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प्रेमचंद से मुंशी प्रेमचंद बनने की कहानी

 



संग्रहकर्ता-मधुसूदन सिंह

बलिया ।। प्रेमचंद का जन्म वाराणसी से लगभग चार मील दूर, लमही नाम के गाँव में 31 जुलाई, 1880 को हुआ। प्रेमचंद के पिताजी मुंशी अजायब लाल और माता आनन्दी देवी थीं। प्रेमचंद का बचपन गाँव में बीता था। वे नटखट और खिलाड़ी बालक थे और खेतों से शाक-सब्ज़ी और पेड़ों से फल चुराने में दक्ष थे। उन्हें मिठाई का बड़ा शौक़ था और विशेष रूप से गुड़ से उन्हें बहुत प्रेम था। बचपन में उनकी शिक्षा-दीक्षा लमही में हुई और एक मौलवी साहब से उन्होंने उर्दू और फ़ारसी पढ़ना सीखा। एक रुपया चुराने पर ‘बचपन’ में उन पर बुरी तरह मार पड़ी थी। उनकी कहानी, ‘कज़ाकी’, उनकी अपनी बाल-स्मृतियों पर आधारित है। कज़ाकी डाक-विभाग का हरकारा था और बड़ी लम्बी-लम्बी यात्राएँ करता था। वह बालक प्रेमचंद के लिए सदैव अपने साथ कुछ सौगात लाता था। कहानी में वह बच्चे के लिये हिरन का छौना लाता है और डाकघर में देरी से पहुँचने के कारण नौकरी से अलग कर दिया जाता है। हिरन के बच्चे के पीछे दौड़ते-दौड़ते वह अति विलम्ब से डाक घर लौटा था। कज़ाकी का व्यक्तित्व अतिशय मानवीयता में डूबा है। वह शालीनता और आत्मसम्मान का पुतला है, किन्तु मानवीय करुणा से उसका हृदय भरा है।


                  पारिवारिक जीवन


प्रेमचंद का कुल दरिद्र कायस्थों का था, जिनके पास क़रीब छह बीघे ज़मीन थी और जिनका परिवार बड़ा था। प्रेमचंद के पितामह, मुंशी गुरुसहाय लाल, पटवारी थे। उनके पिता, मुंशी अजायब लाल, डाकमुंशी थे और उनका वेतन लगभग पच्चीस रुपये मासिक था। उनकी माँ, आनन्द देवी, सुन्दर सुशील और सुघड़ महिला थीं। छह महीने की बीमारी के बाद प्रेमचंद की माँ की मृत्यु हो गई। तब वे आठवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। दो वर्ष के बाद उनके पिता ने फिर विवाह कर लिया और उनके जीवन में विमाता का अवतरण हुआ। प्रेमचंद के इतिहास में विमाता के अनेक वर्णन हैं। यह स्पष्ट है कि प्रेमचंद के जीवन में माँ के अभाव की पूर्ति विमाता द्वारा न हो सकी थी।


                          विवाह


जब प्रेमचंद पंद्रह वर्ष के थे, उनका विवाह हो गया। वह विवाह उनके सौतेले नाना ने तय किया था। उस काल के विवरण से लगता है कि लड़की न तो देखने में सुंदर थी, न वह स्वभाव से शीलवती थी। वह झगड़ालू भी थी। प्रेमचंद के कोमल मन का कल्पना-भवन मानो नींव रखते-रखते ही ढह गया। प्रेमचंद का यह पहला विवाह था। इस विवाह का टूटना आश्चर्य न था। प्रेमचंद की पत्नी के लिए यह विवाह एक दु:खद घटना रहा होगा। जीवन पर्यन्त यह उनका अभिशाप बन गया। इस सब का दोष भारत की परम्पराग्रस्त विवाह-प्रणाली पर है, जिसके कारण यह व्यवस्था आवश्यकता से भी अधिक जुए का खेल बन जाती है। प्रेमचंद ने निश्चय किया कि अपना दूसरा विवाह वे किसी विधवा कन्या से करेंगे। यह निश्चय उनके उच्च विचारों और आदर्शों के ही अनुरूप था।


