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जीएमएएम इंटर कॉलेज बेल्थरारोड : फर्जीवाड़े पर कार्यवाही में देर से योगी सरकार भी हो रही है बदनाम,लोग कर रहे है कार्यवाही का इंतजार




मधुसूदन सिंह

बलिया ।। शासन की आंख में धूल झोंक कर सर्वसमाज के विद्यालय को 2013 से अल्पसंख्यक का दर्जा लेना और उसके नाम पर लगभग 3 दर्जन नियुक्तियों को तत्कालीन जिला विद्यालय निरीक्षकों के सहयोग से करना और उनका वेतन आहरित करने वाली धोखाधड़ी की घटना के प्रकाशित होने के बाद भी जीएमएएम इंटर कॉलेज बेल्थरारोड बलिया के खिलाफ कोई भी कार्यवाही न होना योगी सरकार को भी बदनाम कर रही है । जबकि यह धोखाधड़ी अखिलेश यादव की सरकार में हुई थी । लोगो मे हैरानी इस बात की है कि धोखाधड़ी का यह प्रकरण मीडिया के माध्यम से उछलने का बाद भी स्थानीय भाजपा विधायक धनंजय कन्नौजिया चुप्पी क्यों साधे हुए है ? 

स्थानीय जिला विद्यालय निरीक्षक ब्रजेश मिश्र द्वारा अबतक कार्यवाही न करना,कही न कही इनको भी कटघरे में खड़ा कर रही है । ऐसे भ्रष्टाचार को मंडल स्तर पर रोकने की जिम्मेदारी जेडी आजमगढ़ योगेन्द्र कुमार सिंह की बनती है । लेकिन जेडी साहब भी क्या करे पिछले 10 सालों से आजमगढ़ में ही जमे हुए है और धोखाधड़ी को प्रमाणित करते जा रहे है । बता दे कि जेडी साहब बलिया व मऊ के जिला विद्यालय निरीक्षक भी रह चुके है । यही नही साहब की ससुराल भी मऊ जनपद में ही बतायी जा रही है । अब अगर किसी अधिकारी की आधी से ज्यादे नौकरी एक क्षेत्र विशेष में चल रही हो और फर्जीवाड़े पर रोक न लगे तो समझ जाइये कि मामला क्या है ?

बता दे कि 1945 में जूनियर हाईस्कूल, फिर 1948 में हाई स्कूल और 1950 में इंटरमीडिएट विद्यालय की मान्यता प्राप्त जीएमएएम  इंटर कॉलेज की नींव हिंदुओ और मुसलमान दोनों ने मिलकर रखी थी । या यूं कहें कि बेल्थरारोड के व्यापारियों ने इस विद्यालय को बनवाया । इसका साक्ष्य इस विद्यालय के तत्कालीन प्रिंसिपल कादरी साहब द्वारा माननीय उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च  न्यायालय तक अपनी बर्खास्तगी को लेकर लड़े गये वाद में दर्ज है ।

 बता दे कि श्री कादरी को विद्यालय की प्रबन्ध समिति ने बर्खास्त कर दिया था । अपनी बर्खास्तगी को गलत ठहराने के साथ विद्यालय को अल्पसंख्यक विद्यालय होने का भी मुद्दा श्री कादरी द्वारा उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक जोरदार ढंग से उठाया गया । लेकिन श्री कादरी द्वारा ही जिन प्रबन्ध समिति के सदस्यों के खिलाफ मुकदमा किया गया था, वो लोग हिन्दू थे । यही चूक गये कादरी साहब, और उच्च न्यायालय ने साफ शब्दों में आदेश जारी कर दिया कि जिस विद्यालय की नींव रखने में अन्य धर्म के लोग भी शामिल हो, वह अल्पसंख्यक विद्यालय नही हो सकता । इस दर्जा को प्राप्त करने के लिये आवश्यक है कि विद्यालय की नींव रखने से लेकर संचालन तक अल्पसंख्यको के ही हाथों में हो । इसी फैसले को सर्वोच्च न्यायालय ने भी बरकरार रखा ।


क्या है विद्यालय का इतिहास,सर्वोच्च न्यायालय ने क्यो नही माना अल्पसंख्यक विद्यालय

