आत्मसंयम कठोर तप व मंजिल हासिल करने की जिद्द ने बनाया परम संत रामकृष्ण को परमहंस
तोतापुरी महाराज और भैरवी से दीक्षागुरु को पाकर ही रामकृष्ण बन सके परमहंस
बलिया।। भारत का युग व्यापी आध्यात्मिक इतिहास उन असंख्य मनुष्यों का इतिहास है, जो परम सत्ता पर विजय प्राप्त करने के लिए निरंतर अभियान करते आए है।इन महान पुरूषों में अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्ति हेतु जो ज्ञात- अज्ञात साध्यों को अपने लक्ष्य की सीढ़ी बनाया, उसे बहुत ही कम लोग जानते है। इनमें से ऐसे ही योगी रामकृष्ण परमहंस थे जो भाग्य भरोसे अकेले ही गरजती हुई लहरों के भंवर में अपनी अतृप्त आत्मा की प्यास बुझाने हेतु स्वयं को दांव पर लगाए असीम सागर में तैरने का प्रयास कर रहे थे। तभी उन्हें नागा सम्प्रदाय के तोतापुरी महाराज एवं भैरवी ब्राह्मणी से गुरू का सानिग्ध प्राप्त हुआ। जिसने इनके सिर पर हाथ रख अपने लक्ष्य तक पहुंचाकर इन्हें रामकृष्ण से परमहंस बनाया।
मां भैरवी से पहली मुलाक़ात
एक दिन रामकृष्ण ऊंचे तट पर खड़े हुए रंग-बिरंगी पतवारों के साथ गंगा की छाती पर इधर-ऊपर तैरती हुई नौकाओ को देख रहे थे। उन्होंने देखा कि एक नौका ठीक उनके तट के नीचे आकर रुक गयी। फिर उसमे ये एक स्त्री उतर कर ऊपर आयी। वह सुन्दर व दीर्घकाय थी, उसके लम्बे खुले केश पीछे लटक रहे थे, और वह संन्यासी के गेरुवे वस्त्र पहने हुए थी। उसकी आयु पैतीस से चालीस के बीच थी, परन्तु देखने मे वह कम आयु की प्रतीत होती थी। उसके चेहरे को देखकर रामकृष्ण विस्मित हो गये और उसे अपने निकट बुलाया। रामकृष्ण को देखते ही उसके नेत्रो से आँसू बहने लगे और उसने कहा :"वत्स । न मालूम कितने दिनों से मैं तुम्हें तलाश कर रही हूँ। वह बंगाल के एक कुलीन ब्राह्मण परिवार की सन्तान थी और विष्णु की उपासिका थी । यह अत्यन्त सुशिक्षिता तथा धर्मशास्त्रों, विशेषतया. भक्ति-शास्त्र की पूर्ण पण्डिता थी। उसने कहा कि वह एक ऐसे मनुष्य की तलाश में है जो भगवत्प्रेरणा से आदिष्ट हो, उसकी अन्तरात्मा ने उसे यह निश्चय करा दिया है कि ऐसे व्यक्ति का जन्म हो चुका है, और उक्त व्यक्ति को एक विशेष सन्देशा देने का कार्यभार उसे सौंपा गया है। केवल इतनी ही भूमिका व परिचय के साथ, यहाँ तक कि उसका नाम जानने से पूर्व ही (भैरबी ब्राम्हणी के अतिरिक्त अन्य किसी नाम से उसे कोई न जानता था) उक्त धर्म-परायण महिला तथा काली के पुरोहित के बीच तत्काल उसी स्थान पर माता और पुत्र का सम्बन्ध स्थापित हो गया।
आध्यात्मिक गुरु मां भैरवी से पहला संवाद