                प्रेमचन्द का दूसरा विवाह



सन 1905 के अन्तिम दिनों में आपने शिवरानी देवी से शादी कर ली। शिवरानी देवी बाल-विधवा थीं। उनके पिता फ़तेहपुर के पास के इलाक़े में एक साहसी ज़मीदार थे और शिवरानी जी के पुनर्विवाह के लिए उत्सुक थे। सन् 1916 के आदिम युग में ऐसे विचार-मात्र की साहसिकता का अनुमान किया जा सकता है। यह कहा जा सकता है कि दूसरी शादी के पश्चात् इनके जीवन में परिस्थितियाँ कुछ बदलीं और आय की आर्थिक तंगी कम हुई। इनके लेखन में अधिक सजगता आई। प्रेमचन्द की पदोन्नति हुई तथा यह स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिये गए।


प्रेमचंद जी कहते हैं कि समाज में ज़िन्दा रहने में जितनी कठिनाइयों का सामना लोग करेंगे उतना ही वहाँ गुनाह होगा। अगर समाज में लोग खुशहाल होंगे तो समाज में अच्छाई ज़्यादा होगी और समाज में गुनाह नहीं के बराबर होगा। प्रेमचन्द ने शोषितवर्ग के लोगों को उठाने का हर संभव प्रयास किया। उन्होंने आवाज़ लगाई 'ए लोगो जब तुम्हें संसार में रहना है तो जिन्दों की तरह रहो, मुर्दों की तरह ज़िन्दा रहने से क्या फ़ायदा।' 


इसी खुशहाली के जमाने में प्रेमचन्द की पाँच कहानियों का संग्रह सोजे वतन प्रकाश में आया। यह संग्रह काफ़ी मशहूर हुआ। शिवरानी जी की पुस्तक ‘प्रेमचंद-घर में’, प्रेमचंद के घरेलू जीवन का सजीव और अंतरंग चित्र प्रस्तुत करती है। प्रेमचंद अपने पिता की तरह पेचिश के शिकार थे और निरंतर पेट की व्याधियों से पीड़ित रहते थे। प्रेमचंद स्वभाव से सरल, आदर्शवादी व्यक्ति थे। वे सभी का विश्वास करते थे, किन्तु निरंतर उन्हें धोखा खाना पड़ा। उन्होंने अनेक लोगों को धन-राशि कर्ज़ दी, किन्तु बहुधा यह धन लौटा ही नहीं। शिवरानी देवी की दृष्टि कुछ अधिक सांसारिक और व्यवहार-कुशल थी। वे निरंतर प्रेमचंद की उदार-हृदयता पर ताने कसती थीं, क्योंकि अनेक बार कुपात्र ने ही इस उदारता का लाभ उठाया। प्रेमचंद स्वयं सम्पन्न न थे और अपनी उदारता के कारण अर्थ-संकट में फंस जाते थे। ‘ढपोरशंख’ शीर्षक कहानी में प्रेमचंद एक कपटी साहित्यिक द्वारा अपने ठगे जाने की मार्मिक कथा कहते हैं।

                                     शिक्षा

ग़रीबी से लड़ते हुए प्रेमचन्द ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुँचाई। जीवन के आरंभ में ही इनको गाँव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाना पड़ता था। इसी बीच में इनके पिता का देहान्त हो गया। प्रेमचन्द को पढ़ने का शौक़ था, आगे चलकर यह वकील बनना चाहते थे, मगर ग़रीबी ने इन्हें तोड़ दिया। प्रेमचन्द ने स्कूल आने-जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर में एक कमरा लेकर रहने लगे। इनको ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से प्रेमचन्द अपनी ज़िन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। प्रेमचन्द महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में प्रेमचन्द ने मैट्रिक पास किया। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य, पर्शियन (फ़ारसी) और इतिहास विषयों से स्नातक की उपाधि द्वितीय श्रेणी में प्राप्त की थी। इंटरमीडिएट कक्षा में भी उन्होंने अंग्रेज़ी साहित्य एक विषय के रूप में पढा था।