ज्ञात हो कि गाँधी मुहम्मद अली मेमोरियल इण्टर कालेज की स्थापना वर्ष 1945 में हुई, वर्ष 1945 में जूनियर हाईस्कूल, 1948 हाईस्कूल और 1950 में इण्टर की मान्यता मिली। इस विद्यालय के स्थापना के समय संस्थापक सदस्यो में हिन्दू समुदाय के डॉ0 वैजनाथ शाही, डॉ0 हरिचरन लाल, कैलाश कुमार गुप्ता , मथुरा प्रसाद, गौरीशंकर आदि हिन्दू एवं कुछ मुस्लिम सदस्य थे। वर्ष 1979 में विद्यालय के प्रधानाचार्य बदरुल हसन कादरी को विद्यालय प्रबन्ध कमेटी द्वारा बर्खास्त कर दिया गया। इसके बाद बदरुल हसन कादरी ने डिप्टी डायरेक्टर से इस मामले में गुहार लगायी किन्तु वहाँ से  अल्पसंख्यक विद्यालय कहते हुए कोई सुनवाई नही हुई। इसके बाद बदरुल हसन कादरी ने  1979 में शिक्षा एक्ट 1921 के 16 जी के तहत स्टेट आफ उत्तर प्रदेश  के खिलाफ  हाईकोर्ट इलाहाबाद में मुकदमा दाखिल किया। जिस पर न्यायधीश अमरनाथ वर्मा और आर के गुलाटी की खण्डपीठ ने याचिका संख्या 2940/ 1979 के मामले की सुनवाई करते हुए सभी बिन्दुओ का अवलोकन करने के पश्चात 12 फरवरी 1992 में यह फैसला दिया कि जीएम एएम इण्टर कालेज अल्पसंख्यक विद्यालय नही है। क्यों कि इस विद्यालय की स्थापना हिन्दू और अल्पसंख्यक दोनों वर्ग के लोगो द्वारा की गयी है। सिर्फ अल्पसंख्यक वर्ग के लोगो द्वारा स्थापित विद्यालय ही अल्पसंख्यक विद्यालय घोषित किया जा सकता है। इस आदेश के बाद बदरुल हसन कादरी ने उच्चतम न्यायालय में मुकदमा दाखिल किया जिसे न्यायालय ने हाईकोर्ट के आदेश के आधार पर ख़ारिज कर दिया। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने बर्खास्त प्रिंसीपल बदरुल हसन कादरी को बहाल करने का आदेश दिया। इस आदेश के बाद गाँधी मुहम्मद अली मेमोरियल इण्टर कालेज सामान्य विद्यालय की तरह चलता रहा। अध्यापको की नियुक्तियां आयोग से होती रही।



कब से फर्जी तरीके से हो गया अल्पसंख्यक विद्यालय,जिला विद्यालय निरीक्षकों के लिये बना सोने का अंडा देने वाली मुर्गी

 वर्ष 2013 में अखिलेश सरकार द्वारा अल्पसंख्यक विद्यालयो के लिए एक जियो जारी हुआ की जिनकी माइनॉरिटी नवीनीकरण न कराने और पंजीकरण शुल्क जमा न होने के कारण मर चुकी है। वह संस्था विलम्ब शुल्क के साथ अपनी माइनॉरिटी बहाल करा सकते है। इस आदेश के बाद विद्यालय प्रबन्ध कमेटी ने उच्च न्यायालय के आदेश को छिपाकर एवं संस्थापक सदस्यो का नाम बदलकर कागजी हेराफेरी करके शुल्क जमाकर 29 अक्टूबर वर्ष 2013 को फर्जी तरीके से अल्पसंख्यक संस्था घोषित करा लिया।  प्रबन्धक और प्रधानाचार्य ने पांच वर्षों में शिक्षा विभाग के अधिकारियो की मिली भगत से 8 परिचारकों समेत 32 नियुक्तियां की गयी है। 28 जून 2014 को जिला विद्यालय निरीक्षक मनोज गिरि  के द्वारा अध्यापक पद पर प्रथम 6 नियुक्तियां जिसमे मु0 मोबिन, आमिर शमशाद, मो0 आमिर, मो0 साजिद खां, जावेद अख्तर, मु0 दानिस मोहसिन का किया गया। इसके बाद जिलाविद्यालय निरीक्षक रमेश सिंह ने अपने दो भतीजे अजित सिंह की नागरिक शास्त्र के प्रवक्ता व आनन्द सिंह की हिन्दी प्रवक्ता   पर करते हुए 8 परिचारक समेत कुल 20  की नियुक्ति किया। इसके बाद जिला विद्यालय निरीक्षक शिवचन्द राम ने 3 अध्यापको का अनुमोदन किया। वर्ष 2017 - 18 में जिला विद्यालय निरीक्षक अमरनाथ राय ने अपने रिश्तेदार नीरज राय समेत 3 अध्यापको की नियुक्ति किये। इस प्रकार प्रबन्धक , प्रधानाचार्य के द्वारा उच्च न्यायालय के आदेश को दरकिनार करते हुए अल्पसंख्यक विद्यालय के नाम पर अधिकारियो की मिलीभगत से 5 वर्षो में 32  कर्मचारियों की नियुक्ति किया गया है। इस मामले का प्रकाश में आने के बाद चर्चाओं का बाजार गर्म है।

