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क्या सर्वोच्च न्यायालय से बड़े है बलिया के अधिकारी,सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद सामान्य विद्यालय को बना दिया अल्पसंख्यक, बेल्थरारोड में हुआ खेल

 





मधुसूदन सिंह

बलिया ।। देश मे सर्वोच्च न्यायालय का आदेश कानून बन जाता है,उसका पालन करना हर सरकारी अधिकारी के लिये जरूरी हो जाता है । लेकिन बलिया में शिक्षा विभाग के अधिकारियों के लिये सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का भी कोई महत्व चढ़ावे के आगे नही दिख रहा है । अधिकारियों ने माननीय न्यायालय के आदेश के बावजूद एक सामान्य विद्यालय को अल्पसंख्यक घोषित कर खूब धन उगाही की है और शिकायत होने के बावजूद कोई कार्यवाही नही कर रहे है । नकल के लिये ही बलिया बदनाम नही है बल्कि यहां विद्यालयों की मान्यता देने में भी बड़ा खेल जिला विद्यालय निरीक्षक कार्यालय से होता है । मुख्यमंत्री जी ,बलिया के शिक्षा विभाग के अधिकारी हो या जिला प्रशासन के अधिकारी हो चाहे नकल कराने की छूट देनी हो,परीक्षा केंद्र बनाना हो या फर्जी दस्तावेजों के आधार पर मान्यता देकर धनउगाही करनी हो, पूरे प्रदेश में सबसे आगे है । गलत दस्तावेजों के आधार पर बेल्थरारोड का एक विद्यालय जो सामान्य विद्यालय था,उसको 2014 से अल्पसंख्यक विद्यालय ही महि बनाया गया है बल्कि इसमें अल्पसंख्यक के नाम पर लगभग3 दर्जन नियुक्तियों को भी करने का काम किया गया है,इसकी कई बार खबर भी प्रकाशित की गई, आपके पोर्टल के माध्यम से शिकायत की गई,लेकिन शिक्षा विभाग व जिला प्रशासन के अधिकारियों ने आजतक इसकी गहनता से जांच ही नही की या यूं कहें कि धन उगाही करके भ्रष्टाचार को बढ़ाने का काम किये, कार्यवाही आजतक नही की गई है ।

 फर्जी दस्तावेजों से मान्यता लेने का एक प्रकरण बेल्थरारोड से है जहां 1947 से स्थापित विद्यालय को 2014 में साजिशन अल्पसंख्यक विद्यालय घोषित करते हुए तत्कालीन जिला विद्यालय निरीक्षकों ने भ्रष्टाचार की नदी में जमकर गोते लगाते हुए अल्पसंख्यक के नाम पर जमकर नियुक्ति की है । मामला बेल्थरारोड के जीएमएएम स्कूल से सम्बंधित है । जिसकी कई बार शिकायत की गई लेकिन आज तक इससे फर्जी अल्पसंख्यक दर्जा वापस नही हो पाया है ।

जीएमएएम इण्टर कालेज बेल्थरारोड के अल्पसंख्यक विद्यालय बनने के आदेश के खिलाफ कई बार शिकायत करने के बाद भी जांच अधिकारियों द्वारा विद्यालय प्रबंधन के खिलाफ कोई कार्यवाही न करना, यह साबित करता है कि एक सामान्य विद्यालय को अल्पसंख्यक विद्यालय का दर्जा दिलाने और उसको बरकरार रखने में इनकी भी महत्वपूर्ण संलिप्तता है । अगर ऐसा नही होता तो  शासन में आईजीआरएस के माध्यम से जो शिकायत दर्ज करायी गयी थी,उसकी जांच होती,उसका फर्जी निस्तारण नही किया जाता । 

सीएम योगी के राज में भी अगर ऐसे शिक्षा माफिया माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को भी धत्ता बताकर सामान्य विद्यालय को अल्पसंख्यक विद्यालय घोषित कराकर जिस तरह से लूट की जा रही है,तो निश्चित ही शिक्षा विभाग के नीचे से लेकर ऊपर तक के कई अधिकारी संलिप्त होंगे,जो इसको सामान्य विद्यालय बनाने के प्रयास में रोड़ा अटका रहे है । माननीय मुख्यमंत्री जी को इस विद्यालय की कुंडली एसटीएफ से खुलवानी चाहिये,अगर ऐसा हो गया तो शिक्षा विभाग में हड़कम्प मच जायेगा ।





