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संत कबीर जयंती पर विशेष : कबिरा संगत साधु की.........






 डॉ भगवान प्रसाद उपाध्याय
प्रयागराज ।। संत कबीर दास जी एक ऐसे महान संत हुए हैं जिन्होंने  साखी, सबद  और  रमैनी के माध्यम से सामाजिक चेतना का वास्तविक निरूपण किया है और उन्होंने बेलाग तथा बेखौफ होकर अपनी बात कही है वह किसी धर्म विशेष के पक्षपाती नहीं थे इसी ऐसे महापुरुष के नाम पर कबीर पंथ का निर्माण हुआ  ।

सत्संगति कथय  किं  न  करोति पुंसाम 
सत्संगति क्या नहीं कर सकती यदि आपकी संगति अच्छे लोगों से है सद्विचार वालों से है तो आप नेक रास्ते पर चलेंगे यदि आप कुसंगत में पड़ गये और अधर्मी तथा कुविचारी लोगों के साथ हो गए तो आपका संस्कार विचार आहार सब कुछ सामाजिक मर्यादा के विपरीत ही होगा कबीरदास जी कहते हैं कि साधुओं अर्थात सज्जन पुरुषों की संगति ठीक उसी प्रकार होती है जैसे इत्र बेचने वाले व्यक्ति की संगत में इत्र अपनी सुगंध सदैव  बिखेरता रहता है यद्यपि वह भले किसी को निशुल्क ना प्रदान करें किंतु उसके संपर्क में आने पर उसकी सुगंध आपको मिलेगी ही ।

 उन्होंने एक जगह और लिखा है कि अच्छी संगति सदैव सन्मार्ग की ओर ही ले जाती है और बुरी संगति करने पर जीवन नारकीय हो जाता है । आज कबीर जयंती के अवसर पर हम उन्हें स्मरण कर रहे हैं ,उनके आदर्शो पर चलने का जिन लोगों ने प्रयास किया है ,वे कबीरपंथी कहे गए हैं । कबीर दास जी का मानना था कि सत्य के बराबर कोई तपस्या नहीं है और झूठ के बराबर कोई पाप भी नहीं है । संत कबीर दास जी का कहना है कि साधु का स्वभाव सूप की भांति होना चाहिए । वह थोथे को उड़ा देता है तथा सार अर्थात तत्व को अपने पास रखता है । इसे यह भी कहा जा सकता है कि जीवन की गंभीरता आप अपने आचरण में उतारें और हल्के पन को बाहर करें । कबीर के अनुयायियों का एक अलग ही महत्व है । उनकी एक अलग ही पहचान है । वे जहां भी जाते हैं ,अपने सत्कर्म के द्वारा अपने चिंतन के द्वारा समाज को कुछ न कुछ देते ही हैं क्योंकि साधु का स्वभाव है वह समाज हित के लिए चिंतन करें, समाज हित की बात करें और समाज को सही मार्ग पर ले जाए   ।

कहना न होगा कि आज इस समाज में भी बहुत विसंगतियां हैं । कुछ ऐसे तत्व इसमें अनायास आ गए हैं जो इस समाज को विकृत कर रहे हैं  । जब हम सामाजिक  हित की बात करते हैं  तो निर्विकार और निर्लिप्त भाव से अपनी बात रखते हैं ।जहां भी हम मार्ग से विचलित हुए वहां स्वभाव में  व्यवहार में आचरण में पक्षपात और असामाजिक आचरण स्वयं समाहित हो जाता है । समाज को सुधारने के लिए कबीर दास जी ने अपने दोहों के माध्यम से बहुत ही खरी खरी और समसामयिक बातें की हैं ,जो आज के युग में भी अधिक प्रासंगिक है । कबीर को समझना ,कबीर को पढ़ना ,कबीर को मानना और कबीर को जानना सभी अलग-अलग बातें हैं किंतु परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं । कबीर दास जी ने समाज  के सही   व्यक्ति को पूरी तरह निर्मोही और निर्विकार भाव से व्यवहार करने वाला बताया है । इसे ही वे सार्थक मानते हैं इसीलिए उन्होंने लिखा है कि

