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खुशखबरी -- पिता पुत्र की जोड़ी ने बनाया रंगीन एक्सरे मशीन ,मेडिपिक्स 3डी तकनीकी का कमाल , केंसर कोशिकाओं को पहचान करना हुआ आसान



    18 जुलाई 2018 ।।
    अगर किसी डॉक्टर को कैंसर के मरीज का ब्लैक एंड व्हाइट एक्स-रे मिलने की बजाए कलरफुल मिले तो क्या होगा? इससे डॉक्टर आसानी से कैंसरग्रस्त कोशिकाओं को पहचान लेगा ।ऐसा होने लगे तो इस एक्स-रे तकनीक से डॉक्टर और ज्यादा बेहतर ढंग से कैंसर मरीजों का इलाज कर सकेंगे ।
    अब ये सिर्फ एक सपना नहीं बल्कि हकीकत है । न्यूजीलैंड की एक कंपनी ने मेडिपिक्स 3D तकनीक से ये कारनामा कर दिखाया है । कैंटरबरी एंड ओटैगो यूनिवर्सिटी के साइंटिस्ट पिता-पुत्र की जोड़ी प्रोफेशर फिल और एंथोनी बटलर ने एक स्कैनर बनाया है, जो रंगीन एक्सरे निकालता है ।दोनों ने इस मशीन को तैयार करने में एक दशक से ज्यादा का वक्त लगा । ये तकनीक "यूरोपियन आर्गेनाइजेशन फ़ॉर न्यूक्लियर रिसर्च" में विकसित हुई ।
    अब आगे जानिए कि कैसे काम करती है ये कलर एक्सरे वाली तकनीक?



    कैसे काम करती है यह डिवाइस ? 
    मेडिपिक्स पार्टिकल इमेजिंग और पहचान के लिए तैयार चिपों का एक समूह है । मेडिपिक्स दरअसल कैमरे के कॉन्सेप्ट पर काम करता है, जो इलेक्ट्रॉनिक शटर के खुलते ही पार्टिकल के हर पिक्सल को हिट करके उसकी छवि तैयार करता है. ये हाई रेज्योलुशन, हाई कंट्रास्ट और विश्वसनीयता के साथ काम करता है ।
          ये तमाम खूबियां मेडिकल क्षेत्र में किसी क्रांति से कम नहीं है. हाईब्रिड पिक्सल डिटेक्टर टेक्नोलॉजी शुरुआत में लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर में पार्टिकल ट्रैकिंग के लिए इस्तेमाल हुई थी । एक्सरे के दौरान जब किरणें शरीर के किसी अंग के अंदरूनी हिस्सों से होकर गुजरती है तो सेंसर विशेष वेवलेंथ को मापता है ।



    अगली प्रक्रिया में स्पेक्ट्रोस्कोपी अपने एल्गोरिथ्म के जरिए डेटा जमा करती है और फिर इसे 3D कलर इमेज में तैयार करता है । इन इमेजों में सिर्फ हड्डियां ही नहीं बल्कि खून, टिशु और फैट भी दिखाई देता है ।

    मार्स बायोइमेजिंग लिमिटेड नामक कंपनी ने इस 3D स्कैनर का व्यवसायीकरण किया, जो ओटागो और कैंटेबरी यूनिवर्सिटी से संबंधित है । इसमें इस्तेमाल होने वाली मेडिमिक्स चिप्स सबसे एडवांस चिप है ।


    स्कैनर का कहां कहां इस्तेमाल
     इस स्कैनर की मदद से कैंसर, वाहिका संबंधी रोग, हड्डी और हड्डी के जोड़ों जैसी समस्याओं की स्टडी करना संभव है. ये पहले की तकनीकों से ज्यादा बेहतर और सटीक जानकारी दे सकता है. इसकी मदद से बीमारी को समझने में ज्यादा आसानी होगी. इसके बाद ये तकनीक आगामी महीनों में न्यूज़ीलैंड में ऑर्थोपेडिक और संधिविज्ञान के मरीजों के टेस्ट में इस्तेमाल की जाएगी. उम्मीद की जा रही है कि जल्द ही ये दुनिया के दूसरे देशों में भी इस्तेमाल की जाएगी ।