 क्या है विद्यालय का इतिहास,सर्वोच्च न्यायालय ने क्यो नही माना अल्पसंख्यक विद्यालय

ज्ञात हो कि गाँधी मुहम्मद अली मेमोरियल इण्टर कालेज की स्थापना व 1945 में जूनियर हाईस्कूल के रूप में हुई थी । 1948 में  हाईस्कूल और 1950 में इण्टर की मान्यता मिली। इस विद्यालय के स्थापना के समय संस्थापक सदस्यो में हिन्दू समुदाय के डॉ0 वैजनाथ शाही, डॉ0 हरिचरन लाल, कैलाश कुमार गुप्ता , मथुरा प्रसाद, गौरीशंकर आदि हिन्दू एवं कुछ मुस्लिम सदस्य थे। वर्ष 1979 में विद्यालय के प्रधानाचार्य बदरुल हसन कादरी को विद्यालय प्रबन्ध कमेटी द्वारा बर्खास्त कर दिया गया। इसके बाद बदरुल हसन कादरी ने डिप्टी डायरेक्टर से इस मामले में गुहार लगायी किन्तु वहाँ से  अल्पसंख्यक विद्यालय कहते हुए कोई सुनवाई नही हुई। इसके बाद बदरुल हसन कादरी ने  1979 में शिक्षा एक्ट 1921 के 16 जी के तहत स्टेट आफ उत्तर प्रदेश  के खिलाफ  हाईकोर्ट इलाहाबाद में मुकदमा दाखिल किया। जिस पर न्यायधीश अमरनाथ वर्मा और आर के गुलाटी की खण्डपीठ ने याचिका संख्या 2940/ 1979 के मामले की सुनवाई करते हुए सभी बिन्दुओ का अवलोकन करने के पश्चात 12 फरवरी 1992 में यह फैसला दिया कि जीएम एएम इण्टर कालेज अल्पसंख्यक विद्यालय नही है। क्यों कि इस विद्यालय की स्थापना हिन्दू और अल्पसंख्यक दोनों वर्ग के लोगो द्वारा की गयी है। सिर्फ अल्पसंख्यक वर्ग के लोगो द्वारा स्थापित विद्यालय ही अल्पसंख्यक विद्यालय घोषित किया जा सकता है। इस आदेश के बाद बदरुल हसन कादरी ने उच्चतम न्यायालय में मुकदमा दाखिल किया जिसे न्यायालय ने हाईकोर्ट के आदेश के आधार पर ख़ारिज कर दिया। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने भी जीएमएएम विद्यालय को अल्पसंख्यक विद्यालय मानने से इंकार करते हुए उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा । लेकिन बर्खास्त प्रिंसीपल बदरुल हसन कादरी को बहाल करने का आदेश दिया। इस आदेश के बाद गाँधी मुहम्मद अली मेमोरियल इण्टर कालेज सामान्य विद्यालय की तरह चलता रहा। अध्यापको की नियुक्तियां आयोग से होती रही।


 कब से फर्जी तरीके से हो गया अल्पसंख्यक विद्यालय,जिला विद्यालय निरीक्षकों के लिये बना सोने का अंडा देने वाली मुर्गी