रामकृष्ण ने एक बालक के समान पूर्ण विश्वास के साथ उसे अपने भागवत जीवन के समस्त कष्टमय अनुभव, अपनी साधना और उसके साथ ही अपनी शारीरिक व मानसिक यातनाएँ भी सुना दी। उन्होंने कहा कि बहुत से आदमी उन्हें पागल कहते हैं, और वे वही नम्रता व उत्सुकता से उससे पूछने लगे कि क्या यह सत्य है? भैरवी ने रामकृष्ण की सब स्वीकारोक्तियो को सुन- कर माता के समान स्नेह भरे शब्दो में उन्हे सान्त्वना दी और कहा कि उन्हे किसी प्रकार का भय व आशंका नहीं करनी चाहिए।क्योकि वे अपने स्वयं द्वारा की गयी साधनाओं से ही भक्तिशास्त्र में वर्णित साधना के एक उच्चतम स्तर पर पहुँच गये है। उन्हें जो कष्ट व यन्त्रणाएँ प्राप्त हुई है, वे उनकी ऊर्ध्व गति की ही निर्देशक हैं। उसने शारीरिक स्वास्थ्य की ओर ध्यान दिया और उनके मानसिक अंधकार को दूर कर दिया। जिस ज्ञानमार्ग पर वे पहली रात्रि के अन्धकार मे बन्द आँखो से अकेले ही गुजरे थे, उसी मार्ग पर दिन के विस्तृत आलोक मे वह उन्हें ले गयी। जिन उपलब्धियो को प्राप्त करने में रहस्यवादी विज्ञान को कई शताब्दियां गुजर गयी हैं, उन्हे रामकृष्ण ने केवल अपने प्रयासों से कुछ ही वर्षों में प्राप्त कर लिया था, परन्तु उनका तब तक उन पर वास्तव में पूर्ण अधिकार न हो सका था, जब तक कि उन्हें यह न दिखाया गया कि वे किस मार्ग द्वारा वहां तक पहुँच सके हैं। भक्त को प्रेम के मार्ग से ही ज्ञान की उपलब्धि हो जाती है।
जब रामकृष्ण ने देखा मां के अंदर से ही निकलता भगवान के विभिन्न स्वरुप
रामकृष्ण ने माँ काली को अपने आदर्श रूप में स्वीकार किया थादेखा । बहुत समय तक वे अपने इस एकनिष्ठ प्रेम में ही निमग्न रहे। शुरू में वे अपनी भक्ति व श्रद्धा के लक्ष्य को प्राप्त न कर सके, परन्तु धीरे-धीरे वे उसे देखने, स्पर्श करने व उनसे वार्तालाप करने में समर्थ हो गये। उसके बाद भगवान का जीवित अस्तित्व अनुभव करने के लिए क्षणिक मनोनिवेग ही उनके निए पर्यात होता था। सब वस्तुओं व सब आकृतियों के अन्दर भगवान का वास है, यह विश्वास हो जाने पर रामकृष्ण ने अनुमन किया कि भगवान् के नाना रूप उनकी प्रियतम माँ को मूति में से ही उद्गत हो रहे है। इस दिव्य बहुरूपता से उनको दृष्टि ओतप्रोत हो गयी, और अन्त में इसके मधुर संगीत से वे इस प्रकार परिपूर्ण हो गये कि उनके अन्दर अन्य किसी वस्तु के लिए कोई स्थान शेष नहीं रहा। भौतिक संसार उनकी दृष्टि से विलुप्त हो गया। इस अवस्था का नाम हो सविकल्प समाधि -अथवा अति चेतन भावावेश की अवस्था है, जिसमे आत्मा विचार के आन्तरिक संसार से संयुक्त रहता है, और ईश्वर के साथ अपने जीवन के एकात्म होने के भाव का आनन्दोपभोग करता है। परन्तु जब कोई एक भाव आत्मा को आविष्ट कर लेता है, तब अन्य सब भाव मुरझा व नष्ट हो जाते है, और उसकी आत्मा अपने अन्तिम लक्ष्य अर्थात निर्विकल्प समाधि-या ब्रह्म के साथ अन्तिम मिलन के समीपतम पहुँच जाती है। पूर्ण त्याग के द्वारा विचारो को शून्यता के मध्य अव्यय के साथ पूर्ण एकता की जो अन्त में उपलब्धि होती है, उसमे यह दूर नहीं है।
आध्यात्मिक गुरु भैरवी ने किया कदम कदम पर रामकृष्ण का मार्गदर्शन
