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गणांघिपति गुरूदेव श्री तुलसी की पच्चीसवीं पुण्य तिथि : ऊर्जा से भरपूर, तेजोदीप्त स्फटिक सा पारदर्शी और अपनें लक्ष्य के प्रति पूर्णत: समर्पित व्यक्तित्व थे गुरुवर

  



खारूपेटिया असम ।। गुरूदेव तुलसी का स्मरण करते ही एक दर्शनीय छवि आँखों के सामने आती है जो ऊर्जा से भरपूर, तेजोदीप्त स्फटिक सा पारदर्शी और अपनें लक्ष्य के प्रति पूर्णत: समर्पित व्यक्तित्व है ।

 गुरूदेव का बाह्य  व्यक्तत्व जितना दर्शनीय था आंतरिक  उससे कहीं ज्यादा विराट था । कालूगणीराज की पारखी नजरों ने एक इग्यारह बर्षीय बालक में तेरापंथ का शुभ भविष्य देख लिया था । आप का र्निणय कितनां सटीक था हम सब जानते हैं । गुरुदेव के जीवन में बहुत विरोध आये मगर उन्होंने विरोध को विनोद में बदल दिया । आप ने हमेशा विजातीय तत्वों का विरोध किया ।

आप कलाप्रिय  थे । आपका बोलना, पछेवड़ी ओढ़ना सब कलात्मक था । आप इतने बड़े संघ के अधिनायक होते हुये और व्यस्त रहते हुए  भी एकाग्रता का अभ्यास करते । आप बहुत पापभीरू थे ।आपनें आध्यात्म के क्षेत्र में बहुत प्रयोग किये । आपका आहार संयम बेजोड़ था । आप अस्वस्थ होते तो कायोत्सर्ग की साधना करते । आत्माँ भिन्न शरीर भिन्न है का प्रयोग करते ।

आप अपने प्रशासनिक कामों के अलावा जप , मौन  ,ध्यान की साधना  व आसन प्राणायाम करते ।अपनें शक्ति संवेधन के लिए न्वान्हिक अनुष्ठान प्रारंम्भ किए ।आपने  उपासक श्रेणीं का सूत्रपात किया । आज सैंकड़ों ,उपासक - उपासिका धर्म संघ में अपनी सेवाएं दे रहे हैं । जैन-धर्म में मंगलपाठ का अत्याधिक महत्व है । गुरूदेव तुलसी ने आगम के कुछ पंद्ध एवम् माँगलिक श्लोकों को जोड़ दिया  और वृहद मंगल पाठ बनाया ।


गुरुदेव तुलसी ने मद्रास चार्तुमास में अर्हन्त  वंदनां का शुभारंभ किया । इसमें चौबीस आगम सूक्ति  गुम्फित है । प्रत्येक सुक्त अंत: करण को झकझोर आध्यात्म की नई ज्योति विकीर्ण  करने वाले हैं । अर्हत  वंदनां के पश्चात गुरूदेव ने  आत्म कृतत्व और  समता पर प्रबल बल देनें वाला गीत " भाव भीनीं वंदनां " बनाया जो गाने वाले को भाव विभोर कर देता है । आपनें बहुत लोगों का व्यक्तित्व निर्माण  किया । आप व्यक्ति निर्माण  आपकी अनुपम आद्वतीय कृतियाँ आचार्य महाप्रज्ञ , आचार्य महाश्रमण एवम् महाश्रमणीं कनकप्रभाजी का नाम सर्वोपरी है । आप संघ के प्रथम पुरूष थे मगर बड़ी सहजता से आप अपनीं भूल स्वीकार भी करते ।

        एक घटना प्रसंग का उल्लेख करना चाहूंगी ।  एकबार गुरूदेव आगम वाचन कर रहे थे  , एक जगह प्रसंग आया कि अविनीत शिष्य कान में गये पानी की तरह दुःख दाई होता है । गुरूदेव के मन में आया की आगम में भी क्या- क्या लिख देते हैं  ? अगले दिन गुरूदेव नें मुख का लोच करवाया और  मुख प्रक्षालन किया । कान में पानी चला गया और  शाम होते होते मुँह  का स्वाद खारा हो गया । ज्वर आ गया ?

आप दिव्य पुरुष थे आप को अंदेशा हो गया कि मुझसे आगम की आशातनां हुई है ! आप भूमिस्थ हो बद्धाँजल्ली खमतखामणा किया और अपने मन की बात सबको बताई । ये थी आप की सत्य  निष्ठा ।अणुव्रत और  गुरूदेव तुलसी एक दूसरे का पर्याय  है ।  गुरूदेव कहते अणुव्रत आपकी दूकान में बैठना चाहिए ।धार्मिक है पर नहीं है नैतिक बहुत बड़ा विस्मय है ।नैतिकता से शुन्य धर्म का यह कैसा अभिनय है ।

गणाघिपति उच्च कोटि के दूरदृष्टा थे । अपनें साधना के बल पर ,सुक्ष्म चिंतन या अनुभूति के बल पर आने वाले युग की हर आ्हट का ज्ञान पहले ही हो जाता था ।गुरूदेव के विराट व्यक्तित्व को शब्दों में बांँधना सूरज को दीया  दिखाना है ।

धरती सब कागद करुं लेखनीं सब वनराय ,

सात समंद की मसी करूं ,गुरु गुण लिख्या नां जाय !!

                               वन्दे गुरुवरम 



                       उपासिका सरोज दुगड़

                                खारुपेटिया 

                                    असम