खुन्था खोंच खड़ाऊं खूंटा,लुंगी लाठी लोटा लगोटा, बनाने वाले की गायब हो गयी किस्मत : डॉ भगवान प्रसाद उपाध्याय
प्रयागराज।।खुन्था बनाने वाले पक्षी और खोंच बनाने वाले ग्रामीण कारीगर , खड़ाऊं बनाने वाले लुहार और बरसात के पहले ही खूंटा पर्याप्त मात्रा में काटकर रखने वाले किसानों की किस्म ही गायब हो गई है। प्रायः सभी घरों के सामने गाय बैल भैंस बंधे होते थे। बबूल , बैर अथवा अन्य पेड़ों की डाल पर खुन्था बनाने की कला में सिद्ध गौरैया पक्षी अब घरों की मुंडेर पर नहीं आते। बरसात का मौसम शुरू होने के पहले ही बाग बगीचों और घर के दरवाजे पर नीम या आम पीपल आदि वृक्षों की डालियाँ खुन्थों से पट जाया करती थीं | खुन्थों के अलावा खपरैल घरों में भी यत्र तत्र घोंसला बनाने वाली गौरैया अब गाँव में भी केवल किस्सा कहानियों में रह गई हैं | अब मुंडेर पर न तो कौए जगाने के लिए सुबह आते हैं और न चिड़ियों का कलरव ही भोर में सुनाई देता है | जब पक्षी ही नहीं रह गए तो खुन्था और घोंसला कहाँ दिखाई देगा | खोंच , नाधा , बरारी , पगहा, नार , रस्सी , गेराईं सिकहर , मोढ़ा, खांची, पलरा , झौवा, डोरी आदि बनाने वाले किसानों का कहीं अता पता नहीं है | अब ढेरा से सनई कातने वाले, बाध बरने वाले किसान दिया लेकर ढूंढने से भी नहीं मिलते | खोंच लगाने के लिए बैल जब किसी भी दरवाजे पर बंधे हुए नहीं दिखाई देते तो फिर खूंटा बनाने की जरूरत ही नहीं रह गई | गोशाला एक समय किसानों के सम्पन्न होने का पर्याय मानी जाती थी किन्तु अब यह भी कथा कहानियों तक सीमित हो रही है |
एक समय था जब किसान खेती बाड़ी से खाली होते थे तो शादी ब्याह और धार्मिक अनुष्ठानों का अटूट दौर चलता था | लोग अपने गांव के अतिरिक्त आसपास के गांव में भी लोटा लेकर निमंत्रण खाने जाते थे | अब लोटा गिलास का स्थान प्लास्टिक की गिलास ने ले लिया और बफर सिस्टम ( गिद्ध भोज ) के कारण लोगों का लोटा लाठी लुंगी आदि से मोह भंग हो गया है | अब ना घर में लाठी दिखाई पड़ती है ना तो गांव में लठैत | अब लुंगी किसी-किसी घर में खरीदी जाती है ,और लंगोट पहनने वाले नेपथ्य में चले गए इसलिए उसे बनाने वाले दरजी भी नहीं रहे | लंगोट ब्रह्मचर्य पालन और अखाड़े का सिरमौर माना जाता था, लेकिन अब लंगोट पहनने वाले ही नहीं रहे तो लंगोट बनाने वाले कहां से दिखाई पड़ेंगे | हम आधुनिकता के दौर में इतने आगे निकल गए हैं कि प्रकृति से हमारा संबंध धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है | सुबह सुबह गाँव के बाहर नहर के किनारे की सैर , तालाबों , खेत बगीचों को देखने की आदत, खलिहान में रहने की उत्सुकता सब धीरे-धीरे गायब हो गई | अब हम इतने आधुनिक हो गए हैं कि नए युग के बच्चे अपने स्वयं के खेत में जाना पसंद नहीं करते | गर्मी के दिनों में गांव में जो आनंद आता था वह अब सब धीरे-धीरे लुप्त हो गया है |
( क्रमशः ) शेष अगले अंक में