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बलिया : प्रकृति पर्व है बसंतोत्सव -- डा० गणेश पाठक

प्रकृति पर्व है बसंतोत्सव  -- डा० गणेश पाठक
(डॉ सुनील कुमार ओझा उप संपादक बलिया एक्सप्रेस  द्वारा ली गयी भेंटवार्ता )

     बलिया 10 फरवरी 2019 ।। 
अमरनाथ मिश्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय दूबेछपरा, बलिया के पूर्व प्राचार्य एवं पर्यावरणविद् डा० गणेश कुमार पाठक ने एक भेंटवार्ता में बताया कि बसंतोत्सव एक प्रकृति पर्व है। कड़कड़ाती शीत ऋतु के बाद जब मौसम करवट बदलता है प्रकृति एक नये कलेवर में अपनी छटा बिखेरती है , जिससे समूचा वातावरण खिल कर प्रफुल्लित एवं उल्लसित होकर मदमस्त हो जाता है । चूँकि माघ मास की पंचमी को कामदेव का पुत्रोत्सव तिथि माना जाता है और कामदेव के पुत्र का नाम बसंत रखा गया है , इसलिए माघ की पंचमी तिथि कै बसंतोत्सव के रूपमें मनाया जाता है और इसीलिए इसे बसंत पंचमी कहा जाता है। कामदेव के पुत्र के जन्मोत्सव  अर्थात् बसंत पंचमी को पूरी प्रकृति ही झूम उठती है। वृक्ष अपने पराने पत्तों का त्याग कर नये- नये कोपलों से पालना झुलाने का काम करते हैं , जबकि विविध प्रकार खिले हुए विभिन्न रंग के रंग - बिरंगे फूल वस्त्र का रूपधारण करते हैं और खासौर से पीले फूल अपनी विशेष शोभा विखेरते हैं, सम शीतल मंद - मंद प्रवाहित वायु पूरे वातावरण को मादकता से भरपूर टर देती है और कोयल सहित अन्य पक्षियां अपनी मीठी- मीठी करलव से सम्पूर्ण प्रकृति को उल्लसित एवं प्रफुल्लित कर देती हैं। इस तरह बसंत ऋतु में प्रकृति अपने पूरे उल्लास के साथ हमारा स्वागत करती है ।
     यही नहीं चूँकि इस समय तक फसलें भी तैयार होने लगती हैं । चारों तरफ पीले - पीले सरसों के फूल पीले वस्त्र के रूपमें सम्पूर्ण आवरण को आच्छादित कर लेते हैं, गेंहूँ एवं जौ की बालियाँ झूमने लगती है, आम के बौर अपनी मन्द- मन्द मादक सुगन्ध से चारों तरफ मादकता विखर देते हैं और प्रत्येक फसलों में दाने आ जाते हैं और धरती अन्न - धन से परिपूर्ण होने की तरफ अग्रसर रहती है। इस तरह न केवल किसान , बल्कि सम्पूर्ण मानव जगत , पशु - पक्षियाँ एवं वनस्पतियाँ भी प्रफुल्लित होकर झूमने लगते हैं, जिससे सम्पूर्ण प्रकृति ही झूम उठती है । सम्भवतः यही कारण है कि हम जैसे भूगोलविद् एवं पर्यावरणविद् बसंतोत्सव को प्रकृति पर्व के रूपमें अवलोकित कर प्रसन्न हो उठते हैं।
      बसंत पंचमी के दिन विद्या, ज्ञान एवं बुध्दि की देवी माँ शारदे की आराधना, पूजा एवं अर्चना अत्यन्त ही श्रद्धापूर्वक एवं धूम- धाम से किया जाया है , जिसका मुख्य कारण यह है किमाघ की पंचमी अर्थात बसंत पंचमी को ही माँ सरस्वती का अवतरण दिवस माना जाता है। ऐसा आख्यान मिलता है कि जब ब्रह्मा सृष्टि की रचना कर लिए तो उन्होंने देखा कि चारों तरफ उदासी ही उदासी है तो उन् होंने कमण्डल से जल निकाल कर चारों तरफ छिड़का, जिसके फलस्वरूप एक हाथ में वीणा, दूसरे हाज में वर मुद्रा एवं शेष दो हाथों में पुस्तक धारण किए हुए माँ सरस्वती प्रकट हुईं। ब्रह्मा जी ने उनसे वीणा बजाने को कहा और वीणा बजते संसार के सभी जीव - जंतुओं में वाणी का संचार हो गया और ब्रह्मा ने उस वेवी का नाम सरस्वती रखा। इसी लिए माँ सरस्वती के जन्मोत्सव के रूप में भी बसंत पंचमी का पर्व मनाया जाता है।

