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सुदामा पांडेय धूमिल की कविता पर जीवंत अभिनय ने राजनीति के यथार्थ को किया नंगा : बलिया के संकल्प रंगोत्सव में पटना की दस्तक संस्था की प्रस्तुति" पटकथा" ने सबको किया भावविभोर

सुदामा पांडेय धूमिल की कविता पर जीवंत अभिनय ने राजनीति के यथार्थ को किया नंगा : बलिया के संकल्प रंगोत्सव में पटना की दस्तक संस्था की प्रस्तुति" पटकथा" ने सबको किया भावविभोर
मधुसूदन सिंह




बलिया 28 दिसम्बर 2019 ।।  रंगमंच के प्रति समर्पित स्थानीय संस्था संकल्प के 15 वर्षों के रंगमंचीय यात्रा के उपलक्ष्य में आयोजित "संकल्प  रंगोत्सत्व" में पटना की "दस्तक" की टीम ने सुदामा पांडेय धूमिल की कविता पर ऐसा एकाकी अभिनय प्रस्तुत किया कि कब एक घण्टा बीत गया दर्शकों को पता भी नही चला । मंच पर पहली प्रस्तुति पटना की दस्तक द्वारा सुप्रसिद्ध रंग निर्देशक पुंज प्रकाश के निर्देशन में   आशुतोष विज्ञ का एकल अभिनय शानदार रहा। हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित लंबी कविताओं में से एक "पटकथा" को आशुतोष विज्ञ ने अपने संवाद और देह भाषा से मंच पर जीवंत कर दिया । भारतीय जनमानस के शोषण चक्र को क्रूरता पूर्वक उजागर करता और लोगों को सोचने समझने और विचार युक्त होकर सामाजिक विसंगतियों को दूर करने की प्रेरणा देता  यह एकल नाटक लोगों के दिलों दिमाग पर छा गया । आशुतोष विज्ञ की यह प्रस्तुति इस मायने में भी शानदार रही कि 1 घंटे तक  शरीर पर बिना किसी कपड़े के सिर्फ धोती पहनकर मंच पर अभिनय करते रहे और वहीं लोग पूरे गरम कपड़े में भी ठिठुरन महसूस कर रहे थे। अभिनेता की ताकत रही कि लोग टस से मस नहीं हुए। इस प्रस्तुति के नेपथ्य में आशुतोष कुमार ,कृष्णा ,चंदन, अमन ,राकेश ,नीरज ,कुंदन की भूमिका सराहनीय रही ।
एकल अभिनय होने के बावजूद कलाकर ने जिस तरह आजादी के पहले से लेकर आजतक के हालात का वास्तविक चित्रण अपने अभिनय से किया ,उसकी जितनी भी तारीफ की जाय कम है । अभिनय व पटकथा कितनी उम्दा थी आप इसी से अंदाजा लगा सकते है कि जिलाधिकारी बलिया श्रीहरि प्रताप शाही तबतक बैठे रहे जबतक नाटक समाप्त नही हो गया । नाटक की समाप्ति पर जिलाधिकारी ने नाटक के कलाकार और निर्देशक दोनो को सम्मानित भी किया । पटकथा , सुदामा पांडेय धूमिल की एक ऐसा काव्यात्मक रचना है जिसको चाहे जितनी बार पढ़िये हमेशा नई और आज के समाज को प्रतिबिम्बित करती हुई लगेगी । दस्तक के कलाकार ने अपनी बेजोड़ अभिनय शैली से आरम्भ से लेकर अंत तक ऐसा सम्मोहित करने वाला अभिनय किया, वो भी लगभग 8 डिग्री तापमान की हड्डी को कंपकपाने वाली सर्दी में वो भी नंगे बदन , दर्शक वाह वाह करने व ताली बजाने से अपने आप को रोक नही पाये ।
श्री धूमिल ने जिस तरह से अपनी कविता की शुरुआत आजादी और गुलाम भारत के लोगो मे आजादी के बाद कि अभिलाषा, इच्छाओं को उकेरते हुए राजनेताओ के गिरगिट की तरह रंग बदलने और अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये सांप की तरह केंचुल बदलने को दिखाया है उसकी जितनी भी तारीफ की जाय कम है ।

मैंने सोचा और संस्कार के
वर्जित इलाकों में
अपनी आदतों का शिकार
होने के पहले ही बाहर चला आया।
बाहर हवा थी
धूप थी
घास थी
मैंने कहा आजादी...
मुझे अच्छी तरह याद है
मैंने यही कहा था
मेरी नस-नस में बिजली
दौड़ रही थी
उत्साह में
खुद मेरा स्वर
मुझे अजनबी लग रहा था
मैंने कहा-आ-जा-दी
और दौड़ता हुआ खेतों की ओर .......

