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श्री सम्मेद शिखर को पर्यटन स्थल बनाने की सरकार की घोषणा से जैन समुदाय मे आक्रोश, जगह जगह प्रदर्शन




मधुसूदन सिंह

बलिया।। झारखंड सरकार द्वारा जैन संप्रदाय के 20 तीर्थंकरो के निर्वाण स्थल श्री सम्मेद शिखर जी को पर्यटन स्थल घोषित करने के निर्णय से पूरे जैन धर्मावलम्बियो मे आक्रोश भर दिया है। इसके खिलाफ जगह जगह जबरदस्त प्रदर्शन हो रहे है। जैन धर्म के लोगों के अनुसार ----

जहाँ का कण-कण सिद्धत्व के नाम है ।

जहाँ की आध्यात्मिकता अभिराम है ।

पावनता पर आधुनिकता का दाग मत लगाइये

गिरनार-शिखरजी हमारे आस्थाधाम हैं  --जगदीप जैन "हर्षदर्शी"


 आस्था का अस्तित्व है ये, कोई राजनीतिक दल नहीं।

जैनों का पावन तीर्थ है ये, महज ये कोई जंगल नहीं।

तीर्थंकरों की मुक्ति का केंद्र है, श्री सम्मेद शिखर की भूमि,

निर्वाण का पथ है गिरिराज, ये कोई पर्यटन स्थल नहीं --नरेंद्रपाल जैन।

श्री सम्मेद शिखर जी के सम्बन्ध मे कहा गया है कि --भाव सहित वन्दे जो कोई, ताहे नरक पशु गति न होई।

20 तीर्थंकरों एवं करोड़ो मुनियों की मोक्ष स्थली श्री सम्मेद शिखर तीर्थ क्षेत्र के लिए कहा गया है कि सच्चे मन से यदि कोई इस तीर्थ पर आकर सभी पर्वत टोंकों की वंदना करता है, तो उसके इतने पाप नष्ट हो जाते हैं कि उसका अगला जन्म नरक या पशु में नहीं होता।

ऐसे पवित्र तीर्थ स्थल को पर्यटन क्षेत्र घोषित कर उसकी पवित्रता को नष्ट करना है। सरकार से हमारी अपील है कि इस निर्णय को वापस लेवें।



जाने क्या है श्री सम्मेद शिखर जी की यात्रा का फल


जब आप इस पर्वत की वंदना करते हैं तो पुस्तक में पढ़ते हैं कि एक- एक टोंक की वंदना से इतने इतने करोड़-लाख आदि उपवासों का फल प्राप्त होता है। इसे कपोलकल्पित या भ्रामक नहीं समझना चाहिए, प्रत्युत् पर्वतराज के कण-कण की पवित्रता का स्पर्श करने से जो परिणामशुद्धि होती है, उसी को उपवासों के प्रमाण में हमारे आचार्यों ने निबद्ध करके सम्मेदशिखर पर्वत वंदना की महिमा बताई है। जैसा कि ग्रंथ में भी लिखा है- ज्ञानीजन बत्तीस करोड़ सच्चे प्रोषधोपवास का जो फल जानते हैं, वह फल सम्मेदशिखर की यात्रा करने वाला यात्री प्राप्त करे, उसके नरकगति और तिर्यंचगति का नाश होता है इस प्रकार भगवान् महावीर द्वारा कथित जो प्रमाण है, वह तुम सभी के लिए सही हो, ऐसी कवि की कामना है।


पुनश्च कहा है- ईदृक् श्रीजिनराजधर्मकथनं नानाभ्रमध्वंसनम्। श्रीसम्मेदगिरिप्रमाणसुफलं श्रीवर्धमानेरितम्।। लोहाचार्यवरेण भूय उदितं श्रुत्वाखिला: सज्जनाः । सम्मेदं प्रति यान्तु भावसहिताः सर्वार्थसिद्धिप्रदम् ।।९४।।


अर्थात् भगवान् महावीर द्वारा बताया गया, जिनराजों द्वारा बताये धर्म का कथन करने वाला तथा उनके भ्रमों का निवारण करने वाला इस प्रकार जो यह सम्मेदशिखर का प्रामाणिक फल वर्णन मुनिवर्य लोहाचार्य ने पुन: उदित किया है, उसको सभी सज्जन पुरुष भाव सहित अर्थात् तीर्थवंदना की सच्ची भावना से परिपूर्ण होकर सर्वार्थसिद्धि प्रदान करने वाले सम्मेदशिखर की ओर जाओ।


