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सुप्रीम कोर्ट ने दिया महिलाओ को एक निश्चित सीमा तक निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में जाने का आदेश





10 दिसम्बर 2018 ।।

"ऐसा नवाजा मेरे पीर ने मुझको 
नस नस मेरी झूम रही है, झूम रहा है खयाल 
मेरी नजर में समां गया है मुर्शीद तेरा जमाल 
चश्मे ए करम कुछ ऐसी हुई 
मै बन गई अहले कमाल
ऐसा नवाजा मेरे पीर ने मुझको...."

ये आवाजें दिल्ली में निजामुद्दीन स्थित मशहूर सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर हमेशा गूंजती हुई लगती हैं. इस दरगाह पर जाने का मतलब हमेशा अलग अहसास. इस दरगाह परिसर में महिलाएं हर कहीं जा सकती हैं सिवाय एक जगह छोड़कर. वो कक्ष है सूफी हजरत निजामुद्दीन की मजार है. यहां महिलाओं को प्रवेश की अनुमति नहीं है. इसी मामले की सुनवाई करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार, दिल्ली सरकार और हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया दरगाह को चलाने वाली ट्रस्ट को नोटिस भेजा है.

कई फिल्मों की शूटिंग इस दरगाह में हो चुकी है. देश विदेश से लोग यहां आते हैं. माना जाता है यहां आना काफी फलदायक होता है. दरगाह पर नियमित तौर पर कव्वाली का आयोजन होता है. यहां हर धर्म के लोग आते हैं.

निजामुद्दीन औलिया एक सूफी संत थे. काफी लोकप्रिय थे. वो करीब 85 सालों तक दिल्ली में यहीं रहे. ये 12वीं सदी से लेकर 13वीं सदी के बीच का समय था. 03 अप्रैल 1325 में उन्होंने आखिरी सांसें लीं. उनके अनुयायियों की बड़ी तादाद थी.

वो उत्तर प्रदेश के बदायूं में पैदा हुए थे और फिर बचपन में ही पिता के निधन के बाद कुछ बरसों बाद दिल्ली आ गए. धीरे धीरे उनका प्रभाव यहां बढ़ने लगा. इस दरगाह की संरचना को 1562 में बनाया गया. अबुल फजह की आइन ए अकबरी में निजामुद्दीन औलिया का विस्तार से जिक्र किया गया है

सात बादशाहों को गद्दी पर बैठते उतरते देखा
उन्होंने अपने जीवनकाल में दिल्ली में सात बादशाहों को गद्दी पर बैठते-उतरते देखा. कुछ के लिए तो वो बहुत प्रिय थे. कुछ सुल्तानों को वो कभी पसंद नहीं आए. कई बादशाहों को उनकी लोकप्रियता बहुत खटकती थी.

हजरत निजामुद्दीन की दरगाह पर महिलाएं जाती तो हैं लेकिन एक सीमा तक ही, उन्हें हजरत निजामुद्दीन के मजार कक्ष में प्रवेश नहीं मिलता
कहा जाता है कि जब तक वह जिंदा रहे, तब तक ये जगह सूफी गीत-संगीत की ऊर्जा स्थली बनी रही. अब कई सदियों से उनके नहीं होने के बाद यहां संगीत का स्वर हमेशा गूंजता रहता है. ये शायद कभी एक दिन के लिए भी नहीं रुका. अमीर खुसरो उनके प्रिय शिष्य थे और उर्दू के बेहतरीन शायर भी.



हर धार्मिक जगहों सरीखा नजारा 
दरगाह की ओर जाने वाली पतली सी सड़क आमतौर पर गंदगी और अतिक्रमण का शिकार है. पटरी वाले दुकानदारों का जमावड़ा रहता है. साथ ही भिखारियों का झुंड भी. थोड़ी दूर आने जाने पर सड़क गायब हो जाती है.

रास्ता दुकानों से भरी घुमावदार गली में बदल जाता है. दुकानों में मजार पर चढाने वाली चादरें, फूल-माला और दूसरे सामान दिखेंगे. हल्ला-गुल्ला के बीच लोबान की सुगंध नाकों में समाने लगती है. दुकानदारों में ग्राहकों के लिए छीनाझपटी दिखती है, जैसा हाल आमतौर पर बड़ी धार्मिक जगहों का होता है.


पहले अमीर खुशरो की मजार
पहले अमीर खुसरो की मजार मिलेगी. मान्यता है कि हजरत ख़ुसरो को सलाम किए बिना हजरत निजामुद्दीन के दरबार में माथा टेकना अधूरा है.


हजरत निजामुद्दीन दरगाह परिसर में अमीर खुसरो की मजार


निजामुद्दीन के दरबार की ओर बढते ही माहौल, रंग-रौनक सब बदलने लगती है. कव्वाली और संगीत की संगत की आवाजें. अगरबत्तियों, इत्रों, फूलों और मुगलई खाने की खुशबू. अदब, इबादत, इंसानियत और संगीत का संगम. सुफियाना तराना हवा में घुलता रहता है.

औलिया की मजार पर नहीं जा सकतीं महिलाएं
दरगाह में हर जगह महिलाएं दिखती हैं लेकिन वो औलिया की मजार पर नहीं जा सकतीं, वहां केवल पुरुष जा सकते हैं, लिहाजा बाहर ही रुकना होता है. अंदर मजार के इर्द-गिर्द लोग कतार बांधे, अदब से झुकते हैं, मत्था टेकते हैं और इबादत करते हैं. मजार गुलाब और चादरों से ढकी होती है. यहां पिछले करीब 800 सालों से ये हो रहा है.


हजरत निजामुद्दीन की दरगाह पर नियमित तौर पर कव्वाली का आयोजन होता है


महिलाएं औलिया के कक्ष के बाहर बैठी होती हैं
बादशाह आए-गए. अंग्रेजों का राज भी आया और गया.आने वालों की भीड़ कभी कम नहीं हुई. लेकिन इस मजार पर महिलाओं का प्रवेश क्यों नहीं होता, इसके कोई ठोस तर्क नहीं हैं. हां ये जरूर है कि औलिया जिंदगी भर अविवाहित थे.

हालांकि निजामुद्दीन औलिया अपनी बहन बीबी रुकैय्या और मां बीवी जुलेखा का बहुत मान करते थे. हालांकि यहां आने वाली महिलाओं को भी कभी ये शिकायत नहीं रही है कि उन्हें यहां औलिया के कक्ष में क्यों जाने नहीं दिया जाता. वो पूरी श्रृद्धा के साथ कक्ष के ठीक बाहर भक्ति भाव में लीन नजर आती हैं.