 वर्ष 2013 में अखिलेश सरकार द्वारा अल्पसंख्यक विद्यालयो के लिए एक जियो जारी हुआ की जिनकी माइनॉरिटी नवीनीकरण न कराने और पंजीकरण शुल्क जमा न होने के कारण मर चुकी है। वह संस्था विलम्ब शुल्क के साथ अपनी माइनॉरिटी बहाल करा सकते है। इस आदेश के बाद विद्यालय प्रबन्ध कमेटी ने उच्च न्यायालय के आदेश को छिपाकर एवं संस्थापक सदस्यो का नाम बदलकर कागजी हेराफेरी करके शुल्क जमाकर 29 अक्टूबर वर्ष 2013 को फर्जी तरीके से अल्पसंख्यक संस्था घोषित करा लिया।  प्रबन्धक और प्रधानाचार्य ने पांच वर्षों में शिक्षा विभाग के अधिकारियो की मिली भगत से 8 परिचारकों समेत 32 नियुक्तियां की गयी है। 28 जून 2014 को जिला विद्यालय निरीक्षक मनोज गिरि  के द्वारा अध्यापक पद पर प्रथम 6 नियुक्तियां जिसमे मु0 मोबिन, आमिर शमशाद, मो0 आमिर, मो0 साजिद खां, जावेद अख्तर, मु0 दानिस मोहसिन का किया गया। इसके बाद जिलाविद्यालय निरीक्षक रमेश सिंह ने अपने दो भतीजे अजित सिंह की नागरिक शास्त्र के प्रवक्ता व आनन्द सिंह की हिन्दी प्रवक्ता   पर करते हुए 8 परिचारक समेत कुल 20  की नियुक्ति किया। इसके बाद जिला विद्यालय निरीक्षक शिवचन्द राम ने 3 अध्यापको का अनुमोदन किया। वर्ष 2017 - 18 में जिला विद्यालय निरीक्षक अमरनाथ राय ने अपने रिश्तेदार नीरज राय समेत 3 अध्यापको की नियुक्ति किये। इस प्रकार प्रबन्धक , प्रधानाचार्य के द्वारा उच्च न्यायालय के आदेश को दरकिनार करते हुए अल्पसंख्यक विद्यालय के नाम पर अधिकारियो की मिलीभगत से 5 वर्षो में 32  कर्मचारियों की नियुक्ति किया गया है। इस मामले का प्रकाश में आने के बाद चर्चाओं का बाजार गर्म है।

फर्जीवाड़े के द्वारा संस्थापक सदस्यों के नामों में किया गया फेरबदल

बदरुल हसन कादरी द्वारा अपनी बर्खास्तगी को लेकर प्रबन्ध कमेटी के आदेश के खिलाफ माननीय उच्च न्यायालय व बाद में उच्चतम न्यायालय में वाद योजित किया गया था ।  संस्थापक सदस्यों व प्रबन्ध समिति में डॉ0 वैजनाथ शाही, डॉ0 हरिचरन लाल, कैलाश कुमार गुप्ता , मथुरा प्रसाद, गौरीशंकर आदि हिन्दूओ के होने के कारण ही न तो माननीय उच्च न्यायालय ने , न ही सर्वोच्च न्यायालय ने इस विद्यालय को अल्पसंख्यक विद्यालय माना । कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जिस विद्यालय की स्थापना केवल अल्पसंख्यक समुदाय के लोगो द्वारा की गई हो, उसी को अल्पसंख्यक का दर्जा मिल सकता है ।

ऐसे में जो विद्यालय 2013 में अल्पसंख्यक विद्यालय होने से पहले सामान्य विद्यालय था और 1945 से लेकर 2013 तक इसके संस्थापक सदस्यों में हिन्दू भी थे, जिनके खिलाफ  बदरुल हसन कादरी सर्वोच्च न्यायालय तक मुकदमा लड़ चुके हो, वो हिन्दू नाम एकाएक 2013 में कैसे गायब हो गये और इस विद्यालय के संस्थापक केवल मुस्लिम समुदाय के लोग कैसे बन जाते है, बहुत बड़ा फ्राड है । यह ऐसा फ्राड का कृत्य है जो सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की भी अवमानना करता है और इसको अल्पसंख्य विद्यालय मानकर यहां नियुक्ति को सत्यापित कर वेतन आहरण की स्वीकृति देने वाले 2013 से लेकर आजतक के सभी जिला विद्यालय निरीक्षक बलिया भी इस घोखाघडी और सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के आलोक में फिर से शासन द्वारा जांच करायी जानी चाहिये और सरकारी धन का बंदरबांट करने वालो के खिलाफ कठोर कार्यवाही करनी चाहिये ।