यहाँ कवि ने सम्मेदाचल की यात्रा हेतु हम सभी सज्जनों को उत्साहित किया है तथा अपने इस वर्णन को 'लोहाचार्य द्वारा उदित हुआ था - ऐसा कहकर प्रामाणिक बनाया है। इस पर्वत की वंदना केवल भव्यजीव ही करने के अधिकारी होते हैं, अभव्य नहीं।

वर्धमानोक्तितः पश्चाल्लोहाचार्येरितं च यत्। तद्भव्येषु प्रमाणं हि अभव्या नाधिकारिणः । । ७७ ।। अर्थ-


भगवान् महावीर के उपदेश के उपरान्त कुछ समय पीछे लोहाचार्य द्वारा कहा गया या प्रेरित किया गया जो सम्मेदशिखर का माहात्म्य है, वह भव्यजनों में प्रमाण ही है तथा अभव्य लोग उसमें अधिकारी नहीं होते हैं।


सम्मेदशिखर पर्वत पर जहाँ इस युग के द्वितीय तीर्थंकर भगवान अजितनाथ ने सर्वप्रथम योगनिरोध करके मोक्ष प्राप्त किया, वहीं तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के मोक्षगमन के पश्चात् उस पर्वत से किसी तीर्थंकर ने मोक्ष प्राप्त नहीं किया अर्थात् पार्श्वनाथ भगवान सम्मेदशिखर से मोक्ष जाने वाले तीर्थंकरों में अंतिम तीर्थंकर हैं। उनके मोक्ष जाने के बाद भावसेन नाम के राजा ने उस पर्वत की वंदना करके श्रीप्रसन्नमुख मुनिराज की प्रेरणा से पार्श्वनाथ के स्वर्णभद्रकूट पर जिनमंदिर बनवाकर उसमें भगवान पार्श्वनाथ की नीलमणि वाली रत्नप्रतिमा विराजमान की थी, ऐसा वर्णन भी ग्रंथ में आया है। तीर्थयात्रा करने से संसार यात्रा समाप्त होती है ! प्रत्येक धर्म और सम्प्रदाय के अपने-अपने तीर्थ होते हैं, जो उनकी श्रद्धा से जुड़े होते हैं। वे सभी अपने तीर्थों की यात्रा बड़ी भक्ति से करने जाते हैं और आत्मशांति प्राप्त करते हैं। तीर्थस्थान पवित्रता, शांति और कल्याण के धाम माने जाते हैं। जैनधर्म में भी प्राचीनकाल से तीर्थ का विशेष महत्त्व रहा है। जैनधर्म के अनुयायी प्रतिवर्ष बड़ी श्रद्धापूर्वक अपने तीर्थों की यात्रा करते हैं, उनका विश्वास है कि तीर्थयात्रा से पुण्य संचय होता है और परम्परा से मुक्तिलाभ की प्राप्ति होती है। इसी विश्वास के कारण बालक, वृद्ध, युवा सभी तीर्थभक्त लोग सम्मेदशिखर जैसे दुरूह पर्वतों की वंदना अपने पैरों से करने की भावना करते हैं।


तीर्थक्षेत्रों का माहात्म्य आचार्यों ने लिखा है- श्री तीर्थपान्थरजसा विरजी भवन्ति, तीर्थेषु विभ्रमणतो न भवे भ्रमन्ति।


तीर्थव्ययादिह नराः स्थिरसंपदः स्यु,


भव्या भवन्ति जगदीशमथाश्रयन्तः।।


अर्थात् तीर्थभूमि के मार्ग की रज इतनी पवित्र होती है कि उसके आश्रय से मनुष्य रज रहित अर्थात् कर्ममल रहित हो जाता है। तीर्थों पर भ्रमण करने से अर्थात् यात्रा करने से संसार का भ्रमण छूट जाता है।


