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आखिर लोग क्यो सुन रहे है यूट्यूब पर गुलजार की कविताएं ? जानिये यहां



    23 अगस्त 2018 ।।

साल 1934 और तारीख़ थी 18 अगस्त, जब झेलम (जो अब पाकिस्तान में है ) के दीना नाम के छोटे से गांव में सम्पूर्ण सिंह कालरा यानी कि गुलजार का जन्म हुआ था । गुलज़ार,इस नाम से शायद ही कोई हो जो वाकिफ ना हो वरना गुलज़ार नाम आते ही लोगों कि ज़ुबान पर उनकी लिखी नज़्में और गाने तुरंत याद आ जाते हैं. नज़्में जिन्होंने न जाने कैसी कैसी कल्पनाओं को कागज़ पर साकार किया. ऐसे में उनके जन्मदिन के मौके पर हम आपके लिए लेकर आए हैं यूट्यूब पर मौजूद उनकी लिखी नज़्में और वो भी उन्हीं की आवाज़ में जिसको सुनकर आप अगर कहीं खो जाएं तो ये बिलकुल भी नया नहीं होगा. यूं तो गुलज़ार की कलम से निकले अनगिनत शब्द कहीं न कहीं किसी न किसी किताब में पनाह ले चुके हैं लेकिन उनकी लिखी नज़्में अगर उन्हीं की आवाज़ में सुनने का मौका अगर मिले तो कोई भला क्यों छोड़े? तो ऐसे में इंटरनेट पर मौजूद उनकी नज़्में/कविताएं, यूट्यूब पर मौजूद हैं ।

वैसे भी इंटरनेट के दौर में आज कोई भी गाना, डांस या आपके फेवरेट कवि की कविता, फिल्म का ट्रेलर या पूरी फिल्म ही, इन सबका एक ही ठिकाना है और वो है यूट्यूब. और ये इंटरनेट की दुनिया इतनी बड़ी है कि आप अगर किसी सुबह इसमें गुम हुए तो शाम तक एक चौथाई भी नहीं खंगाल पाएंगे । यहां मौजूद एंटरटेनमेंट का खजाना इतना बड़ा कि इसमें सभी वीडियोज़ को देखने के लिए आपको तकरीबन 70,000 साल लगातार यूट्यूब देखते रहना होगा!!! ऐसे में इस प्लेटफॉर्म पर इतना कुछ होता है, जो हमारी नजरों से छूट ही जाता है. लेकिन फ़िक्र मत कीजिए, हम लेकर आए हैं एक ऐसी सीरीज़ जहां आपको यूट्यूब पर मौजूद हर मसाले की पूरी जानकारी मिलेगी ।
तेरी आंखों से ही खुलते हैं

तेरी आंखों से ही खुलते हैं सवेरों के उफ़क़

तेरी आंखों से ही बंद होती है यह सीप की रात
तेरी आंखें हैं या सजदे में है मासूम नमाज़ी
पलकें खुलती हैं तो यूं गूंज के उठती है नज़र
जैसे मंदिर से जरस की चले नमनाक सदा
और झुकती हैं तो बस जैसे अजां ख़त्म हुई हो
तेरी आंखें, तेरी ठहरी हुई ग़मगीन-सी आखें
तेरी आंखें से ही तख़लीक़ हुई है, सच्ची
तेरी आंखों से ही तख़लीक़ हुई है ये हयात




कभी-कभी, जब मैं बैठ जाता हूं

कभी-कभी, जब मैं बैठ जाता हूं
अपनी नज़्मों के सामने निस्फ़ दायरे में
मिज़ाज पूछूं
कि एक शायर के साथ कटती है किस तरह से …..????
वो घूर के देखती हैं मुझ को
सवाल करती हैं !!!
उनसे मैं हूं ?
या
मुझसे हैं वो ???
वो सारी नज़्में
कि मैं समझता हूं
वो मेरे 'जीन' से हैं लेकिन
वो यूं समझती हैं
उनसे है मेरा नाक-नक्शा
ये शक्ल उनसे मिली है मुझको...



स्केच
याद है इक दिन

मेरी मेज़ पे बैठे-बैठे
सिगरेट की डिबिया पर तुमने 
छोटे से एक पौधे का एक स्केच बनाया था

आ कर देखो
उस पौधे पर फूल आया है...




किताबें
किताबें झांकती हैं बंद आलमारी के शीशों से

बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होती
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं
अब अक्सर गुज़र जाती है कम्प्यूटर के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं क़िताबें
उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
जो कदरें वो सुनाती थी कि जिनके
जो रिश्ते वो सुनाती थी वो सारे उधरे-उधरे हैं
कोई सफा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है...



वो जो शायर था
वो जो शायर था चुप-सा रहता था

बहकी-बहकी-सी बातें करता था
आंखें कानों पे रख के सुनता था
गूंगी खामोशियों की आवाज़ें

जमा करता था चांद के साए
गीली-सी नूर की बूंदें
ओक में भर के खरखराता था
रूखे-रूखे- से रात के पत्ते

वक़्त के इस घनेरे जंगल में
कच्चे-पक्के से लम्हें चुनता था
हां वही, वो अजीब- सा शायर
रात को उठ के कोहनियों के बल
चांद की ठोड़ी चूमा करता था

कल सुना है ज़मीं से उठ गया है वो...

(साभार न्यूज 18)