    बसंत ऋतु इतना सुहावना, स्वाथ्यवर्द्धक एवं सुवाषित होता है कि इसे ऋतुराज कहा जाता है। चूँकि अपने पुत्रतोत्सव की खुशी में कामदेव सम्पूर्ण वातावरण को मादकता से मस्त कर देते है, इसलिए बसंत ऋतु को प्रेम का ऋतु एवं कामदेव का स्मृति पर्व भी कहा जाता है और यही कारण है कि ऋतुराज बसंत के आगमन के साथ  ही प्रकृति को नवजीवन प्राप्त हो जाता है और प्रकृति अपने रूप - यौवन को निखार कर एक नये कलेवर में सम्पूर्ण जीव - जगत में नये उत्साह एवं नये संचार को भर देती है ।
     बसंत पंचमी का दिन अनेक अन्य महत्वपूर्ण घटनाओं के कारण भी प्रसिद्ध है। ऐसा माना जाता है कि वनगमन के दौरान भगवान श्रीराम बसंत पंचमी के दिन ही दण्डकारण्य में भीलनी की कुटिया में गये थे। दूसरी घटना पृथ्वीराज चौहान से जुड़ी है। जब मुहम्मद गोरी पृथ्वीराज चौहान को मृत्युदंड देने से पूर्व उनके शब्दबेधी बाणों का करिश्मा देखना चाहता था तो कवि चंदबरदाई के कहने पर उसने उँचे स्थान पर बैठकर तवे पर चोटकर संकेत दिया तो कवि चंदबरदाई ने कहा-
चार बांस चौबीस गज,
अंगुल अष्ट प्रमान।
ता ऊपर सुल्तान है,
मत चूको चौहान।।
     यह सुनते ही पृथ्वीराज चौहान ने शब्दबेधी बाण चलाया जो मुहम्मद गोरी के सीने को चीर दिया। फिर चंदबरदाई एवं पृथ्वीराज चौहान दोनों ने एक दूसरे को छूरा भोक कर आत्मबलिदान कर लिया। यह घटना भी 1192 ई० को बसंत पंचमी के दिन ही घटी थी। तीसरी घटना 23- 02- 1734 की है , जिस दिन बसंत पंचमी ही  थी। लाहौर के वीर हकीकत को एक घटना को लेकर तलवार से काटने का मृत्युदंड दिया गया , किन्तु जब उनका सिर तलवार से काटा गया तो ऐसा माना जाता है कि उनका सिर आकाश में चला गया , जिसके याद में आज भी लाहौर में सबसे अधिक पतंगें उड़ाई जाती हैं। चौथी घटना गुरू रामसिंह कूका से जुड़ा है, जिनका जन्म 1816 ई० में बसंत पंचमी के दिन ही हुआ था। इनके पंथ को कूका पंथ कहा गया। सन् 1872 में इनके गाँव भैणी में लगे मेले में इनके 64 शिष्यों को अंग्रेजी सेना द्वारा मौत के घाट उतार दिया गया और गुरू रामसिंह कूका गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया और वर्मा जेल में ही 1885 में इनकी मृत्यु हो गयी। महाराजा भोज का जन्म भी बसंत पंचमी के दिन ही माना जाता है और महाप्राण महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी " निराला " जी का जन्मदिन भी बसंत पंचमी का ही दिन है।
      बसंत पंचमी से ही होली के त्यौहार की शुरूआत हो जाती है । भगवान श्रीकृष्ण एवं कामदेव को इस पर्व का अधिदेवता माना जाता है । बसंत ऋतु के महत्व, गुण एवं विशेषताओं के कारण ही सम्भवतः भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि "मैं ऋतुओं में बसंत हूँ।" बसंत ऋतु के महत्व के आधार पर ही सम्भवतः " राग बसंत" का आविष्कार किया गया। सबसे बड़ी बात तो यह है कि हिन्दू पंचाँग का अंत एवं प्रारम्भ भी बसंत ऋतु से ही होता है।
    इस प्रकार स्पष्ट है कि बसंत पंचमी का पर्व एवं बसंत ऋतु न केवल जन सामान्य, बल्कि कृषकों, विद्वतजनों, राग - रागिनियों के पोषक विद्वानों सहित सभी जीव -जंतुओं के लिए सबसे पसंदीदा त्यौहार एवं ऋतु है।