Breaking News

रामायण : राम वनवास कथा(कहानी) पार्ट 1

गोस्वामी जी ने बालकांड विश्राम किया है और अयोध्या कांड प्रारम्भ किया है।
सबसे पहले माँ पार्वती और भगवान शिव को प्रणाम करते हैं। जो राम राज्याभिषेक की बात सुनकर खुश नही हुए और वनवास मिलने की सुचना मिलकर जिन्हे दुःख नही हुआ। जिनका तेज हमेशा वैसा ही बना रहा, गोस्वामी जी कहते है भगवान के मुखकमल की छबि मेरे लिए सदा सुंदर मंगलों की देने वाली हो।
संत जन एक भाव और बताते हैं- ये केवल आप ही कर सकते हो जिसको वन जाने की बात सुनकर दुःख न हो, और राज्य मिलने की खबर सुनकर ख़ुशी न हो। केवल आप ही कर सकते हैं लेकिन मुझे डर है की कहीं आपके वन गमन जाने की बात सुनकर में दुखी न हो जाऊ। क्योंकि जब मैं लिखूंगा की आप गद्दी पर बैठने वाले हो तो मुझे हर्ष होगा, और जब आपके वन गमन की बात आएगी तो मैं विरह में डूब जाऊंगा और अगर मैं विरह में डूब गया तो इस कथा को लिख ही नही पाउँगा। इसलिए हे रघुनन्दन! जैसी सहजता आपके अंदर बनी रही वैसी ही सहजता मेरे अंदर बनी रहे।
नीलाम्बुजश्यामलकोमलांग सीतासमारोपितवामभागम्‌। पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्‌॥
अर्थ: नीले कमल के समान श्याम और कोमल जिनके अंग हैं, श्री सीताजी जिनके वाम भाग में विराजमान हैं और जिनके हाथों में (क्रमशः) अमोघ बाण और सुंदर धनुष है, उन रघुवंश के स्वामी श्री रामचन्द्रजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥
 जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥ जब से श्री रामचन्द्रजी विवाह करके घर आए, तब से (अयोध्या में) नित्य नए मंगल हो रहे हैं और आनंद के बधावे बज रहे हैं।
एक दिन दशरथ जी महाराज ने अपने हाथ में दर्पण लिया है और दर्पण में अपने आप को देखा है। फिर मुकुट को सीधा किया है।
श्रवन समीप भए सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा॥ महाराज को अपने कानों के पास सफ़ेद बाल दिखाई दिया है। अब महाराज समझ गए की वैराग्य का समय हो गया है, बुढ़ापा आ गया है। क्यों ना अब रामजी को राजा बनाकर अपने जीवन और जन्म का लाभ लूं। और अपने मन की बात गुरु वशिष्ठ जीको बताई।
गुरुदेव कहते हैं की तुम्हारी सोच बड़ी उत्तम है। दशरथ जी कहते हैं की ठीक है आप मुहर्त निकलवाइये।
गुरुदेव कहते हैं मुहर्त निकलवाने की कोई जरुरत नही है जिस समय रामजी राजसिंहासन पर बैठ जायेंगे उससे अनुकूल कोई मुहर्त हो ही नही सकता है। सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु॥
गुरुदेव कहते हैं अभी सारी तैयारी पूरी कर देते हैं और कल ही राजतिलक होगा। श्री रामचन्द्रजी के राज्याभिषेक की सुहावनी खबर सुनते ही अवधभर में बड़ी धूम से बधावे बजने लगे। गुरुदेव सीता-राम के पास गए है। राम और सीता ने  गुरुदेव के चरणों में शीश नवाया है। फिर कमल के समान दोनों हाथों को जोड़कर श्री रामजी बोले- गुरुदेव , आपने हमें ही बुला लिया होता पर आप ने स्वयं यहाँ पधारकर जो स्नेह किया, इससे आज यह घर पवित्र हो गया! हे गोसाईं! (अब) जो आज्ञा हो, मैं वही करूँ।
गुरुदेव कहते हैं- हे रामचन्द्रजी! राजा दशरथजी ने राज्याभिषेक की तैयारी की है। वे आपको युवराज पद देना चाहते हैं।
श्री रामचन्द्रजी के हृदय में (यह सुनकर) इस बात का खेद हुआ कि- हम सब भाई एक ही साथ जन्मे, खाना, सोना, लड़कपन के खेल-कूद, कनछेदन, यज्ञोपवीत और विवाह आदि उत्सव सब साथ-साथ ही हुए। सब भाइयों को छोड़कर राज्याभिषेक एक बड़े का ही अर्थात मेरा ही होगा।  उसी समय प्रेम और आनंद में मग्न लक्ष्मणजी आए। श्री रामचन्द्रजी ने प्रिय वचन कहकर उनका सम्मान किया॥ सब लोग भरतजी का आगमन मना रहे हैं और कह रहे हैं कि वे भी शीघ्र आवें और (राज्याभिषेक का उत्सव देखकर) नेत्रों का फल प्राप्त करें॥