निर्वाणक्षेत्र-ये वे क्षेत्र कहलाते हैं जहाँ तीर्थंकरों या किन्हीं दिगम्बर तपस्वी मुनिराज का निर्वाण हुआ हो । शास्त्रों का उपदेश, व्रत, चारित्र, तप आदि सभी कुछ निर्वाण प्राप्ति के लिए है। यही परम पुरुषार्थ है। जिस स्थान पर निर्वाण होता है, उस स्थान पर इन्द्रदेव पूजा को आते हैं तथा चरण-चिन्ह स्थापित कर देते हैं।


तीर्थंकरों के निर्वाणक्षेत्र कुल पाँच हैं-कैलाशपर्वत, चम्पापुरी, पावापुरी, ऊर्जयन्त और सम्मेदशिखर कैलाश पर्वत से भगवान ऋषभदेव, चम्पापुरी से श्री वासुपूज्य स्वामी, गिरनार से नेमिनाथ स्वामी, पावापुरी से महावीर स्वामी ने कर्मों को नाशकर शाश्वत सुख को प्राप्त किया। सम्मेदशिखर से २० तीर्थंकरों ने कठोर आत्म-साधना कर कर्मों को नाश कर अविनाशी सुख को प्राप्त किया।


निश्चितरूप से सम्मेदशिखर गौरवमय भूमि है। इस भूमि की विशेषता है, व्यक्ति जैसे ही शिखर की प्रथम सीढ़ी पर एक कदम रखता है, आगे ही बढ़ता चला जाता है। हृदय आनन्द से इस तरह सराबोर हो जाता है कि आगे आने वाली थकावट उसे महसूस नहीं होती है।


हमारा हृदय तब कितना प्रसन्न होता है, जब हम सम्मेदशिखर पर्वत के पावन शिखरों पर पहुँचते हैं। आँधी-तूफान, झंझावात, वर्षा, तेज हवाएँ सब कुछ चलती हैं, कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि पूरा शिखर ही हिल रहा है, तब भी निर्वाण की वे ज्योतियाँ अकम्प दिखाई देती हैं। इस पवित्र तीर्थधाम की यात्रा करना हमारा अहोभाग्य है। यही तो वह पर्वत है, जिसके कण-कण में सिद्धत्व की आभा है। असंख्य वर्षों से मानव ही नहीं वरन् देवों ने भी इसकी पूजन-अर्चन कर जीवन को पवित्र किया है। यहाँ का कंकण-कंकण सिद्ध आत्मा के चरण कमलों के स्पर्श से पवित्र है। यात्रा के समय हृदय में जो हर्षोल्लास, प्रफुल्लता और सहज आनन्द की उपलब्धि होती है वह अन्यत्र दुर्लभ है। इस पावन तीर्थ की यात्रा, वंदना, दर्शन, संकटहारी, पुण्यकारी और पापनाशिनी है।


भारत का अतीत गौरवमय रहा है। विश्व के अनन्त प्राणी जब अज्ञान के अंधेरे में रास्ते टोह रहे थे, तब इस देश के अनेकों महापुरुष, तीर्थंकर आचार्य एवं मुनि गहन चिन्तन की अतुल गहराइयों में पहुँचकर सिद्धत्व को प्राप्त कर रहे थे इसीलिए सम्मेदशिखर जैनों का सबसे पवित्र, बड़ा एवं सबसे ऊँचा तीर्थ माना जाता है। वर्तमान में सम्मेदशिखर पर्वत की ऊँचाई ४५७९ फुट है। इसका क्षेत्रफल (विस्तार) २५ वर्ग मी. में है। साधारण दिगम्बर जैन यात्रीगण रात्रि को १-२ बजे स्नान कर शुद्ध धुले वस्त्र पहनकर गिरिराज की वंदना को जाते हैं।








दिगम्बर जैन बीसपंथी कोठी


दिगम्बर जैन बीसपंथी कोठी से २ फर्लांग की दूरी पर क्षेत्रपाल महाराज की गुमटी है। यहाँ से ढाई मील की दूरी पर गन्धर्व नाला आता


