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नागरिक साहस का अभाव : लोक ही नहीं चाहता कि बचे लोकतंत्र




पटना।। बुद्धिजीवी और विश्लेषक प्रताप भानु मेहता ने हाल में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए दो महत्वपूर्ण निर्णयों की समीक्षा करते हुए इस समय की राजनीतिक संस्कृति में नागरिक साहस के अभाव की बात की है. यह बेहद चिंता की बात है कि ज़्यादातर लोग लोकतंत्र में सत्तारूढ़ शक्तियां द्वारा प्रायः हर दिन की जा रही कटौतियों या ज़्यादतियों को लेकर उद्वेलित नहीं हैं और उन्हें नहीं लगता कि लोकतंत्र दांव पर लगा है. स्थिति यह है कि लगता है कि लोक ही लोकतंत्र को पूरी तरह से तंत्र के हवाले कर रहा है.



यह सिर्फ़ नागरिक साहस का अभाव नहीं, नागरिक समझ और ज़िम्मेदारी का अभाव भी दर्शाता है. यह बहुत भयानक निष्कर्ष निकालने से हम बहुत दूर नहीं रह गए हैं कि अगर लोक ही नहीं चाहता कि लोकतंत्र बचे और सशक्त हो तो लोकतंत्र को कौन बचा सकता है? अगर लोक का एक बड़ा हिस्सा लाभार्थी होकर संतुष्ट और प्रसन्न है और उसे अनेक झूठे गौरव आकर्षित कर रहे हैं तो लोकतंत्र को तजने से उसे रोक सकने की कोई राजनीति परिदृश्य पर सक्रिय दिखाई नहीं देती.



सच तो यह कि बड़े पैमाने पर धर्मांधता, सांप्रदायिकता, जातिवाद आदि की प्रवृत्तियों का प्रभाव-प्रसार बढ़ रहा है और, नतीजन, कुल मिलाकर, नागरिकता सिकुड़ रही है. लगता है कि एक बड़ा तमाशा चल रहा है और नागरिक उसमें तमाशबीन होकर शामिल हैं और उससे अपना मनोरंजन करने में लगे हैं. ख़ासकर मध्य वर्ग, उसका पढ़ा-लिखा हिस्सा, इस तमाशे का सुघर आयोजक और उसका सक्रिय उपभोक्ता है. उसे तुरत लाभ, तुरत सफलता चाहिए और उसका किन्हीं मूल्यों से कोई संबंध नहीं रह गया है.


अब यह समाज मूल्यविमूढ़ और मूल्यहीन दोनों ही है. हमारी विडंबना यह है कि मूल्य घट रहे हैं, क़ीमतें बढ़ रही हैं. हम नैतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और लोकतांत्रिक ऐसी स्थिति में हैं कि जल्दी ही रसातल में होंगे. रसातल नरक नहीं, नया स्वर्ग होगा।

(लेखक अशोक बाजपेई वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)