फर्जीवाड़े के द्वारा संस्थापक सदस्यों के नामों में किया गया फेरबदल

बदरुल हसन कादरी द्वारा अपनी बर्खास्तगी को लेकर प्रबन्ध कमेटी के आदेश के खिलाफ माननीय उच्च न्यायालय व बाद में उच्चतम न्यायालय में वाद योजित किया गया था ।  संस्थापक सदस्यों व प्रबन्ध समिति में डॉ0 वैजनाथ शाही, डॉ0 हरिचरन लाल, कैलाश कुमार गुप्ता , मथुरा प्रसाद, गौरीशंकर आदि हिन्दूओ के होने के कारण ही ,न तो माननीय उच्च न्यायालय ने , न ही सर्वोच्च न्यायालय ने इस विद्यालय को अल्पसंख्यक विद्यालय माना । कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जिस विद्यालय की स्थापना केवल अल्पसंख्यक समुदाय के लोगो द्वारा की गई हो, उसी को अल्पसंख्यक का दर्जा मिल सकता है ।

ऐसे में जो विद्यालय 2013 में अल्पसंख्यक विद्यालय होने से पहले सामान्य विद्यालय था और 1945 से लेकर 2013 तक इसके संस्थापक सदस्यों में हिन्दू भी थे, जिनके खिलाफ  बदरुल हसन कादरी सर्वोच्च न्यायालय तक मुकदमा लड़ चुके हो, वो हिन्दू नाम एकाएक 2013 में कैसे गायब हो गये और इस विद्यालय के संस्थापक केवल मुस्लिम समुदाय के लोग बन जाते है,जो बहुत बड़ा फ्राड है । यह ऐसा फ्राड है जो सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की भी अवमानना है और इसको अल्पसंख्य विद्यालय मानकर यहां नियुक्ति को सत्यापित कर वेतन आहरण की स्वीकृति देने वाले 2013 से लेकर आजतक के सभी जिला विद्यालय निरीक्षक बलिया भी इस घोखाघडी और सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अवमानना के लिये समान रूप से दोषी व इस धोखाधड़ी में बराबर के भागीदार भी है । शासन को चाहिये कि इस विद्यालय के अल्पसंख्यक विद्यालय होने के दावे को सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के आलोक में फिर से जांच करे और धोखाधड़ी से दर्ज कराए गये अल्पसंख्य दर्जे को समाप्त कर,अल्पसंख्यक विद्यालय के नाम पर सरकारी धन का बंदरबांट करने वालो के खिलाफ कठोर कार्यवाही करनी चाहिये ।


जिला विद्यालय निरीक्षक से लेकर जेडी की चुप्पी से उठ रहे है सवाल

17 अक्टूबर 2021 को बलिया एक्सप्रेस द्वारा इस खबर को प्रमुखता

बता दे कि चार वर्ष पूर्व में बंदेमातरम और भारतमाता की जय बोलने पर विद्यालय के शिक्षक द्वारा छात्र को मुर्गा बनाने के मामले में यह विद्यालय चर्चा में आया था । जिलाधिकारी के निर्देश पर जाँच करने पहुँचे जिला विद्यालय निरीक्षक नरेन्द्रदेव ने भी इस विद्यालय को अल्पसंख्यक विद्यालय न होने की बात कही। इसके बावजूद भी दो दिन बाद जिला विद्यालय निरीक्षक नरेन्द्रदेव ने वेतन बिल पर हस्ताक्षर कर भुगतान हेतु बिल पास कर दिया । फर्जी रूप से नियुक्त अध्यापको और अन्य कर्मचारियों को  वेतन भी मिल गया । ऐसे में यह मामला वर्तमान जिला विद्यालय निरीक्षक के संज्ञान में होने के बावजूद भी वेतन भुगतान करना इनकी भी भूमिका सन्देह को भी घेरे में ला रही है।