बलिया : श्रीराम कथा के सातवें दिन श्रीराम जी के वन गमन और केवट की भक्ति के प्रसंग का हुआ वर्णन
बलिया 18 दिसम्बर 2018 ।। स्थानीय टीडी कालेज के मैदान पर भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह द्वारा आयोजित श्रीराम कथा यज्ञ के सातवे दिन कथावाचक परम् पूज्य स्वामी प्रेम भूषण जी महाराज ने भगवान राम का सीता जी व लखन जी के साथ वन गमन , केवट राज की भक्ति और भगवान के प्रयागराज तक पहुंचने तक के प्रसंग को सुनाया । आज पूज्यवर ने जहां केवट की भक्ति की खूबसूरती को प्रमुखता से सुनाकर उपस्थित भक्तो को भावविभोर कर सियाराममय कर दिया। कथा प्रारम्भ होने से पूर्व स्वामी प्रेम भूषण जी महाराज के आसन पर पहुंचने के बाद इस आयोजन के यजमान विंध्यांचल सिंह एवं श्रीमती तेतरी सिंह (माता पिता श्री दयाशंकर सिंह ), डॉ धर्मेंद्र सिंह क्षेत्रीय अध्यक्ष भाजपा , दयाशंकर सिंह , पीएन सिंह पूर्व प्रधानाचार्य , ईश्वर दयाल मिश्र प्रधान मानस परिवार बलिया, अजय कुमार समाजसेवी चेयरमैन ,राजेश गुप्त नगर अध्यक्ष भाजपा , अशोक सिंह ,राजा राम सिंह , पिंटू सिंह सदस्य जिला पंचायत , कृष्ण कुमार सिंह , धर्मेंद्र सिंह, गिरिजेश दत्त शुक्ल प्रधानाचार्य ,गिरीश नारायण चतुर्वेदी ,ईश्वरन श्री सीए , बृजेश सिंह पूर्व अध्यक्ष छात्र संघ ने भगवान भोलेनाथ , भगवान श्रीराम को सपरिवार पूजन अर्चन किया । प्रदेश के
मुख्यमंत्री योगी ने पत्र के माध्यम से इस कथा को श्रवण करने वालो को इच्छित मनोकामना पूर्ण होने की शुभ कामना भेजी है ।
श्रीराम कथा के सातवें दिन परम् पूज्य प्रेमभूषण जी ने अयोध्याकांड के अंतर्गत श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारी , केकई का कोप भवन में जाना,राम चन्द्र जी की सीता जी और लक्ष्मण जी के साथ वन के लिए गमन , राम केवट संवाद से लेकर प्रयागराज तक पहुंचने की कथा को विस्तार से आधुनिक परिवेश को समाहित करते हुए समझाया ।
श्री प्रेमभूषण जी महाराज कहते है कल कि कल की कथा में हम आप भगवान श्री सीताराम जी , भरत भैया और मांडवी मैया, लखन भैया और उर्मिला मैया , शत्रुघ्न भैया श्रुतिकीर्ति मैया ,इनके दिव्य विवाह महोत्सव और अयोध्या पहुंचने तक के उत्सव का आनन्द मनाये थे । आज हम लोग भरत चरित्र के महात्म्य तक पहुंचने का प्रयास करेंगे ।
बिप्र धेनु सुर संत हित, लीन्ह मनुज अवतार
निज इच्छा निर्मित तनु ,माया गुन गो पार ।।
भगत भूमि भूसर सुरभि सुरहित लागि कृपाल
करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहि जग जाल ।।
श्रीरामचरितमानस में अयोध्या कांड का अर्थ है युवानी कांड । जो कुछ भी करना है, जवानी संभल गयी फिर सब संभल जायेगा । चालीस से पैतालीस साल तक जो करना है कर ले ,उसके बाद न कुछ हो पाता है , न कर पाता है । इसके बाद तो आदमी उपदेशक बनकर अपने लिये नही दूसरो के लिये उपदेश करता फिरेगा । अयोध्याकांड की कथा का सूत्र है "हमको कोई आराम भी दे तो भी जवानी में आराम नही करना चाहिये बल्कि सिर्फ मेहनत करनी चाहिये "। राम कथा आप इस लिये सुन रहे है कि आपको सुनना और समझना है । राम जी की पूजा बहुत हो गयी साहब ,राम जी अपनी पूजा करवाने के लिये अवतार नही लिये थे "श्रीराम चन्द्र कृपालु भज मन " ये केवल भजने से काम नही चलेगा , श्रीराम जी ने जो कहा था उसको करने से काम चलेगा । राम जी ने कहा है -"सोई सेवक प्रियतम मोहि सोई ,मम अनुसासन माने जोई " ।।
अब अनुशासन राम जी का कैसे पता चलेगा ? यही से अब शुरू होता है । विवाह तक तो गुरु अनुशासन था अब राम जी के जीवन मे स्व अनुशासन शुरू होता है ।
जिसके जीवन मे स्वअनुशासन नही है वह किसी काम का नही होता है । भगवान अवतार क्यो लिया -
बिप्र धेनु सुर संत हित
ब्राह्मणों के लिये, गौ माता के लिये, देवताओं के लिये और संतो के लिये भगवान ने अवतार लिया ।