साहित्यिक यात्रा

प्रेमचंद (प्रेमचन्द) के साहित्यिक जीवन का आरंभ (आरम्भ) 1901 से हो चुका था । आरंभ (आरम्भ) में वे नवाब राय के नाम से उर्दू में लिखते थे। प्रेमचंद की पहली रचना के संबंध में रामविलास शर्मा लिखते हैं कि-"प्रेमचंद की पहली रचना, जो अप्रकाशित ही रही, शायद उनका वह नाटक था जो उन्होंने अपने मामा जी के प्रेम और उस प्रेम के फलस्वरूप चमारों द्वारा उनकी पिटाई पर लिखा था। इसका जिक्र उन्होंने ‘पहली रचना’ नाम के अपने लेख में किया है।"उनका पहला उपलब्‍ध लेखन उर्दू उपन्यास 'असरारे मआबिद' है जो धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। इसका हिंदी रूपांतरण देवस्थान रहस्य नाम से हुआ। प्रेमचंद का दूसरा उपन्‍यास 'हमखुर्मा व हमसवाब' है जिसका हिंदी रूपांतरण 'प्रेमा' नाम से १९०७ में प्रकाशित हुआ। १९०८ ई. में उनका पहला कहानी संग्रह सोज़े-वतन प्रकाशित हुआ। देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत इस संग्रह को अंग्रेज़ सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया और इसकी सभी प्रतियाँ जब्त कर लीं और इसके लेखक नवाब राय को भविष्‍य में लेखन न करने की चेतावनी दी। इसके कारण उन्हें नाम बदलकर प्रेमचंद के नाम से लिखना पड़ा। उनका यह नाम दयानारायन निगम ने रखा था। 'प्रेमचंद' नाम से उनकी पहली कहानी बड़े घर की बेटी ज़माना पत्रिका के दिसम्बर १९१० के अंक में प्रकाशित हुई।

१९१५ ई. में उस समय की प्रसिद्ध हिंदी मासिक पत्रिका सरस्वती के दिसम्बर अंक में पहली बार उनकी कहानी सौत नाम से प्रकाशित हुई। १९१८ ई. में उनका पहला हिंदी उपन्यास सेवासदन प्रकाशित हुआ। इसकी अत्यधिक लोकप्रियता ने प्रेमचंद को उर्दू से हिंदी का कथाकार बना दिया। हालाँकि उनकी लगभग सभी रचनाएँ हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित होती रहीं। उन्होंने लगभग ३०० कहानियाँ तथा डेढ़ दर्जन उपन्यास लिखे।

१९२१ में असहयोग आंदोलन के दौरान सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देने के बाद वे पूरी तरह साहित्य सृजन में लग गए। उन्होंने कुछ महीने मर्यादा नामक पत्रिका का संपादन किया। इसके बाद उन्होंने लगभग छह वर्षों तक हिंदी पत्रिका माधुरी का संपादन किया। १९२२ में उन्होंने बेदखली की समस्या पर आधारित प्रेमाश्रम उपन्यास प्रकाशित किया। १९२५ ई. में उन्होंने रंगभूमि नामक वृहद उपन्यास लिखा, जिसके लिए उन्हें मंगलप्रसाद पारितोषिक भी मिला। १९२६-२७ ई. के दौरान उन्होंने महादेवी वर्मा द्वारा संपादित हिंदी मासिक पत्रिका चाँद के लिए धारावाहिक उपन्यास के रूप में निर्मला की रचना की। इसके बाद उन्होंने कायाकल्प, गबन, कर्मभूमि और गोदान की रचना की। उन्होंने १९३० में बनारस से अपना मासिक पत्रिका हंस का प्रकाशन शुरू किया। १९३२ ई. में उन्होंने हिंदी साप्ताहिक पत्र जागरण का प्रकाशन आरंभ किया। उन्होंने लखनऊ में १९३६ में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन की अध्यक्षता की। उन्होंने मोहन दयाराम भवनानी की अजंता सिनेटोन कंपनी में कथा-लेखक की नौकरी भी की। १९३४ में प्रदर्शित फिल्म मजदूर की कहानी उन्होंने ही लिखी थी।

१९२०-३६ तक प्रेमचंद लगभग दस या अधिक कहानी प्रतिवर्ष लिखते रहे। मरणोपरांत उनकी कहानियाँ "मानसरोवर" नाम से ८ खंडों में प्रकाशित हुईं। उपन्यास और कहानी के अतिरिक्त वैचारिक निबंध, संपादकीय, पत्र के रूप में भी उनका विपुल लेखन उपलब्ध है।