मैंने दरवाजे के बाहर
एक पौधा लगाया और कहा
वन महोत्सव...
और देर तक

हवा में गरदन उचका-उचकाकर
लम्बी-लम्बी साँस खींचता रहा
देर तक महसूस करता रहा
कि मेरे भीतर

वक्त का सामना करने के लिये
औसतन ,जवान खून है
मगर मुझे शान्ति चाहिये
इसलिये एक जोड़ा कबूतर लाकर डाल दिया
और चहकते हुये कहा
यही मेरी आस्था है
यही मेरा कानून है।
इस तरह जो था उसे मैंने
जी भरकर प्यार किया
और जो नहीं था .....
आजादी मिलने से पहले नेताओ ने जो वादे किये थे और जनता ने सच मानकर जिस पर विश्वास किया था , आजादी के बाद जनता यही सोच रही थी ----
उसका इंतजार किया।
मैंने इंतजार किया-
अब कोई बच्चा
भूखा रहकर स्कूल नहीं जाएगा
अब कोई छत बारिश में
नहीं टपकेगी।
अब कोई आदमी कपड़ों की लाचारी में
अपना नंगा चेहरा नहीं पहनेगा
अब कोई दवा के अभाव में

घुट-घुट कर नहीं मरेगा
अब कोई किसी को रोटी नहीं छीनता
कोई किसी को नंगा नहीं करेगा
अब यह जमीन अपनी है
आसमान अपना है

पर यह दिवास्वप्न से अधिक कुछ नही हुआ ,हुआ क्या ...
जैसा पहले हुआ करता था...
सूर्य,हमारा सपना है
मैं इन्तजार करता रहा..
इन्तजार करता रहा...
इन्तजार करता रहा...
जनतंत्र,त्याग,स्वतंत्रता...
संस्कृति,शान्ति,मनुष्यता...
ये सारे शब्द थे
सुनहरे वादे थे
खुशफ़हम इरादे थे
सुन्दर थे
मौलिक थे

मुखर थे
मैं सुनता रहा...
सुनता रहा...
सुनता रहा...
मतदान होते रहे
मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे
उसी लोकनायक को
फिर भी जनता तो जनता है, वह चुनाव दर चुनाव वादों पर विश्वास करती रही कि अच्छे दिन आएंगे ....
बार-बार चुनता रहा
जिसके पास हर शंका और
हर सवाल का
एक ही जवाब था
यानी कि कोट के बटन-होल में
चमकता हुआ एक फूल
गुलाब का।
वह हमें विश्व शान्ति के और पंचशील के सूत्र
समझाता रहा। मैं खुद को
समझाता रहा-'जो मैं चाहता हूँ-
वही होगा। होगा-आज नहीं तो कल
मगर सब कुछ सही होगा।

भीड़ बढ़ती रही।
चौराहे चौड़े होते रहे।
लोग अपने-अपने हिस्से का अनाज
खाकर-निरापद भाव से
बच्चे जानते रहे।
योजनाएं चलती रहीं
बंदूकों के कारखानों में
जूते बनते रहे।
और जब कभी मौसम उतारकर

होता था। हमारा संशय
हमें सोचता था। हम उत्तेजित होकर
पूछते थे -यह क्या है?
ऐसा क्यों है?
फिर बहसें होती थीं
शब्दों के जंगल में

हम एक-दूसरे को काटते थे
भाषा की खाई को
जुबान से कम जूतों से
ज्यादा पढ़ते थे
कभी वह हारता रहा...
कभी हम जीतते रहे...
इसी तरह नोक-झोंक चलती रही
दिन बीतते रहे...
मगर एक दिन मैं स्तब्ध रह गया।
मेरा सारा धीरज
युद्ध की आग से पिघलती हुई बर्फ में
बह गया।
मैंने देखा कि मैदानों में
नदियों की जगह .....