कथा का आरम्भ नगर वासियो की अभिलाषा से होती है कि -
सबके उर अभिलाषु अस कहहि मनाई महेसु
आप अछत जुबराज पद रामहु देउ नरेसु ।।
दुनिया मे ऐसा कोई जीव नही जिसकी सारी इच्छाएं पूर्ण हो जाये । जो परिस्थिति बन जाय उसको स्वीकार कर लेनी चाहिये क्योंकि हमारे ठाकुर जी पिता महाराज दशरथ की एक इच्छा जीते जी नही मरने के बाद पूर्ण हुई । इच्छा भी अगर आये तो भगवान से कहिये -"जेहि बिधि नाथ होई हित मोरा करहु सो वेगि दास मैं तोरा "।
अगर आप चाहते है कि आपके बच्चे तप करे तो धन इक्कठा मत कीजिये , धर्म कीजिये , व्यय कीजिये लेकिन किस पर सत्कर्म पर । बच्चो के लिये पैसा नही धर्म कमाइये । गोस्वामी जी कहते है -- परहित सरिस धर्म नहि भाई , पर पीड़ा सम नहि अधमाई ।
जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥ जब से श्री रामचन्द्रजी विवाह करके घर आए, तब से (अयोध्या में) नित्य नए मंगल हो रहे हैं और आनंद के बधावे बज रहे हैं।
एक दिन दशरथ जी महाराज ने अपने हाथ में दर्पण लिया है और दर्पण में अपने आप को देखा है। फिर मुकुट को सीधा किया है।
श्रवन समीप भए सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा॥ महाराज को अपने कानों के पास सफ़ेद बाल दिखाई दिया है। अब महाराज समझ गए की वैराग्य का समय हो गया है, बुढ़ापा आ गया है। क्यों ना अब रामजी को राजा बनाकर अपने जीवन और जन्म का लाभ लूं। और अपने मन की बात गुरु वशिष्ठ जी को बताई।
गुरुदेव कहते हैं की तुम्हारी सोच बड़ी उत्तम है। दशरथ जी कहते हैं की ठीक है आप मुहर्त निकलवाइये।
गुरुदेव कहते हैं मुहर्त निकलवाने की कोई जरुरत नही है जिस समय रामजी राजसिंहासन पर बैठ जायेंगे उससे अनुकूल कोई मुहर्त हो ही नही सकता है। सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु॥
गुरुदेव कहते हैं अभी सारी तैयारी पूरी कर देते हैं और कल ही राजतिलक होगा। श्री रामचन्द्रजी के राज्याभिषेक की सुहावनी खबर सुनते ही अवधभर में बड़ी धूम से बधावे बजने लगे। गुरुदेव सीता-राम के पास गए है। राम और सीता ने गुरुदेव के चरणों में शीश नवाया है। फिर कमल के समान दोनों हाथों को जोड़कर श्री रामजी बोले- गुरुदेव , आपने हमें ही बुला लिया होता पर आप ने स्वयं यहाँ पधारकर जो स्नेह किया, इससे आज यह घर पवित्र हो गया! हे गोसाईं! (अब) जो आज्ञा हो, मैं वही करूँ।
श्रीराम के जुबराज पद देने की घोषणा से केकई नाराज होकर कोपभवन में चली गयी । राजा ने यह बात सुनी तो तुरंत कोप भवन गये और केकई को हर तरीके से समझाया पर जब नही मानी और अपने दो वचन देने के लिये सौगंध ले ली ।
अब राजा दशरथ ने राम की सौगंध खा ली है तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई॥ और बोल दिया है जो मांगना है तू मांग ले।
अब ककई ने मांग लिया – पहला तो ये की – राम का राज्यभिषेक रोक दिया जाये और मेरे पुत्र भरत का राजतिलक हो। देहु एक बर भरतहि टीका॥
और दूसरा – तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी॥
तपस्वियों के वेष में विशेष उदासीन भाव से राम को 14 वर्ष का वनवास हो जाये।
राजा बोले- देख मैं भरत को राजा बना दूंगा उसे गद्दी पर भी बिठा दूंगा पर तू दूसरा वर मत मांग। और रो पड़े हैं। दशरथ जी कहते हैं-
जिऐ मीन बरु बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना॥ कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं॥
राजा दशरथ ने बहुत समझाया हैं ककई को। और दशरथ जी ने चरण तक पकड़ लिए हैं। लेकिन ककई नही मानी हैं।
अब ककई ने साफ़ कह दिया – होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं। मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं॥
सबेरा होते ही मुनि का वेष धारण कर यदि राम वन को नहीं जाते, तो हे राजन्! मन में (निश्चय) समझ लीजिए कि मेरा मरना होगा और आपका अपयश!