असरारे मआबिद- उर्दू साप्ताहिक आवाज-ए-खल्क़ में 8 अक्टूबर 1903 से 1 फरवरी 1905 तक धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। कालान्तर में यह हिन्दी में देवस्थान रहस्य नाम से प्रकाशित हुआ।


हमखुर्मा व हमसवाब- इसका प्रकाशन 1907 ई. में हुआ। बाद में इसका हिन्दी रूपान्तरण 'प्रेमा' नाम से प्रकाशित हुआ।


किशना- इसके सन्दर्भ में अमृतराय लिखते हैं कि- "उसकी समालोचना अक्तूबर-नवम्बर 1907 के 'ज़माना' में निकली।" इसी आधार पर 'किशना' का प्रकाशन वर्ष 1907 ही कल्पित किया गया।


रूठी रानी- इसे सन् 1907 में अप्रैल से अगस्त महीने तक ज़माना में प्रकाशित किया गया।


जलव ए ईसार- यह सन् 1912 में प्रकाशित हुआ था।


सेवासदन- 1918 ई. में प्रकाशित सेवासदन प्रेमचंद का हिन्दी में प्रकाशित होने वाला पहला उपन्यास था। यह मूल रूप से उन्‍होंने 'बाजारे-हुस्‍न' नाम से पहले उर्दू में लिखा गया लेकिन इसका हिन्दी रूप 'सेवासदन' पहले प्रकाशित हुआ। यह स्त्री समस्या पर केन्द्रित उपन्यास है जिसमें दहेज-प्रथा, अनमेल विवाह, वेश्यावृत्ति, स्त्री-पराधीनता आदि समस्याओं के कारण और प्रभाव शामिल हैं। डॉ रामविलास शर्मा 'सेवासदन' की मुख्‍य समस्‍या भारतीय नारी की पराधीनता को मानते हैं।


प्रेमाश्रम (1922)- यह किसान जीवन पर उनका पहला उपन्‍यास है। इसका मसौदा भी पहले उर्दू में 'गोशाए-आफियत' नाम से तैयार हुआ था लेकिन इसे पहले हिंदी में प्रकाशित कराया। यह अवध के किसान आन्दोलनों के दौर में लिखा गया। इसके सन्दर्भ में वीर भारत तलवार किसान राष्ट्रीय आन्दोलन और प्रेमचन्द:1918-22 पुस्तक में लिखते हैं कि- "1922 में प्रकाशित 'प्रेमाश्रम' हिंदी में किसानों के सवाल पर लिखा गया पहला उपन्यास है। इसमें सामंती व्यवस्था के साथ किसानों के अन्तर्विरोधों को केंद्र में रखकर उसकी परिधि के अन्दर पड़नेवाले हर सामाजिक तबके का-ज़मींदार, ताल्लुकेदार, उनके नौकर, पुलिस, सरकारी मुलाजिम, शहरी मध्यवर्ग-और उनकी सामाजिक भूमिका का सजीव चित्रण किया गया है।"


रंगभूमि (1925)- इसमें प्रेमचंद एक अंधे भिखारी सूरदास को कथा का नायक बनाकर हिंदी कथा साहित्‍य में क्रांतिकारी बदलाव का सूत्रपात करते हैं।


निर्मला (1925)- यह अनमेल विवाह की समस्याओं को रेखांकित करने वाला उपन्यास है।


कायाकल्प (1926)


अहंकार - इसका प्रकाशन कायाकल्प के साथ ही सन् 1926 ई. में हुआ था। अमृतराय के अनुसार यह "अनातोल फ्रांस के 'थायस' का भारतीय परिवेश में रूपांतर है।"


प्रतिज्ञा(1927)- यह विधवा जीवन तथा उसकी समस्याओं को रेखांकित करने वाला उपन्यास है।


गबन (1928)- उपन्यास की कथा रमानाथ तथा उसकी पत्नी जालपा के दाम्पत्य जीवन, रमानाथ द्वारा सरकारी दफ्तर में गबन, जालपा का उभरता व्यक्तित्व इत्यादि घटनाओं के इर्द-गिर्द घूमती है।