मरे हुये सांप की केंचुली बिछी हैं
पेड़-टूटे हुये रडार की तरह खड़े हैं
दूर-दूर तक
कोई मौसम नहीं है
लोग
घरों के भीतर नंगे हो गये हैं
और बाहर मुर्दे पड़े हैं
विधवायें तमगा लूट रहीं हैं
सधवायें मंगल गा रहीं है
वन-महोत्सव से लौटी हुई कार्यप्रणालियाँ
अकाल का लंगर चला रही हैं
जगह-जगह तख्तियाँ लटक रहीं हैं
'यह श्मशान है,यहाँ की तश्वीर लेना
सख्त मना है।'
फिर भी उस उजाड़ में
कहीं-कहीं घास का हरा कोना
कितना डरावना है
मैंने अचरज से देखा कि दुनिया का
सबसे बड़ा बौद्ध मठ
बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है
देश मे भाषाई लड़ाई पर गहरा चोट करते हुए कहते है ....
अखबार के मटमैले हाशिये पर
लेटे हुये,एक तटस्थ और कोढ़ी देवता का
शांतिवाद ,नाम है
यह मेरा देश है...
यह मेरा देश है...
हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक
फैला हुआ
जली हुई मिट्टी का ढेर है
जहाँ हर तीसरी जुबान का मतलब
नफ़रत है।
साज़िश है।
अन्धेर है।
यह मेरा देश है
और यह मेरे देश की जनता है
जनता क्या है?
एक शब्द...सिर्फ एक शब्द है:
कुहरा,कीचड़ और कांच से
बना हुआ...
बना हुआ...
एक भेड़ है
जो दूसरों की ठण्ड के लिये
अपनी पीठ पर
ऊन की फसल ढो रही है।
एक पेड़ है

जो ढलान पर
हर आती-जाती हवा की जुबान में
हाँ ऽऽ..हाँ ऽऽ करता है
क्योंकि अपनी हरियाली से
डरता है।
गांवों में गन्दे पनालों से लेकर
शहर के शिवालों तक फैली हुई
'कथाकलि' की अंमूर्त मुद्रा है

भारत की जनता और जनतंत्र की बखियां उघेड़ते हुए कहते है ...
यह जनता...
उसकी श्रद्धा अटूट है
उसको समझा दिया गया है कि यहाँ
ऐसा जनतन्त्र है जिसमें
घोड़े और घास को
एक-जैसी छूट है
कैसी विडम्बना है
कैसा झूठ है
दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान
मदारी की भाषा है।
हर तरफ धुआँ है
हर तरफ कुहासा है
जो दाँतों और दलदलों का दलाल है
वही देशभक्त है
अंधकार में सुरक्षित होने का नाम है
तटस्थता। यहाँ
कायरता के चेहरे पर
सबसे ज्यादा रक्त है।
जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी
उसके लिये,सबसे भद्दी गाली है
हर तरफ कुआँ है .....
हर तरफ धुआँ है
हर तरफ कुहासा है
जो दाँतों और दलदलों का दलाल है
वही देशभक्त है
अंधकार में सुरक्षित होने का नाम है
तटस्थता। यहाँ
कायरता के चेहरे पर
सबसे ज्यादा रक्त है।
जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी
उसके लिये,सबसे भद्दी गाली है
हर तरफ कुआँ है
हर तरफ खाई है
यहाँ, सिर्फ, वह आदमी,देश के करीब है
जो या तो मूर्ख है
या फिर गरीब है .............
इसके बाद पाक का भारत पर आक्रमण और प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का ताशकंद में मौत को और देश मे पड़े अकाल और साहूकारों के गोदामो में भरे अनाज व भूख से मर रहे लोगो का भी मार्मिकता के साथ चित्रण न किया गया है .....
-और तभी सुलग उठा पश्चिमी सीमान्त
...ध्वस्त...ध्वस्त...ध्वान्त...ध्वान्त...
मैं दोबार चौंककर खड़ा हो गया
जो चेहरा आत्महीनता की स्वीकृति में
कन्धों पर लुढ़क रहा था,
किसी झनझनाते चाकू की तरह
खुलकर,कड़ा हो गया...
अचानक अपने-आपमें जिन्दा होने की
यह घटना
इस देश की परम्परा की
एक बेमिशाल कड़ी थी
लेकिन इसे साहस मत कहो
दरअस्ल,यह पुट्ठों तक चोट खायी हुई
गाय की घृणा थी
(जिंदा रहने की पुरजोर कोशिश)
जो उस आदमखोर की हवस से
बड़ी थी।
मगर उसके तुरन्त बाद
मुझे झेलनी पड़ी थी-सबसे बड़ी ट्रैजेडी
अपने इतिहास की
जब दुनिया के स्याह और सफेद चेहरों ने
विस्मय से देखा कि ताशकन्द में
समझौते की सफेद चादर के नीचे
एक शान्ति यात्री की लाश थी

