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मुकद्दर ने किया मजबूर ,मुहाजिर हुए मजदूर








नरहीं बलिया ।।  1947 बँटवारे का दर्द झेलने के बाद देश की सड़कों पर बेबसी, लाचारी, और भूख का यह मँजर पहली बार दिख रहा है । मुल्क के माजी को अपने पसीने से सींचने वाला मजदूर आज अपने ही देश में शरणार्थी और प्रवासी बनकर रह गया है । कोरोना के भय पर भारी पड़ती भूख व मुफलिसी का दंश झेल रहे लाखों मजदूर चिलचिलाती धूप, आँधी, बारिश और ओलों से टकराते हुए अपने घर की तरफ बढ़ रहे हैं, जिनमें से कई मजदूरों का संघर्ष तो रेल की पटरियों और सड़क दुर्घटनाओं में दम तोड़ चुका है ।
        दूध मुहें बच्चे को अपनी  गोद और आंसुओं को अपनी पलकों में छुपाए हुए, मजदूर इस उम्मीद के साथ अपने गाँव की तरफ बढ़ रहे हैं, कि उनके गांव की मिट्टी उनके जख्मों पर मरहम लगाएगी ।  लेकिन अधिकांश मजदूरों का संघर्ष गांव पहुंँचकर भी जारी है, कई जगह पर इनको सामाजिक तिरस्कार का सामना करना पड़ रहा है। नाकाफी व्यवस्थाओं के बीच चल रहे क्वॉरेंटाइन सेंटरों में भी सिर्फ आंशिक संख्या में ही मजदूरों को रखा जा रहा है, अधिकांश को हम क्वॉरेंटाइन का फतवा सुना कर घर भेज दिया जा रहा है । लेकिन मजदूरों का दूसरा संघर्ष अपने गाँव पहुंचने के बाद शुरू हो रहा है । दो कमरों के घर और झोपड़पट्टी में जीवनयापन कर रहे  बड़े परिवार के बीच सोशल डिस्टेशिंग का पालन कैसे मुनासिब है ?? और 21 दिन के संघर्षपूर्ण होम क्वारंटीन के बाद भी यदि गाँव में काम नहीं मिला और यहां भी पेट की आग ना बुझ सकी तो अपने ही मिट्टी में मजदूर , मुहाजिर बनकर रह जाएंगे ।  लेकिन इस विकट परिस्थिति से निपटने के लिए ना तो कोई सरकारी योजना धरातल पर है ना ही गाँवो में सामर्थवानों व जनप्रतिनिधिययों को इन मजदूरों की कोई चिन्ता है।




             कल्पना करिए यदि घर वापसी के बाद भी मजदूरों बोझिल कंधों को आराम और हाथों को काम ना मिला तो आखिर किस सहारे पर अपने जिंदगी का संघर्ष जारी रख पाएंगे ?? देश व प्रदेश की सरकारें यकीनन प्रयासरत है लेकिन देश की आबादी की बहुत बड़ी है । इसलिए सरकारों के अलावा आम नागरिकों को भी इस विपदा की घड़ी में मजदूरों के लिए यथाशक्ति यथासंभव हाथ बढ़ाना होगा ।उद्योगपति और ठेकेदारों ने अगर इन मजदूरों के दर्द को समझने का प्रयास किया होता , इनके साथ दोहरा आचरण ना किया होता और राजनीतिक दलों ने  क्षेत्र आधारित गंदी राजनीति  को बढ़ावा न दिया होता, तो आज  मजदूरों की  हालत  इतनी दयनीय व चिन्तनीय ना होती । फिर भी अभी वक्त है  हम सब को आत्ममंथन करना होगा  और  अपने मजदूर साथियों की तरफ अपनत्व का हाथ बढ़ाना होगा, कल इन्हीं मजदूरों के मजबूत कंधों पर सशक्त भारत की नींव रखी  जाएगी ।
ज़िन्दगी इस कदर लाचार हो गई
भूख ही मजदूर की खुराक हो गई

कमल राय की रिपोर्ट

भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ जिनको सरकारी नीतियों के चलते भुखमरी की स्थिति से जूझना पड़ रहा है,ऐसे मेहनतकशों पर वायरल एक कविता प्रस्तुत है--
-प्रस्तुति मधुसूदन सिंह



गर लौट सका तो जरूर लौटूंगा, तेरा शहर बसाने को।
पर आज मत रोको मुझको, बस मुझे अब जाने दो।।

        मैं खुद जलता था तेरे कारखाने की भट्टियां जलाने को,
        मैं तपता था धूप में तेरी अट्टालिकायें बनाने को।
        मैंने अंधेरे में खुद को रखा, तेरा चिराग जलाने को।
        मैंने हर जुल्म सहे भारत को आत्मनिर्भर बनाने को।

मैं टूट गया हूँ समाज की बंदिशों से।
मैं बिखर गया हूँ जीवन की दुश्वारियों से।
मैंने भी एक सपना देखा था भर पेट खाना खाने को
पर पानी भी नसीब नहीं हुआ दो बूंद आँसूं बहाने को
                     
                        मुझे भी दुःख में मेरी माटी बुलाती है
                        मेरे भी बूढ़े माँ-बाप मेरी राह देखते हैं।
                        मुझे भी अपनी माटी का कर्ज़ चुकाना है।
                        मुझे मां-बाप को वृद्धाश्रम नहीं पहुंचाना है।

मैं नाप लूंगा सौ योजन पांव के छालों पर।
मैं चल लूंगा मुन्ना को  रखकर कांधों पर।
पर अब मैं नहीं रुकूँगा जेठ के तपते सूरज में।
मैं चल पड़ा हूँ अपनी मंज़िल की ओर।

  गर मिट गया अपने गाँव की मिट्टी में तो खुशनसीब समझूंगा।
    औऱ गर लौट सका तो जरूर लौटूंगा, तेरा शहर बसाने को।
             पर आज मत रोको मुझको, बस मुझे अब जाने दो।।


भारत की पलायन करती अर्थव्यवस्था यानी मज़दूरों को सादर समर्पित