कर्मभूमि (1932)-यह अछूत समस्या, उनका मन्दिर में प्रवेश तथा लगान इत्यादि की समस्या को उजागर करने वाला उपन्यास है।


गोदान (1936)- यह उनका अन्तिम पूर्ण उपन्यास है जो किसान-जीवन पर लिखी अद्वितीय रचना है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद 'द गिफ्ट ऑफ़ काओ' नाम से प्रकाशित हुआ।


मंगलसूत्र (अपूर्ण)- यह प्रेमचंद का अधूरा उपन्‍यास है जिसे उनके पुत्र अमृतराय ने पूरा किया। इसके प्रकाशन के संदर्भ में अमृतराय प्रेमचंद की जीवनी में लिखते हैं कि इसका-"प्रकाशन लेखक के देहान्त के अनेक वर्ष बाद 1948 में हुआ।"


                      कहानी


                मानसरोवर


इनकी अधिकतर कहानियोँ में निम्न व मध्यम वर्ग का चित्रण है। डॉ॰ कमलकिशोर गोयनका ने प्रेमचंद की संपूर्ण हिंदी-उर्दू कहानी को प्रेमचंद कहानी रचनावली नाम से प्रकाशित कराया है। उनके अनुसार प्रेमचंद्र ने अपने जीवन में लगभग 300 से अधिक कहानियाँ तथा 18 से अधिक उपन्यास लिखे है । इनकी इन्हीं क्षमताओं के कारण इन्हें कलम का जादूगर कहा जाता है| प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह सोज़े वतन(राष्ट्र का विलाप) नाम से जून 1908 में प्रकाशित हुआ। इसी संग्रह की पहली कहानी दुनिया का सबसे अनमोल रतन को आम तौर पर उनकी पहली प्रकाशित कहानी माना जाता रहा है। डॉ॰ गोयनका के अनुसार कानपुर से निकलने वाली उर्दू मासिक पत्रिका ज़माना के अप्रैल अंक में प्रकाशित सांसारिक प्रेम और देश-प्रेम (इश्के दुनिया और हुब्बे वतन) वास्तव में उनकी पहली प्रकाशित कहानी है।


 कहानी संग्रह-


सप्तसरोज- 1917 में इसके पहले संस्करण की भूमिका लिखी गई थी। सप्तसरोज में प्रेमचंद की सात कहानियाँ संकलित हैं। उदाहरणतः बड़े घर की बेटी, सौत, सज्जनता का दण्ड, पंच परमेश्वर, नमक का दारोगा, उपदेश तथा परीक्षा आदि।


नवनिधि- यह प्रेमचंद की नौ कहानियों का संग्रह है। जैसे-राजा हरदौल, रानी सारन्धा, मर्यादा की वेदी, पाप का अग्निकुण्ड, जुगुनू की चमक, धोखा, अमावस्या की रात्रि, ममता, पछतावा आदि।


'प्रेमपूर्णिमा','प्रेम-पचीसी','प्रेम-प्रतिमा','प्रेम-द्वादशी',


समरयात्रा- इस संग्रह के अंतर्गत प्रेमचंद की 11 राजनीतिक कहानियों का संकलन किया गया है। उदाहरणस्वरूप-जेल, कानूनी कुमार, पत्नी से पति, लांछन, ठाकुर का कुआँ, शराब की दुकान, जुलूस, आहुति, मैकू, होली का उपहार, अनुभव, समर-यात्रा आदि।


मानसरोवर' : भाग एक व दो और 'कफन'। उनकी मृत्‍यु के बाद उनकी कहानियाँ 'मानसरोवर' शीर्षक से 8 भागों में प्रकाशित हुई।


                    नाटक


संग्राम (1923)- यह किसानों के मध्य व्याप्त कुरीतियाँ तथा किसानों की फिजूलखर्ची के कारण हुआ कर्ज और कर्ज न चुका पाने के कारण अपनी फसल निम्न दाम में बेचने जैसी समस्याओं पर विचार करने वाला नाटक है।


कर्बला (1924)


प्रेम की वेदी (1933)