और अब यह किसी पौराणिक कथा के
उपसंहार की तरह है कि इसे देश में
रोशनी उन पहाड़ों से आई थी
जहाँ मेरे पड़ोसी ने
मात खायी थी।
मगर मैं फिर वहीं चला गया
अपने जुनून के अँधेरे में
फूहड़ इरादों के हाथों
छला गया।
वहाँ बंजर मैदान
कंकालों की नुमाइश कर रहे थे
गोदाम अनाजों से भरे थे और लोग
भूखों मर रहे थे
कैसे मरी हिंदुस्तान से इंसानियत उसका सजीव चित्रण किया है .....
मैंने महसूस किया कि मैं वक्त के
एक शर्मनाक दौर से गुजर रहा हूँ
अब ऐसा वक्त आ गया है जब कोई
किसी का झुलसा हुआ चेहरा नहीं देखता है
अब न तो कोई किसी का खाली पेट
देखता है, न थरथराती हुई टांगें
और न ढला हुआ 'सूर्यहीन कन्धा' देखता है
हर आदमी,सिर्फ, अपना धन्धा देखता है
सबने भाईचारा भुला दिया है
आत्मा की सफलता को भुलाकर
मतलब के अँधेरे में (एक राष्ट्रीय मुहावरे की बगल मं
सुला दिया है।
सहानुभूति और प्यार
अब ऐसा छलावा है जिसके ज़रिये
एक आदमी दूसरे को,अकेले -
अँधेरे में ले जाता है और
उसकी पीठ में छुरा भोंक देता है
ठीक उस मोर की तरह जो चौक से
गुजरते हुये देहाती को
प्यार से बुलाता है और मरम्मत के नाम पर
रबर के तल्ले में
लोहे के तीन दर्जन फुल्लियाँ
ठोंक देता है और उसके नहीं -नहीं के बावजूद
डपटकर पैसा वसूलता है
गरज़ यह है कि अपराध
अपने यहाँ एक ऐसा सदाबहार फूल है
जो आत्मीयता की खाद पर
लाल-भड़क फूलता है
लोकतंत्र और इसके राजनेताओ का बहुत ही सटीक चित्रण
मैंने देखा कि इस जनतांत्रिक जंगल में
हर तरफ हत्याओं के नीचे से निकलते है
हरे-हरे हाथ,और पेड़ों पर
पत्तों की जुबान बनकर लटक जाते हैं
वे ऐसी भाषा बोलते हैं जिसे सुनकर
नागरिकता की गोधूलि में
घर लौटते मुसाफिर अपना रास्ता भटक जाते हैं।

शास्त्रों पर भी हमला बोलते हुए कहा है ....
उन्होंने किसी चीज को
सही जगह नहीं रहने दिया
न संज्ञा
न विशेषण
न सर्वनाम
एक सूचना और सही वाक्य
टूटकर
'बिखर गया है
उनका व्याकरण इस देश की
शिराओं में छिपे हुये कारकों का
हत्यारा है
उनकी सख्त पकड़ के नीचे
भूख से मरा हुआ आदमी
इस मौसम का
सबसे दिलचस्प विज्ञापन है और गाय
सबसे सटीक नारा है
वे खेतों में भूख और शहरों में
अफवाहों के पुलिंदे फेंकते हैं
राजनेताओ की निष्ठा और दलबदल पर गहरी चोट करते हुए कवि कहता है..
देश और धर्म और नैतिकता की
दुहाई देकर
कुछ लोगों की सुविधा
दूसरों की 'हाइपर सेंकते हैं
वे जिसकी पीठ ठोंकते हैं
उसकी रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है
वे मुस्कराते हैं और
दूसरे की आँख में झपटती हुई प्रतिहिंसा
करवट बदलकर सो जाती है
मैं देखता रहा...
देखता रहा...
हर तरफ ऊब थी
संशय था
नफरत थी
मगर हर आदमी अपनी ज़रूरतों के आगे
असहाय था। उसमें
सारी चीज़ों को नये सिरे से बदलने की
बेचैनी थी ,रोष था
लेकिन उसका गुस्सा
एक तथ्यहीन मिश्रण था:
आग और आँसू और हाय का
.......