राजा करोड़ों प्रकार से (बहुत तरह से) समझाकर (और यह कहकर) कि तू क्यों सर्वनाश कर रही है, पृथ्वी पर गिर पड़े। राजा ‘राम-राम’ रट रहे हैं और ऐसे व्याकुल हैं, जैसे कोई पक्षी पंख के बिना बेहाल हो। मन में सोच रहे हैं की सवेरा ना हो और कोई जाकर श्री रामचन्द्रजी से यह बात न कहे॥ दशरथ जी मूर्छित हो गए हैं।
आज विलाप करते-करते ही राजा को सबेरा हो गया! राज द्वार पर वीणा, बाँसुरी और शंख की ध्वनि होने लगी। भाट लोग विरुदावली पढ़ रहे हैं और गवैये गुणों का गान कर रहे हैं। सुनने पर राजा को वे बाण जैसे लगते हैं॥
रघुवंशमणि श्री रामचन्द्रजी ने जाकर देखा कि राजा अत्यन्त ही बुरी हालत में पड़े हैं। गोस्वामी जी कहते हैं रामजी ने आज अपने जीवन में पहली बार यह दुःख देखा, इससे पहले कभी उन्होंने दुःख सुना भी न था। फिर हृदय में धीरज धरकर उन्होंने मीठे वचनों से माता कैकेयी से पूछा-हे माता! मुझे पिताजी के दुःख का कारण कहो।
कैकई बोली-इन्होंने मुझे दो वरदान देने को कहा था। मुझे जो कुछ अच्छा लगा, वही मैंने माँगा। और साफ़ साफ बोल दिया है, राम! अब तुम्हारा राजतिलक नही होगा। तुम्हारी जगह भरत का राजतिलक होगा और तुमको वन में जाना पड़ेगा। ये महाराज की आज्ञा और आदेश है।
जब रामजी ने सुना तो भगवान राम रोये नही हैं घबराये नही हैं। और भगवान राम की मुस्कान वैसी ही बनी हुई हैं। मन मुसुकाइ भानुकुल भानू। रामु सहज आनंद निधानू॥
श्रीरामचन्द्र ने पिता और कैकेयी को प्रणाम करके उनकी प्रदक्षिणा की और कौशल्या के चरणों में मस्तक झुकाकर उन्हें सान्त्वना दी। फिर लक्ष्मण और पत्नी सीता को साथ ले, ब्राह्मणों, दीनों और अनाथों को दान देकर, सुमन्त्र सहित रथ पर बैठकर वे नगर से बाहर निकले। उस समय माता-पिता आदि शोक से आतुर हो रहे थे। उस रात में श्रीरामचन्द्र ने तमसा नदी के तट पर निवास किया। उनके साथ बहुत-से पुरवासी भी गये थे। उन सबको सोते छोड़कर वे आगे बढ़ गये। प्रात: काल होने पर जब श्रीरामचन्द्र नहीं दिखायी दिये तो नगर निवासी निराश होकर पुन: अयोध्या लौट आये।
भगवान ने चीर स्त्र धारण कर रखा था। वे रथ पर बैठे-बैठे श्रृंगवेरपुर जा पहुँचे। वहाँ निषादराज गुह ने उनका पूजन, स्वागत-सत्कार किया। श्रीरघुनाथ ने इंगुदी-वृक्ष की जड़ के निकट विश्राम किया। लक्ष्मण और गुह दोनों रात भर जागकर पहरा देते रहे।
प्रात:काल श्रीराम ने रथ सहित सुमन्त्र को विदा कर दिया तथा स्वयं लक्ष्मण और सीता के साथ नाव से गंगा जी के तट पर जाकर केवट राज को पार जाने के लिये अपनी नाव लेन के लिये कहते है तब केवट राज कहता है --
राम केवट को आवाज देते हैं - नाव किनारे ले आओ, पार जाना है।
मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥
चरन कमल रज कहुं सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥
श्रीराम ने केवट से नाव मांगी, पर वह लाता नहीं है। वह कहने लगा- मैंने तुम्हारा मर्म जान लिया। तुम्हारे चरण कमलों की धूल के लिए सब लोग कहते हैं कि वह मनुष्य बना देने वाली कोई जड़ी है। वह कहता है कि पहले पांव धुलवाओ, फिर नाव पर चढ़ाऊंगा।
सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन ।।
(प्रभु राम ने माता जानकी और लखन लाल की तरफ देख कर बोले अब तो फंस ही गया हूँ , चरण धुलवाने ही पड़ेंगे । परन्तु जब जब मेरे चरण पखारे गये है कुछ न कुछ हुआ है । पहली बार समुद्र ने पखारा था तो आपका श्रीस्वरूप आया और दूसरी बार राजा जनक ने पखारा तो आप आयी , अब न जाने क्या होने वाला है ।)
कृपासिंधु बोले मुसुकाई, सोई कर जेहिं तव नाव न जाई
बेगि आनु जल पय पखारु, होत बिलम्ब उतारहि पारू ।।
यह सुनते ही केवटराज प्रभु की आज्ञा लेकर पूरे परिवार को बुलाकर सबके साथ प्रभु के पाव पखार रहे है (यहां भाव यह है कि तीर्थ व सत्कर्म पूरे परिवार के साथ करना चाहिये, इससे परिवार का संस्कार श्रेष्ठत्व को प्राप्त होता है ) ।
राघव चरन जलजात हो आजु केवट पखारे
छोटे कठौता में आनि गंगाजल
पुलक प्रफुल्लित गात हो , आजु केवट ....
भरि अनुराग पलोटत पुनि पुनि
परसत हृदय जुड़ात हो , आज केवट ....
चूमि चूमि आँखन के अंसुवन धोवत
आनन्द उन न समात हो ,आजु केवट ...
पुनि पुनि पियत मुदित चरणोदक
बोलि घरनि शिशु भ्रात हो, आज केवट ...
बरसत सुमन हरषि नभ सुरगन
नर मुनि सिद्ध सिहात हो , आजु केवट...
सीता लखन चितई गिरिधर प्रभु
मधुर मधुर मुसुकात हो , आज केवट ....
गोस्वामी जी लिखते है --
अति आनन्द उमगि अनुरागा, चरन सरोज पखारन लागा ।।
पद पखारने से केवट भैया को आनन्द हुआ, अनुराग बढ़ा प्रेम बढ़ा -
पद पखारि जलु पानि करि आपु सहित परिवार
पितरू पारि करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार ।।
पांव जब अपना पांव धुलवाते है तब प्रभु राम सीता और लखन जी को केवट गंगा पार उतारा ।
केवट उतरि दंडवत कीन्हा , प्रभुहि सकुचि एहि नहि कछु दीन्हा
पिय हिय की सिय जानन हारी, मनि मुदरी मन मुदित उतारी
कहेउ कृपालु लेहि उतराई, केवट चरन गहे अकुलाई ।।
यहां बिंदु जी महाराज गाते है --
यह तो प्रेम की बात है उधौ, बन्दगी तेरे बस की नही है ।
यहां सिर देके होते है सौदे, आशिकी इतनी सस्ती नही है , ये तो प्रेम ...
प्रेम वालो ने कब वक्त पूछा, किसकी पूजा तुम करते हो प्यारे ,
यहां पल पल में होती है पूजा ,सिर झुकाने की फुरसत नही है ,ये तो प्रेम की ...
जो असल मे है मस्ती में डूबे , उन्हें परवाह क्या जिंदगी की,
जो उतरती है चढ़ती है मस्ती, वो हकीकत में मस्ती नही है , ये तो प्रेम ....
जिनकी नजरो में है श्याम प्यारे,वो तो रहते है जग से न्यारे,
जिसकी नजरो में मोहन समाये, वो नजर फिर भटकती नही है , ये तो प्रेम की .....
पार उतरने के बाद भगवान श्रीराम उतराई देने लगते है तो केवट मना करते हुए कहता है कि प्रभु एक नाविक दूसरे से उतराई नही लेता है । आज मैंने आपको उतारा है कल आप मुझको भवसागर से पार उतार दीजिएगा ।
गंगा-पार कर भगवान प्रयागराज पहुंचे है । वहाँ उन्होंने महर्षि भारद्वाज को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा ले वहाँ से चित्रकूट पर्वत को प्रस्थान किया। चित्रकूट पहुँच कर उन्होंने वास्तुपूजा करने के अनन्तर (पर्णकुटी बनाकर) मन्दाकिनी के तट पर निवास किया। रघुनाथ जी ने सीता को चित्रकूट पर्वत का रमणीय दृश्य दिखलाया।