ये नाटक शिल्‍प और संवेदना के स्‍तर पर अच्‍छे हैं लेकिन उनकी कहानियों और उपन्‍यासों ने इतनी ऊँचाई प्राप्‍त कर ली थी कि नाटक के क्षेत्र में प्रेमचंद को कोई खास सफलता नहीं मिली। ये नाटक वस्‍तुतः संवादात्‍मक उपन्‍यास ही बन गए हैं।


कथेतर साहित्य


प्रेमचंद : विविध प्रसंग- यह अमृतराय द्वारा संपादित प्रेमचंद की कथेतर रचनाओं का संग्रह है। इसके पहले खण्ड में प्रेमचंद के वैचारिक निबन्ध, संपादकीय आदि प्रकाशित हैं। इसके दूसरे खण्ड में प्रेमचंद के पत्रों का संग्रह है।


प्रेमचंद के विचार- तीन खण्डों में प्रकाशित यह संग्रह भी प्रेमचंद के विभिन्न निबंधों, संपादकीय, टिप्पणियों आदि का संग्रह है।


साहित्‍य का उद्देश्‍य- इसी नाम से उनका एक निबन्ध-संकलन भी प्रकाशित हुआ है जिसमें 40 लेख हैं।


चिट्ठी-पत्री- यह प्रेमचंद के पत्रों का संग्रह है। दो खण्डों में प्रकाशित इस पुस्तक के पहले खण्ड के संपादक अमृतराय और मदनगोपाल हैं। इस पुस्तक में प्रेमचंद के दयानारायन निगम, जयशंकर प्रसाद, जैनेंद्र आदि समकालीन लोगों से हुए पत्र-व्यवहार संग्रहित हैं। संकलन का दूसरा भाग अमृतराय ने संपादित किया है।


प्रेमचंद के कुछ निबन्धों की सूची निम्नलिखित है-

पुराना जमाना नया जमाना,स्‍वराज के फायदे,कहानी कला (1,2,3), कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार,हिन्दी-उर्दू की एकता, महाजनी सभ्‍यता,उपन्‍यास,जीवन में साहित्‍य का स्‍थान।


                       अनुवाद

प्रेमचंद एक सफल अनुवादक भी थे। उन्‍होंने दूसरी भाषाओं के जिन लेखकों को पढ़ा और जिनसे प्रभावित हुए, उनकी कृतियों का अनुवाद भी किया। उन्होंने 'टॉलस्‍टॉय की कहानियाँ' (1923), गाल्‍सवर्दी के तीन नाटकों का हड़ताल (1930), चाँदी की डिबिया (1931) और न्‍याय (1931) नाम से अनुवाद किया। उनका रतननाथ सरशार के उर्दू उपन्‍यास फसान-ए-आजाद का हिन्दी अनुवाद आजाद कथा बहुत मशहूर हुआ।

                             विवाद

प्रेमचंद के अध्‍येता कमलकिशोर गोयनका ने अपनी पुस्‍तक 'प्रेमचंद : अध्‍ययन की नई दिशाएं' में प्रेमचंद के जीवन पर कुछ आरोप लगाए हैं। जैसे- प्रेमचंद ने अपनी पहली पत्‍नी को बिना वजह छोड़ा और दूसरे विवाह के बाद भी उनके अन्‍य किसी महिला से संबंध रहे (जैसा कि शिवरानी देवी ने 'प्रेमचंद घर में' में उद्धृत किया है), प्रेमचंद ने 'जागरण विवाद' में विनोदशंकर व्‍यास के साथ धोखा किया, प्रेमचंद ने अपनी प्रेस के वरिष्‍ठ कर्मचारी प्रवासीलाल वर्मा के साथ धोखाधडी की, प्रेमचंद की प्रेस में मजदूरों ने हड़ताल की, प्रेमचंद ने अपनी बेटी के बीमार होने पर झाड़-फूंक का सहारा लिया आदि।

"हंस" के संपादक प्रेमचंद तथा कन्हैयालाल मुंशी थे। परन्तु कालांतर में पाठकों ने 'मुंशी' तथा 'प्रेमचंद' को एक समझ लिया और 'प्रेमचंद'- 'मुंशी प्रेमचंद' बन गए।

                      (साभार )