एक दिन कवि का जब हिंदुस्तान से सामना हुआ ..
इस तरह एक दिन-
जब मैं घूमते-घूमते थक चुका था
मेरे खून में एक काली आँधी-
दौड़ लगा रही थी
मेरी सफलता में सोये हुये
वहसी इरादों को
झकझोर कर जगा रही थी
अचानक ,नींद की असंख्य पत्तों में
डूबते हुए मैंने देखा
मेरी उलझनों के अँधेरे में
एक हमशक्ल खड़ा है।
मैंने उससे पूछा-'तुम कौन हो?
यहाँ क्यों आये हो?
तुम्हें क्या हुआ है?
'तुमने पहचाना नहीं-मैं हिंदुस्तान हूं
हाँ -मैं हिंदुस्तान हूँ,
वह हँसता है-ऐसी हंसी कि दिल
दहल जाता है।
कलेजा मुँह को आता है
और मैं हैरान हूँ
'यहाँ आओ
मेरे पास आओ
मुझे छुओ।
मुझे जियो। मेरे साथ चलो
मेरा यकीन करो। इस दलदल से
बाहर निकले!
सुनो!
तुम चाहे जिसे चुनो
मगर उसे नहीं। उसे बदलो।
मुझे लगा-आवाज़
जैसे किसी जलते हुए कुएँ से
आ रही है।
एक अजीब-सी प्यार भरी गुर्राहट
जैसे कोई मादा भेड़िया
अपने छौने को दूध पिला रही है।
साथ ही किसी छौने का सिर दबा रही है
मेरा सारा जिस्म थरथरा रहा था

उसकी आवाज में
असंख्य नरकों की
घृणा
भरी थी
वह एक-एक शब्द चबा-चबाकर
बोल रहा था। मगर उसकी आँख
गुस्से में भी हरी थी
वह कह रहा था
'तुम्हारी आँखों के चकनाचूर आईनों में
वक्त की बजरंगी छायाएँ उलटी कर रही हैं
और तुम पेड़ों की छाल गिनकर
भविष्य का कार्यक्रम तैयार कर रहे हो
तुम एक ऐसी ज़िन्दगी से गुज़र रहे हो
जिसमें न कोई तुक है
न सुख है
तुम अपनी शापित परछाई से टकराकर
रास्ते में रुक गये हो
तुम जो हर चीज़
अपने दाँतों के नीचे
खाने के आदी हो
चाहे वह सपना अथवा आज़ादी हो
अचानक ,इस तरह,क्यों चुक गये हो
वह क्या है जिसने तुम्हें
बर्बरों के सामने अदब से
रहना सिखलाया है?
क्या यह विश्वास की कमी है।
जो तुम्हारी भलमनसाहत बन गयी है
या कि शर्म
अब तुम्हारी सहूलियत बन गयी है
नहीं-सरलता की तरह इस तरह
मत दौड़ो
उसमें भूख और मंदिर की रोशनी का
रिश्ता है। वह बनिये की पूँजी का
आधार है
मैं बार-बार कहता हूँ कि इस उलझी हुई
दुनिया में
आसानी से समझ में आने वाली चीज़
सिर्फ दीवार है।
और यह दीवार अब तुम्हारी आदत...


जैसे किसी जलते हुये कुएँ से
आ रही है।
एक अजीब-सी प्यार भरी गुर्राहट
जैसे कोई मादा भेड़िया
अपने छौने को दूध पिला रही है
साथ ही किसी छौने का सिर चबा रही है
मेरा सारा जिस्म थरथरा रहा था
उसकी आवाज में
असंख्य नरकों की घृणा भरी थी
वह एक-एक शब्द चबा-चबाकर
बोल रहा था। मगर उसकी आँख
गुस्से में भी हरी थी
वह कह रहा था
'तुम्हारी आँखों के चकनाचूर आईनों में
वक्त की बदरंग छायाएँ उलटी कर रही हैं
और तुम पेड़ों की छाल गिनकर
भविष्य का कार्यक्रम तैयार कर रहे हो
तुम एक ऐसी जिंदगी से
गुज़र
रहे हो
जिसमें न कोई तुक है
न सुख है
तुम अपनी शापित परछाई से टकराकर
रास्ते में रुक गये हो
तुम जो हर चीज़
अपने दाँतों के नीचे
खाने के आदी हो
चाहे वह सपना अथवा आज़ादी हो
अचानक इस तरह,क्यों चुक गये हो
वह क्या है जिसने तुम्हें
बर्बरों के सामने अदब से
रहना सिखलाया है?
क्या यह विश्वास की कमी है
जो तुम्हारी भलमनसाहत बन गयी है
या कि शर्म
अब तुम्हारी सहूलियत बन गयी है
नहीं-सरलता की तरह इस तरह
मत दौड़ो
उसमें भूख और मन्दिर की रोशनी का
रिश्ता है। वह बनिये की पूँजी का

