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आखिर क्यों विद्वता एक मत होना स्वीकार नही करती"आन लाइन गोष्ठी सम्पन्न

 




डॉ सुनील ओझा

बलिया ।। बलिया एक्सप्रेस राष्ट्रीय हिंदी साप्ताहिक  के आनलाइन पटल "आओ चर्चा करें" पर  भारत के कई राज्यो के साहित्यकारों , पत्रकारों, शिक्षको ने प्रतिभाग किया और *"आखिर क्यों विद्वता एक मत होना स्वीकार नही करती है"* विषय पर अपने मुख्य विचार रखे। जिसमे डॉ जितेंद्र कुमार सिंह 'संजय' मिर्जापुर ने कहा कि

मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना कुण्डे कुण्डे नवं पयः।

जातौ जातौ नवाचारा नवा वाणी मुखे मुखे।।

भिन्न भिन्न मस्तिष्क में भिन्न भिन्न मति (विचार) होती है, भिन्न भिन्न सरोवर में भिन्न भिन्न प्रकार का जल होता है, भिन्न भिन्न जाति के लोगों की भिन्न भिन्न जीवनशैलियाँ (परम्परा, रीति-रिवाज) होती हैं और भिन्न भिन्न मुखों से भिन्न भिन्न वाणी निकलती है। यही कारण है कि विद्वानों में वैमत्य बना रहता है।

प्रखर दीक्षित फरुखाबाद ने कहा कि विद्वता तर्क और सिद्धांत की पोषक है।गहन अध्ययन, खुली सोच तथा व्यष्टि से समष्टि की यात्रा के विवेचन जो सुलभ हो सका ,जिसमें जितनी पात्रता है उसने उतना ग्रहण कर पाया। कदाचित विद्वता के स्तर में भिन्नता का यह कारण है।रही बात विद्वता के मतैक्य न होने की तो हाथी का जो अंग जिसके हाथ आया ,उसे हाथी का स्वरुप वैसा ही अनुभूत हुआ।  विद्वता के मापन में शास्त्रार्थ का अहम स्थान है। तर्कहीन सहमति छाछ के समान है। यह पाचन तो करेगा किन्तु पुष्ट करे ,यह आवश्यक नहीं।आगे कहा कि यदि मुझे अपनी विद्वत्ता सिद्ध करनी है और अपनी श्रेष्ठता स्थापित करनी है तो मुझे अन्य से असहमत होना ही होगा। विवाद होगा तभी मुझे एकलवाद का अवसर मिलेगा। और मेरी बुद्धि चातुर्य की प्रशस्ति होगी। बस यही अहं भाव विद्वजनों को सहमत नहीं होने देता। 

विद्वत्ता को निजी मान अपनी पहचान बनाना ही संघ से सामंजस्य में बाधा है। यदि ज्ञान को सामूहिक सम्पत्ति मान सर्वजन हिताय सोच रखें तो या तो मतभेद होंगे नहीं और होंगे भी तो समाज के सर्वश्रेष्ठ हित ढूँढ निकालने में सहायक होंगे।विद्वता में मतांतर का कोई स्थान ही नहीं है । मतांतर का मूल कारण तो स्वयं की श्रेष्ठता सिद्ध करने की उत्कंठा है। सही अर्थों में विद्वान में दूसरे विद्वानों के प्रति सम्मान एवं विनय होगा, जो उसे भिन्न मत को समझने एवं स्वीकार करने की उदारता देगा, तथा पूर्ण मतैक्य न होने पर भी परस्पर सम्मान बनाए रखेगा।

किसी भी प्रकार से, तर्क या कुतर्क से अपनी महत्ता स्थापित करने के किसी भी सफल-असफल प्रयास को विद्वता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। यह हठ है, विद्वता नहीं। ऐसे हठी का कुतर्क विद्वानों द्वारा विनम्रता से किन्तु दृढ़तापूर्वक अस्वीकार किया जाता है, अतः हठी का अपना भिन्न मत, या हठ हो सकता है।

 

मनोज कुमार उपाध्याय 'मतिहीन' बाबुआपुर ने कहा कि विद्या ही विद्वान की व्युत्पति है! वह स्वयं को सिद्ध करने को प्रेरित करती न कि किसी और को! किसी अन्य को परिस्थिति वश अपनी व्यक्तिगत तर्क की कसौटी पर सिद्ध करती है, किन्तु बाध्यता जन्य स्थितियों में! यदि कोई दोष मिलता है तो, उसे परिष्कृत करती है! अत: मै मानता हूँ कि मनुष्य दोष रहित हो, ये संभव नही! तो दोष को दूर करने की विधा ही तो विद्या है! और विद्या ही विद्वत्ता की द्योतक है! मतांतर होना चाहिए, क्यों समस्त चिकित्सक एक ही विधि से बिमारी ठीक नही करते किन्तु सभी का लक्ष्य तो बीमार को उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करना होता है! अत: उलझन दूर करने की कोशिश होनी चाहिए ना कि उलझन में वृद्धि करने की! आप हमारे विचार से असहमत हो सकते है, किन्तु असहमति के साथ तर्क पूर्ण समाधान  देना भी आपका कर्तव्य बन जाता है! वो भी बिना किसी बाध्यता के प्रादुर्भाव के! 