है। जहाँ यात्रीगण विश्राम तथा यात्रा से वापसी में जलपान किया करते हैं। यहाँ से १ मी. की दूरी पर सीता नाला बहता है। सीता नाला पर यात्री बंधुओं के लिए शुद्ध जल से पूजन-सामग्री धोने का जल बहता रहता है। इस नाले के पार से १ मील दूर चोपड़ा कुण्ड है, जहाँ दिगम्बर जैन मंदिर है, वहाँ भगवान पार्श्वनाथ तथा भगवान चन्द्रप्रभ तथा बाहुबली स्वामी की मूर्ति स्थापित है। यहाँ से आधा किलोमीटर की दूरी पर देवाधिदेव कुन्थुनाथ स्वामी तथा गौतम गणधर महाराज की टोंक शुरू होती है। इस पर्वत की वंदना करते समय यात्री जूते, चप्पल, ऊनी वस्त्र, चमड़े की बनी वस्तुओं का उपयोग न करें, क्योंकि यह पाप बंध का कारण है।


मधुवन से भगवान् कुंथुनाथ जी की टोंक तक ६ मील (९ किमी.) तथा ऊपर समस्त टोकों की वन्दना का घुमाव ६ मील तथा पार्श्वनाथ से नीचे धर्मशाला तथा आने में ६ मील इस प्रकार १८ मील यानि २७ किमी. की यात्रा पुण्यभूमि के प्रताप से किसी प्रकार की थकावट प्रतीत नहीं होती है। इस गिरिराज से असंख्यात चौबीसी और अनन्तानन्त मुनीश्वरों ने कर्म नाशकर मोक्ष पद प्राप्त किया है।


तीर्थराज सम्मेदशिखर के २० टोंकों से २० तीर्थंकरों के साथ ८६ अरब ४८८ कोड़ाकोड़ी १४० कोड़ी १०२७ करोड़ ३८ लाख ७० हजार तीन सौ तेईस मुनि कर्मों को नाश कर मोक्ष पधारे। इस कारण इस भूमि का कण-कण पूजनीय एवं वंदनीय है।


सभी पापों का संहार करने वाले तीर्थराज की वंदना महान् पुण्य का कारण है। एक बार इस तीर्थ की वंदना करने से ३३ कोटि २३४ करोड़ ७४ लाख उपवास का फल मिलता है।


गिरिराज का प्रभाव है कि विशाल जंगल में नाना प्रकार के जीव हैं किन्तु आज तक किसी भी तीर्थयात्री को किसी प्रकार की कोई बाधा नहीं पहुँचाई, यही तो इसका प्रभाव है।


आचार्यों ने आगम ग्रंथों में लिखा है कि इस १२ योजन (९६ मील) प्रमाण विस्तार वाले सिद्धक्षेत्र में भव्य राशि कैसी भी हो, अत्यन्त पापी जीव भी इसमें रहता हो / जन्म लेता हो तो भी ४९ जन्मों के बीच में कर्म नाश कर बंधन मुक्त हो जाता है।


इसीलिए संसार में सम्मेदशिखर तीर्थ की वंदना का अचिन्त्य फल माना गया है। वर्तमान में सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र पर अनेक दिगम्बर जैन संस्थाओं के द्वारा विविध जिनमंदिर, आश्रम, धर्मशाला आदि का संचालन हो रहा है। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी के द्वारा भी समय-समय पर क्षतिग्रस्त टोंकों एवं चरणचिन्हों का जीर्णोद्धार किया जाता है। पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी सदैव कहा करती हैं कि मेरे गुरुदेव पूज्य आचार्य श्री वीरसागर महाराज कहते थे-


जिसने जीवन में सम्मेदशिखर की वंदना नहीं की, आचार्य श्री शांतिसागर महाराज के दर्शन नहीं किये उसका जीवन अधूरा है अर्थात् तीर्थों में तीर्थराज सम्मेद शिखर जी एवं गुरुओं में गुरु श्री शांतिसागर


जी का दर्शन प्रत्येक भव्यात्मा के लिए कल्याणकारी माना गया है। ऐसे उस पावन तीर्थ सम्मेदशिखर जी एवं वहाँ से मुक्ति को प्राप्त हुए अनन्तानन्त सिद्ध भगवन्तों को मेरा अनन्तानन्त बार वंदन है और अन्त में यही भावना है-


भगवन् ! इस सम्मेदशिखर का, पुनः पुनः दर्शन पाऊँ । यही भावना है मन में, सिद्धों के गुण में रम जाऊँ ।। इसी क्षेत्र से कभी मुझे, निर्वाण धाम भी मिल जावे। सिद्धभक्ति मेरे जीवन में, सिद्ध अवस्था दिलवावे ।। २१ ।।

।।जैनम् जयतु शासनमः ।।