अपनी आदतों में

फूलों की जगह पत्थर भरो
मासूमियत के हर तकाज़े को
ठोकर मार दो

अब वक्त आ गया है तुम उठो
और अपनी ऊब को आकार दो।

'सुनो!
आज मैं तुम्हें वह सत्य बोलता हूँ
जिसके आगे हर सच्चाई
छोटी है। इस दुनिया में
भूखे आदमी का सबसे बड़ा तर्क
रोटी है।
मगर तुम्हारी भूख और भाषा में
यदि सही दूरी नहीं है।
तो तुम अपने-आपको आदमी मत कहो
क्योंकि पशुता -
सिर्फ पूछ होने की मजबूरी नहीं है।
वह आदमी को वहां ले जाती है।
जहाँ भूख
सबसे पहले भाषा को खाती है।
वक्त सिर्फ उसका चेहरा बिगड़ता है।
जो अपने चेहरे की राख
दूसरों की रूमाल से बढ़ता है
जो अपना हाथ
मैला होने से डरता है।
वह एक नहीं ग्यारह यारों की
मौत मरता है
कवि देश की जनता में अधिकार प्राप्त करने के लिये जोश भरते हुए कहता है ...
और सुनो! नफरत और रोशनी
सिर्फ़ उनके हिस्से की चीज़ हैं।
जैसे जंगल के हाशिये पर
जीने की तमीज है।
इसलिये उठो और अपने भीतर
सोये हुए जंगल को
| आवाज़ दो
इसे जगाओ और देखो-
|कि तुम अकेले नहीं हो
और न किसी के मुहताज हो
लाखों हैं जो तुम्हारे दन्तजार में खड़े हैं।


और सुनो! नफ़रत और रोशनी
सिर्फ उनके हिस्से की चीज़ है।
जैसे जंगल के हाशिये पर
जीने की तमीज है
इसलिये उठो और अपने भीतर
सोये हुए जंगल को
आवाज़ दो
उसे जगाओ और देखो
कि तुम अकेले नहीं हो
और न किसी के मुहताज हो
लाखों हैं जो तुम्हारे इन्तज़ार में खड़े हैं
वहाँ चलो।उनका साथ दो
और इस तिलस्म का जादू उतारने में
उनकी मदद करो और साबित करो
कि वे सारी चीजें अन्धी हो गयीं है
जिनमें तुम शरीक नहीं हो...
मैं पूरी तत्परता से उसे सुन रहा था
एक के बाद दूसरा
दूसरे के बाद तीसरा
तीसरे के बाद चौथा
चौथे के बाद पाँचवाँ...
यानी कि एक के बाद दूसरा विकल्प
चुन रहा था
मगर मैं हिचक रहा था
क्योंकि मेरे पास
कुल जमा थोड़ी सुविधा थीं
जो मेरी सीमाएँ थी
यद्यपि यह सही है कि मैं
कोई ठण्डा आदमी नहीं है
मुझमें भी आग है
मगर वह
भभककर बाहर नहीं आती
क्योंकि उसके चारों तरफ चक्कर काटता हुआ
एक 'पूंजीवादी दिमाग है
जो परिवर्तन तो चाहता है
मगर आहिस्ता-आहिस्ता
कळ टय नगर कि दोनों की शालीनता


दरअस्ल उन्हें एक मौका मिला है
और इसी बहाने
वे अपने पड़ोसी को पराजित कर रहे हैं
मैंने देखा कि हर तरफ
मूढ़ता की हरी-हरी घास लहरा रही है
जिसे कुछ जंगली पशु
खुद रहे हैं
लीद रहे हैं
चर रहे है
मैंने ऊब और गुस्से को
गलत मुहरों के नीचे से गुजरते हुये देखा
मैंने अहिंसा को
एक सत्तारूढ़ शब्द का गला काटते हुये देखा
मैंने ईमानदारी को अपनी चोरजेबें
भरते हुये देखा
मैंने विवेक को
चापलूसों के तलवे चाटते हुये देखा...
मैं यह सब देख ही रहा था कि एक नया रेला आया
उन्मत्त लोगों का बर्बर जुलूस। वे किसी आदमी को
हाथों पर गठरी की तरह उछाल रहे थे
उसे एक दूसरे से छीन रहे थे। उसे घसीट रहे थे।
चूम रहे थे।पीट रहे थे। गालियाँ दे रहे थे।
गले से लगा रहे थे। उसकी प्रशंसा के गीत
गा रहे थे। उस पर अनगिनत झण्डे फहरा रहे थे।
उसकी जीभ बाहर लटक रही थी। उसकी आँखें बन्द
थीं। उसका चेहरा खून और आँसू से तर था।'मूर्यो!
यह क्या कर रहे हो?' मैं चिल्लाया। और तभी किसी ने
उसे मेरी ओर उछाल दिया। अरे यह कैसे हुआ?
मैं हतप्रभ सा खड़ा था
और मेरा हमशक्ल
मेरे पैरों के पास
मूर्च्छित-सा
पड़ा था
दुख और भय से झुरझुरी लेकर
मैं उस पर झुक गया
किन्तु बीच में ही रुक गया
उसका हाथ ऊपर उठा था
खून और आँसू से तर चेहरा