kakai and manthra Katha(Story) : ककई और मंथरा कथा(कहानी)

लेकिन देवताओं का मन डोलने लगा है। सोच रहे हैं यदि राम गद्दी पर बैठ गए तो हमारा काम रह जायेगा। और गोस्वामी जी ने बता दिया है की देवता कैसे हैं- ऊँच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती॥ इनका निवास तो ऊँचा है, पर इनकी करनी नीची है। ये दूसरे का ऐश्वर्य नहीं देख सकते॥
देवताओं ने माता सरस्वती को प्रेरित किया है की ढूंढो किसी ऐसे को जिसकी मति फेरी जा सके ढूंढो, किसी ऐसे को जो बने बनाये काम बिगाड़ सके। जो भगवन राम को वनवास के लिए भेजे और उनका काम पूर्ण करे।
नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकइ केरि। अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि॥
अर्थ: मन्थरा नाम की कैकेई की एक मंदबुद्धि दासी थी, उसे अपयश की पिटारी बनाकर सरस्वती उसकी बुद्धि को फेरकर चली गईं।
श्री रामचन्द्रजी के राजतिलक की बात सुनते ही उसका हृदय जल उठा। वह उदास होकर भरतजी की माता कैकेयी के पास गई।
रानी कैकेयी ने हँसकर कहा- तू उदास क्यों है?
मंथरा कुछ उत्तर नहीं देती, केवल लंबी साँस ले रही है। मानो काली नागिन (फुफकार छोड़ रही) हो॥ फिर कहती है आज राजा रामजी को युवराज बना रहे हैं। कोई राजा बन जाये मुझे क्या नुकसान, तेरे हाथ से राज्य चला जाये तो तेरा नुकसान। तुम्हारा पुत्र भरत परदेस में है, तुम्हें कुछ सोच नहीं।
इतना सुनते ही ककई को क्रोध आ गया और बोली मंथरा जो फिर कभी ऐसा कहा तो तेरी जीभ पकड़कर निकलवा लूँगी। बड़ा भाई स्वामी और छोटा भाई सेवक होता है। यह सूर्यवंश की सुहावनी रीति ही है।
मंथरा कहती है- मैं अच्छी बात कह रही हूँ और तुझे दुःख हो रहा है। राजा तेरे वश में है। जो तू चाहेगी वही हो जायेगा रानी। तुम्हारा अहित मुझसे देखा नहीं जाता, इसलिए कुछ बात चलाई थी, किन्तु हे देवी! हमारी बड़ी भूल हुई, क्षमा करो॥ राम की माता कौसल्या बड़ी चतुर और गंभीर है। उसने मौका पाकर अपनी बात बना ली। राजा ने जो भरत को ननिहाल भेज दिया, उसमें आप बस राम की माता की ही सलाह समझिए!  इस तरह करोड़ों कुटिलपन की बातें गढ़-छोलकर मन्थरा ने कैकेयी को उलटा-सीधा समझा दिया।
कैकेयी के मन में विश्वास हो गया। रानी कैकेयी ने बैरिन मन्थरा को अपनी  हित करने वाली जानकर उसका विश्वास कर लिया। कैकेयी ने कहा- मन्थरा! सुन, तेरी बात सत्य है। मेरी दाहिनी आँख नित्य फड़का करती है। मुझे बुरे सपने आते हैं लेकिन मैं तुझसे कुछ नही कहती। और ककई ने यहाँ तक कह दिया मैं तेरे कहने से कुएँ में गिर सकती हूँ, पुत्र और पति को भी छोड़ सकती हूँ।
अब मंथरा कहती है तुम्हारे दो वरदान राजा के पास धरोहर हैं। तुम अपने पुत्र को राज्य और राम को वनवास दो। जब राजा राम की सौगंध खा लें, तब वर माँगना, जिससे वचन न टलने पावे।