की पिटाई रोज की जाती थी। जब वे बेहोश हो जाते थे तो उन्हें बैरकों में उठाकर फेंक दिया जाता था। एक दिन की घटना है कि जेल के डोमों को कुछ क्रान्तिकारियों पर जोरों से बेंत लगाने के लिए कहा गया तो वे बेंत लगाने से इन्कार कर दिये, पुलिस कप्तान वहीं मौजूद था और इन डोमों को पुलिस द्वारा घेर कर बहुत बुरी तरह पिटवाया जिससे वे बेहोश होकर गिर पड़े। उन्हें जेल की नौकरी से निकाल दिया गया। जेल के बन्दियों ने इन डोमों के कार्यों की प्रशंसा की।


जेल में कुछ ऐसे भी बन्दी थे जो जेल के कानून को नहीं मानते थे श्री राम जन्म सिंह पर इतनी मार पड़ी कि मारने वाले थक गए किन्तु श्री रामजन्म सिंह जेल मैनुवल के अनुसार काम करने से इन्कार करते रहे। बाद में जेल अधिकारियों ने ऐसे बन्दियों का चालान दूसरी जेलों में कर दिया।

सन् 1942 की जन क्रान्ति के समय जब सभी चोटी के नेता हिन्दुस्तान के विभिन्न जेलों में बन्द थे तो करो या मरो के नारे पर बागी बलिया ने ब्रिटिश राज मे नही डूबने वाला सूर्य बलिया की धरती पर 18 अगस्त 1942 को ही डूबा दिया और 14 दिनों तक अपना राज किया। जब ब्रिटिश प्रधान मंत्री को यह सूचना मिली कि हिन्दुस्तान में उत्तर प्रदेश का बलिया जिला उसकी हुकूमत से बाहर गया तो इंग्लैंड में खलबली मच गई। बलिया को पुनः जीतने के लिए फौजें भेजी गयी ।

पाशविक अत्याचार को करने मे हिंदुस्तानी थानेदार व सीआईडी के लोग भी थे शामिल 

 फौजी आते ही दमन का नग्न तांडव वैसे ही शुरू कर दिये जैसे आजाद मुल्क को गुलाम बनाने के लिए फौजें करती हैं । इस दमन चक्र में न जाने कितनी माताओं के लाल लुटे और कितनी बहनों के सिन्दूर घुले । ये पाशविक अत्याचार अंग्रेजों के साथ-साथ उस समय के थानेदार तथा सी० आई० डी० के लोग भी करने में पीछे नहीं रहे। इस जुल्म को आजादी के दिवानों ने सहर्ष झेला क्योंकि आग से खेलने वाले जलने की परवाह नहीं करते। उन्हें यह भली-भांति मालूम था कि ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ कर फेंक देने का नतीजा क्या होगा । बलिया में दमन का जोर इतना रहा कि गांधी टोपी पहने हुए कोई भी बाहरी व्यक्ति दिखाई पड़ जाता था तो उसकी पिटाई कोतवाली में जम कर की जाती थी ।