थी। उसका चेहरा खून और आंसू से तर था।'मूखॅ!
यह क्या कर रहे हो?' मैं चिल्लाया। और तभी किसी ने
उसे मेरी ओर उछाल दिया। अरे यह कैसे हुआ?
मैं हतप्रभ सा खड़ा था
और मेरा हमशक्ल
मेरे पैरों के पास
मूर्च्छित-सा
पड़ा था
दुख और भय से झुरझुरी लेकर
मैं उस पर झुक गया
किन्तु बीच में ही रुक गया
उसका हाथ ऊपर उठा था

खून और आँसू से तर चेहरा
मुस्कराया था। उसकी आँखों को हरापन
उसकी आवाज में उतर आया था
'दुखी मत हो। यह मेरी नियति है।
मैं हिन्दुस्तान हूँ। जब भी मैंने
उन्हें उजाले से जोड़ा है
उन्होंने मुझे इसी तरह अपमानित किया है
इसी तरह तोड़ा है
मगर समय गवाह है
कि मेरी बेचैनी के आगे भी राह है।'
मैंने सुना। वह आहिस्ता-आहिस्ता कह रहा है
जैसे किसी जले हुये जंगल में
पानी का एक ठण्डा सोता बह रहा है
घास की की ताजगी-भरी
ऐसी आवाज है
जो न किसी से खुश है,न नाराज़ है।
'भूख ने उन्हें जानवर कर दिया है
संशय ने उन्हें आग्रहों से भर दिया है
फिर भी वे अपने हैं..
अपने हैं...
अपने हैं...
जीवित भविष्य के सुन्दरतम सपने हैं
नहीं-यह मेरे लिये दुखी होने का समय
नहीं है। अपने लोगों की
घृणा
के
इस महोत्सव में
मैं शापित निश्चय हूँ
मतो किसी का भय नहीं है।

पानी को एक ठण्डा सोता बह रहा है
घास की की ताजगी-भरी
ऐसी आवाज है
जो न किसी से खुश है,न नाराज़ है।
'भूख ने उन्हें जानवर कर दिया है
संशय ने उन्हें आग्रहों से भर दिया है
फिर भी वे अपने हैं...
अपने हैं...
अपने हैं...
जीवित भविष्य के सुन्दरतम सपने हैं
नहीं-यह मेरे लिये दुखी होने का समय
नहीं है। अपने लोगों की
घृणा
के
इस महोत्सव में
मैं शापित निश्चय हूँ
मुझे किसी का भय नहीं है।
'तुम मेरी चिंता न करो। उनके साथ
चलो। इससे पहले कि वे
गलत हाथों के हथियार हों
इससे पहले कि वे नारों और इस्तहारों से
काले बाजार हो
उनसे मिलो।उन्हें बदलो।
नहीं-भीड़ के खिलाफ रुकना
एक खूनी विचार है
क्योंकि हर ठहरा हुआ आदमी
इस हिंसक भीड़ का
अन्धा शिकार है।
तुम मेरी चिन्ता मत करो।
मैं हर वक्त सिर्फ एक चेहरा नहीं हूँ
जहाँ वर्तमान
अपने शिकारी कुत्ते उतारता है
अक्सर में मिट्टी की हरक़त करता हुआ
वह टुकड़ा हूँ
जो आदमी की शिराओं में
बहते हुये खून को
उसके सही नाम से पुकारता हूँ
इसलिये मैं कहता हूँ,जाओ ,और
देखो कि लोग...
मैं कुछ कहना चाहता था कि एक धक्के ने


मुझे दूर फेंक दिया। इससे पहले कि मैं गिरता
किन्हीं मजबूत हाथों ने मुझे टेक लिया।
अचानक भीड़ में से निकलकर एक प्रशिक्षित दलाल
मेरी देह में समा गया। दूसरा मेरे हाथों में
एक पर्ची थमा गया। तीसरे ने एक मुहर देकर
पर्दे के पीछे ढकेल दिया।
भय और अनिश्चय के दुहरे दबाव में
पता नहीं कब और कैसे और कहाँ
कितने नामों से और चिन्हों और शब्दों को
काटते हुये मैं चीख पड़ी
|'हत्यारा!हत्यारा!हत्यारा!!!"
मुझे ठीक ठीक याद नहीं है।मैंने यह
किसको कहा था। शायद अपने-आपको
शायद उस हमशक्ल को(जिसने खुद को
हिन्दुस्तान कहा था) शायद उस दलाल को
मगर मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है

