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चौकीदार जिनके आदर्शो पर चलने की चली है बयार : पर बच्चों को नहीं पता कैसे होते हैं चौकीदार,तो क्या ऐसे ही गायब रहेंगे हमारे नये चौकीदार

(व्यंग) :चौकीदार जिनके आदर्शो पर चलने की चली है बयार : पर बच्चों को नहीं पता कैसे होते हैं चौकीदार,तो क्या ऐसे ही गायब रहेंगे हमारे नये चौकीदार 
    मधुसूदन सिंह        

  बलिया 25 मार्च 2019 ।।ग्रामीण सुरक्षा की अहम कड़ी रहे चौकीदारों का अस्तित्व धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है । स्थिति यह है कि देश के भविष्य कहे जाने वाले बच्चों को पता ही नहीं कि चौकीदार किसे कहते हैं और कैसे होते है ? पहले रात में ग्रामीणों को जागते रहो की आवाज से सतर्क करने वालों का पता अब दिन में भी नहीं लगता। बच्चे ने तो कभी चौकीदारों की शक्ल भी नहीं देखी होगी ? शादी विवाह के मौके पर विदाई के दौरान  उनके दीदार हो जाते हैं लेकिन जिस काम के लिए वे नियुक्त हैं वहां कभी सक्रिय नहीं दिखते ।जागते रहो..... जागते रहो.. की आवाज अब गांव की गलियों में सुनाई नहीं दे रही है। एक समय था जब चौकीदार लाल पगड़ी बांध हाथ में बड़ा लठ्ठ लिए रात में गांव की गलियों में घूम घूम कर जागते रहो ..जागते रहो की आवाज लगाते हुए रात में पहरा देते थे और गांव के लोग चैन की नींद सोते थे। गांव में कोई भी घटना होती थी उसकी सूचना चौकीदार थाना को देता था । समय बदला लोगों की मानसिकता बदली और कार्य शैली में बदलाव आ गया। हफ्ते में एक बार चौकीदार थाने में जाकर अपनी उपस्थिति दर्ज करा देते हैं । अब तो गांव के बच्चों को यह भी पता नहीं कि चौकीदार कैसे होते हैं चौकीदार किसे कहते हैं? या कहीं चौकी पर बैठने वालों को चौकीदार तो नहीं नहीं कहते हैं ? हां कुछ ऐसा ही जवाब गड़वार क्षेत्र के हरिपुर गांव के पांचवीं का छात्र यश उपाध्याय देता है । गड़वार थाना अंतर्गत कुल लगभग नवासी गांव आते हैं जिसमें  बानबे (92) चौकीदार विभिन्न राजस्व  गांव में नियुक्त किए गए हैं। बदलते परिवेश में चौकीदारों की जिम्मेदारियां बढी पर यह मात्र दिखावा तक ही सीमित रह गई । अगर सच बोले तो यह भी सच है कि जहां सरकार ने न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण करके कम से कम ढाई सौ रुपये प्रति दिन देने का नियम बना रखा है ,वही खुद चौकीदारों को आजतक न्यूनतम मजदूरी भी नही दी है । आज भी ये चौकीदार बंधुआ मजदूरों की तरह मात्र 1500 रुपये प्रतिमाह पर नौकरी करते है । लेकिन जब येे चौकीदार थाना से गांव में पहुंचता है तो गांव वालों के सामने डिंग हांकने से बाज नहीं आता और लोग उसे हकीकत समझ लेते हैं। भोले भाले ग्रामीण तो चौकीदार को ही बड़े साहब समझते हैं। लेकिन ये हकीकत से परे है । आज एक बार फिर चौकीदार देश के चुनावी समर में अहम हो गये है । आज हर कोई अपने नाम के आगे चौकीदार लगाने पर फक्र महसूस कर रहा है । इस चुनावी समर मे चौकीदार की इतने करीने और सलीके से ब्रांडिंग की जा रही है , टीवी चैनलों अखबारों में प्रचारित प्रसारित किया जा रहा है कि लगता है कि चौकीदार है तो गांव में सुरक्षा है , चौकीदार है तो शांति है आदि आदि । हम लोगो को उस आदमी के आदर्श को अपनाने की नसीहत दे रहे है , उसके रास्ते पर चलने की वकालत कर रहे है जो आजादी के इतने सालों बाद भी अपने लिये एक मजदूर के बराबर भी अधिकार नही ले पाया है , उसका अनुसरण करने की शिक्षा दी जा रही हो जो आजकल अपना "जागते रहो जागते रहो " की गलियों में आवाज लगाना भूल गये है , उनको अपना आदर्श बनाने की बात कही जा रही है जो दासता/बंधुआ की जीती जागती मिशाल है(सरकारी बंधुआ) । क्या देश की जनता को ऐसे आदर्श को अपनाने चाहिये ? गांधी जी ने आजादी के लिये करो या मरो का नारा दिया था, लेकिन ये लोग तो अपने हक को लेने की बजाय मरने को ही स्वीकार किया हुआ है । तो क्या जो हमे ऐसी कार्यशैली जो अपना वाजिब हक भी न ले पाये उसको अपनाना चाहिये ? क्या इन चौकीदारों की तरह अपने हक की तिलांजलि देकर चुपचाप अन्याय सहने के गुण को अपनाना चाहिये ? क्या बंधुआ मजदूर की तरह अपने होठों को सी कर अपने आका के हर उचित अनुचित आदेश को मानना चाहिये ? या गलत को गलत , सही को सही कहने की हिम्मत रखने वाला देश का सच्चा वासी बनना चाहिये । अब सवाल उठता है हमारा आदर्श गांवो के चौकीदार होंगे तो बंधुआ मजदूर और हमारे बीच फर्क क्या होगा ? सोचिये देश बदल रहा है पर क्या हमारे आदर्श का ........नही हो रहा है ।