अशोक कुमार मिश्र आसनशोल ने कहा कि हमारे सम्मुख यह एक ज्वलंत बिषय है। जो जीवन के हर मोड़ पर आहत करता रहता है। फिर भी इसके तह तक जाने की कोशिश, अब तक कोई विद्वत मंडली कर पायी हो, ऐसा न पढ़ पाया हूँ, न सुन पाया हूँ। आज इस मंच पर, इस बिषय पर, अपना एक बिचार रख रहा हूँ। हो सकता है कि यह प्रासंगिक ना भी हो, सहमती के अनुकूलता से दूर भी हो।

             मै कोई विद्वान नहीं हूँ, न विशिष्ट उपाधियों से नवाजा गया हूँ, एक सामान्य स्तर का चिंतक जरुर हूँ। मेरी नजर में सर्वप्रथम विद्वता क्या है? यह जानना जरूरी है। जब तक मूल से दूर रहेंगे समूल को समझना कठिन रहेगा। सम्भवतः विद्या के संकलित स्वरुप को विद्वता कहा गया है। जिसमें ज्ञान समाहित रहता है। जब कोई ज्ञान से परिपूर्ण होता है तो उसकी अवस्था स्थिर हो जाता है। जिससे वह अन्य अवस्था की ओर आकर्षित नहीं हो पाता है। उसकी नजर में किसी और का महत्व स्वयं से अधिक हो जाता है। लेकिन जब यह अधुरा रहता है तो स्वयं को सिद्ध करने की चेष्टा करता रहता है। जैसे " अध जल गगरी छलकत जाय।" यही स्वरूप टकराव की प्रबृति को जन्म देता है। सही अर्थों में " विद्वता जब संतुष्टि के आकार को ग्रहण कर लेती है तो विवादों से परे हो जाती है।" परन्तु यह अवस्था अत्यंत कठिन होता है। अक्सर विद्वता असंतुष्ट ही पाया जाता है।यही वजह है एक मत तक नहीं पहुंचना। जब जीवन में कोई संतोषी हो जाता है। तब उसका वह रुप स्वयं को भूल जाता है। उसके लिए और ही स्वयं से श्रेष्ठ लगने लगता है। यही सूरतें कभी टकराव को स्वीकार नहीं कर पायी है। 

           अतएव " विद्वता असंतोष की सूरत में रहने के कारण ही। एक मत मे होना नहीं स्वीकारती है।" यही वजह है जो ऐसी अवस्था उत्पन्न हो जाती है। जो नासूर की तरह समाज में व्याप्त है।


 विद्युतध्वनि के सम्पादक राकेशमणि तिवारी मुम्बई ने विषय परावर्तन करते हुए कहा कि

"  वेदोऽखिलो धर्ममूलं " समस्त धर्मों का मूल अपौरुषेय वेद मृत्युंजय भारती संस्कृति के अक्षय सांस्कृतिक ज्ञानकोष का आधार है । " अनंतावै वेदः  " अर्थात- वेदों का ज्ञान अनंत है । सवाल उठता है कि - ज्ञान क्या है ? वेद शब्द विद् धातु से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ ही ज्ञान है । तात्पर्य वेद ब्रह्मज्ञान का आलोक है । अर्थात दिव्यदृष्टि द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार करना ही वेद विदित ज्ञान है । मानव सभ्यता का सर्वश्रेष्ठ मार्गदर्शन करने वाले वैदिक कालीन हमारे ऋषियों ने जिस रूप में ब्रह्म को देखा उसी रूप में उसका वर्णन किया । 

यद्यपि वैचारिक मतैक्य न होने के बाद भी सृष्टि नियंता के तौर पर ईश्वर के अस्तित्व को सभी ने स्वीकार किया है, तथापि सृष्टि नियंता को लेकर भी अद्वैत , द्वैत , विशिष्टाद्वैत, केवलाद्वैत , द्वैता द्वैत जैसे सात प्रकार के वैदिक वाद  निर्धारित हो उठे ।

      सवाल उठता है कि - वाद क्या है ? 


वाद एक प्रत्यय है जिसका शाब्दिक अर्थ है - कहना , बोलना । जिसका प्रयोग जिस किसी भी शब्द के साथ किया जाता है वह उसके अर्थ में उसी प्रकार का परिवर्तन कर उसकी व्याख्या को उसी विशेष पक्ष में वर्णित कर देता है । 


अब समझने की बात यह है कि यह वाद ही है जो सृष्टि नियंता के स्वरूप पर मानव सभ्यता का सर्वश्रेष्ठ मार्गदर्शन करने वाले आचार्यों के चित्त को स्थिर नहीं होने देता तो हम और आप  क्या हैं । 

इसलिए श्रेयस्कर यही है कि - जहाँ से जो वरेण्य हो उसे निःसंकोच ग्रहण किया जाय और किसी को नीचा दिखाने की कुचेष्टा का परित्याग कर सबको अपनी बात रखने का अवसर बिना किसी क्षिद्रान्वेषण के दिया ।


कार्यक्रम का संचालन में बलिया एक्सप्रेस टीम के साथ डॉ वी के त्रिपाठी (बी एच यू),डॉ गौरीशंकर द्विवेदी एवं डॉ शिवेस प्रसाद रॉय बलिया तथा डॉ रघुनाथ उपाध्याय छपरा से सम्मलित रहे।