मेरी नींद टूट चुकी थी
मेरा पूरा जिस्म पसीने में
सराबोर था। मेरे आसपास से

तरह-तरह के लोग गुजर रहे थे।
हर तरफ हलचल थी,शोर था।
और मैं चुपचाप सुनता हूँ
हाँ शायद -
मैंने भी अपने भीतर
(कहीं बहुत गहरे)
'कुछ जलता हुआ सा छुआ है
लेकिन मैं जानता हूँ कि जो कुछ हुआ है
नींद में हुआ है
और तब से आजतक

नींद और नींद के बीच का जंगल काटते हुये
मैंने कई रातें जागकर गुजार दी है।
हफ्तों पर हफ्ते तह किये हैं
अपनी परेशानी के
निर्मम अकेले और बेहद अनमने क्षण
जिये हैं।
और हर बार मुझे लगा है कि कहीं
कोई खास फर्क नहीं है

हर तरफ राधा बेचारा का
दलदल है
सतहों पर हलचल है
नये-नये नारे हैं
भाषण में जोश है
पानी ही पानी है......

नेताओ के वादों से छली हुई जनता की आवाज बनकर कवि कहता है --जिसकी भी पूंछ उठाकर देखा मादा निकला
मैं रोज देखता हूँ कि व्यवस्था की मशीन का
एक पुर्जा गरम होकर
अलग छिटक गया है और
ठण्डा होते ही
फिर कुर्सी से चिपक गया है
उसमें न हया है
न दया है
नहीं-अपना कोई हमदर्द
यहाँ नहीं है। मैंने एक-एक
परख लिया है।
मैंने हरेक को आवाज़ दी है
हरेक का दरवाजा खटखटाया है
मगर बेकार..ैंने जिसकी पूँछ
उठायी है उसको मादा
पाया है।
वे सब के सब तिजोरियों के
दुभाषिये हैं।
वे वकील हैं। वैज्ञानिक हैं।
अध्यापक हैं। नेता हैं। दार्शनिक
हैं । लेखक हैं। कवि हैं। कलाकार हैं।
यानी कि
कानून की भाषा बोलता हुआ
अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।

भूख और भूख की आड़ में
चबायी गयी चीजों का अक्स
उनके दाँतों पर ढूँढना
बेकार है। समाजवाद
उनकी जुबान पर अपनी सुरक्षा का
एक आधुनिक मुहावरा है।
मगर मैं जानता हूँ कि मेरे देश का समाजवाद
माल गोदाम में लटकी हुई
उन बाल्टियों की तरह है जिस पर 'आग' लिखा है
और उसमें बालू और पानी भरा है।
यहाँ जनता एक गाड़ी है।
एक ही संविधान के नीचे
भूख से रिरियाती हुई फैली हथेली का नाम
'दया' है
और भूख में
तनी हुई मुट्ठी का नाम नक्सलबाड़ी है।
संसद के सम्बंध,लोकतंत्र के सम्बंध में व देश के सम्बंध में अंत मे कवि कहता है ......
मुझसे कहा गया कि संसद
देश की धड़कन को
प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है।
जनता को
जनता के विचारों का
नैतिक समर्पण है
लेकिन क्या यह सच है?
या यह सच है कि
अपने यहां संसद -
तेली की वह घानी है।
जिसमें आधा तेल है
और आधा पानी है
और यदि यह सच नहीं है
तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को
अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?
जिसने सत्य कह दिया है
उसका बुरा हाल क्यों है?
मैं अक्सर अपने-आपसे सवाल
करता हूँ जिसका मेरे पास
कोई उत्तर नहीं है
और आज तक
नींद और नींद के बीच का जंगल काटते हुये
मैंने कई रातें जागकर गुजार दी हैं
हफ्ते पर हफ्ते तह किये हैं। ऊब के
निर्मम अकेले और बेहद अनमने क्षण
जिये हैं।
मेरे सामने वही चिरपरिचित अन्धकार है
संशय की अनिश्चयग्रस्त ठण्डी मुद्रायें हैं
हर तरफ शब्दभेदी सन्नाटा है।
दरिद्र की व्यथा की तरह
उचाट और कुंथता हुआ, घृणा में
डूबा हुआ सारा का सारा देश
पहले की तरह आज भी
मेरा कारागार है।

जय हिंद






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