 पूत कपूत को का धन संचय 
पूत सपूत को का धन संचय

कुलीन और धन संपन्न परिवारों में यदि कोई कुपुत्र निकल गया तो वह सब कुछ बर्बाद कर देता है ,वहीं पर यदि निर्धन और संस्कारित परिवार में कोई सपूत निकल गया तो वह बहुत कुछ निर्माण कर लेता है ,अपने पूर्वजों को यशस्वी और चिर स्मरणीय बना देता है । कबीर के विचार यद्यपि बहुत प्रासंगिक हैं तथापि आज उन विचारों के पोषण सं पोषण करने वालों की संख्या निरंतर कम हो रही है । सामाजिक विकृतियों के चलते हम सत् पुरुषों की ओर से मुंह फेर रहे हैं कदाचित यही कारण है कि हम भौतिक संसाधनों से युक्त होते हुए भी संस्कार हीन और अनाचारी बनते जा रहे हैं । सदाचार और सद्विचार लुप्त होता जा रहा है । जब भी कभी कबीर की बात आती है तो कबीर सभी धर्मों को आड़े हाथ लेते हैं और वे ऐसा कटाक्ष करते हैं ,सभी धर्म संप्रदाय पंथ मानने वाले निरुत्तर हो जाते हैं । कबीर की रचनावली में समग्र सामाजिक चिंतन और उसका ताना-बाना, माननीय मूल्यों के आधार पर ही  है । जहां माननीयता   से  परे कोई धर्म अथवा संप्रदाय आचरण करने लगता है वह समाज से  कट जाता है और उस पर से समाज का विश्वास उठ जाता है । हाल ही में आयी वैश्विक महामारी कोरोना इस बात की जीवंत प्रमाण है कि समुदाय विशेष पूरे विश्व मंडल में शंका की दृष्टि से देखा जाने लगा । लोग उसके बहिष्कार की बात करने लगे और उनके अनैतिक आचरण स्वयं उन्हें पतित करने लगे लेकिन क्योंकि उनकी वृत्ति आसुरी हो चुकी है, इसलिए वह किसी अन्य की बात भी मानने को तैयार नहीं हैं ।उन्हें केवल अपना मिथ्या आडंबर ही सर्वोपरि लगता है पूरा विश्व जिस संकट का सामना कर रहा है यह एक समुदाय विशेष की ही तो देन है ।यद्यपि उसमें सभी लोग कुत्सित मानसिकता के नहीं हैं लेकिन उनका मौन रहना भी अत्याचारों का समर्थन करना होता है ।वह किस कारण से मुखर  नहीं हो पाते यह तो वही समझ सकते हैं लेकिन जहां समाज विखंडन की ओर जा रहा है, समाज नैतिक रूप से बांझ हो रहा है वहां बुद्धिजीवियों को चाहे वे किसी भी धर्म अथवा संप्रदाय के हैं मुखर होना चाहिए । जिस भी संप्रदाय अथवा धर्म का बौद्धिक वर्ग मुखर हो जाता है वहां विसंगतियां प्रायः विस्तार नहीं  पाती ।

केवल अंधानुकरण करना ही जीवन शैली नहीं है हमें भी अपने विवेक और अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करना चाहिए हम अपने मन की बात को तो सुने लेकिन हृदय की बात को भी अवश्य विचार योग्य माने । संत कबीर दास जी सभी को चेतावनी देते हुए कहते हैं कि किसी भी बात पर हमें मिथ्या अभिमान नहीं करना चाहिए क्योंकि हम सभी काल के वशीभूत हैं । काल ने अपने क्रूर हाथों में हमारा केश पकड़ रखा है वह कहीं भी किसी भी क्षण देश अथवा प्रदेश में हमें अपने आगोश में ले सकता है फिर भी हम अनावश्यक आडंबर और अहंकार में डूबे रहते हैं । संत कबीर दास जी का प्रहार छल दंभ द्वेष पाखंड झूठ अन्याय अनाचार सब पर समान रूप से हुआ है । उन्होंने किसी को छोड़ा नहीं सबसे बड़ी बात यह है कि कबीर आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितना कि  अपने जीवन काल में थे । उन्होंने प्रकृति को भी चुनौती दी और कहा कि  जब तक मनुष्य कर्म नहीं करेगा जब तक वह अपने कर्तव्य का पालन नहीं करेगा तब तक प्रकृति भी उसका साथ नहीं देगी । वह ऐसे सामाजिक चिंतक रहे हैं जिन्होंने अपने जीवन काल में सभी वर्ग के लोगों को सच्ची राह दिखाने का भरपूर प्रयास किया । कबीर दास का  सधुक्कड़ी स्वभाव और उनके जीवन की अलमस्त कहानी सर्वविदित है । वह कभी भी पाखंड को प्रश्रय नहीं देते हैं किंतु अपनी मूल में भूल भी नहीं करनी चाहिए इस बात को भी सचेत करते हैं  । कबीर ने समाज में जो जागृति का बीड़ा उठाया उसे वे अंत तक निर्वाह करते रहे और जब उनके जीवन का अंत सन्निकट आया तो उनके अनुयायियों में इस बात को लेकर प्रतिस्पर्धा हो गई कि उनका संस्कार कौन करेगा किंतु उन्होंने इस का अवसर ही नहीं दिया ।
आज आवश्यकता है कि हम कबीर होकर विचार करें कबीर होकर जीवन जिएं और कबीर होकर ही अपनी अनंत यात्रा पर जायें ।