रामकृष्ण ने अपनी आध्यात्मिक यात्रा का लगभग तीन-चौथाई भाग एक लम्हे के समान ही पार किया था ।' भैरवी है, जिसे कि उन्होंने अपनी आध्यात्मिक माता व गुरु तथा शिक्षक के रूप में स्वीकार किया था, उन्हें उक्त पद के सब पहलुओं तथा उनके अर्थो को ठीक-ठीक समक्ष दिया। भैरवी स्वयं धर्मानुष्ठान व साधनाओं में प्रवीण थी, और ज्ञान के सब मागों से परिचित थो। इसलिए विभिन्न साधना के मागों की एक-एक करके शास्त्रोक्त विधि के अनुसार परीक्षा करने के लिए उसने रामकृष्ण को प्रोत्साहित किया । यहाँ तक कि वह तांत्रिक साधना, जो कि सबसे अधिक खतरनाक है, और जिसमे इन्द्रिय और आत्मा को रक्त मास की अनुभूति व कल्पना पर विजय प्राप्त करने के लिए अपने को उनके प्रभाव मे छोडना होता है, वह भी उसने रामकृष्ण को सिखा दी। परन्तु यह मार्ग अत्यन्त पिच्छल तथा दुर्गम है, जिससे गुजरते हुए हर समय अध: पतन तथा पागलपन की गहरी खंदक में गिरने का भय है। इस पथ पर चलने का जिन्होंने भी प्रयास किया है, उनमे से बहुत ही कम व्यक्ति वापस जा सके हैं। परन्तु पवित्र रामकृष्ण उक्त पथ पर यात्रा करने से पूर्व जिस प्रकार निष्फलक थे, उसी निष्कलक अवस्था में, बल्कि अग्नि मे तपाये हुए इस्पात के समान पहले से भी दृढ़तर होकर वापस आये ।
रामकृष्ण का दक्षिणेश्वर का जाना,तोतापुरी जी से मुलाक़ात
रामकृष्ण की दीक्षा गुरु-भैरवी ने रामकृष्ण के अन्दर भगवान के अवतार का दर्शन किया। इसलिए उसने दक्षिणेश्वर में पण्डितो की एक सभा बुलाई, जिसमे विद्वानो के पांडित्यपूर्ण वादविवाद के पश्चात् भैरवी ने धार्मिक सम्प्रदाय के आचार्यों से यह अनुरोध किया कि वह रामकृष्ण को नव अवतार के रूप मे घोषित करे । रामकृष्ण की ख्याति इस घटना के बाद अनन्तर दिन प्रतिदिन बढने लगी और चारों ओर दूर-दराज के लोग उनके दर्शनों के लिए आने लगे। 'यह अवतार हैं' - इस प्रकार को प्रशंसा को रामकृष्ण एकदम नापसंद करते थे। जब वे उस उच्च स्थान पर पहुँच गये, जिसे कि अन्य सब व्यक्ति, यहां तक कि उनकी पथ प्रदर्शिका गुरु भैरवी भी अंतिम शिखर मानती थी, तो वे वहाँ भी नहीं रुके और आरोहण की अन्य चोटी, अन्तिम तीव्र ढलानदार पर्वत-शिखर की ओर देखने लगे, और यही तीव्र ढलान रामकृष्ण के लिये उस शिखर तक पहुंचने के लिए साध्य बन सके, जो उनकी प्रथम गुरू भैरवी ब्राह्मणी नहीं बन सकी। यह अलग बात थी कि इसके लिए उन्होंने पूरे तीन साल तक अपने पुत्र समान शिष्य रामकृष्ण पर अनेक अन्वेषण किए पर अंदर ही अंदर एक अधूरेपन की वेदना को जी रहे थे। सन् 1864 के अंत में ठीक उसे समय जबकि रामकृष्ण ने साकार भगवान पर विजय प्राप्त कर ली थी, निराकार भगवान का वह अनन्य संदेशवाहक जिसे अभी तक अपने मिशन का बोध न था, दक्षिणेश्वर में आया। यह अनन्य साधारण वेदान्तिक पंडित व साधक (दिगम्बर) तोतापुरी थे। वे एक परिव्राजक सन्यासी ये, जिन्होंने निरन्तर चालीस वर्ष की साधना के बाद सिद्धि प्राप्त की थी। वे मुक्तात्मा थे उनकी अवैयक्तिक दृष्टि सर्वथा निर्लिप्त भाव से इस माया मय विश्व का अवलोकन करती थी ।
रामकृष्ण वेदना के साथ यह अनुभव कर रहे थे कि उनके चारो तरफ निराकार ब्रह्म और उसके दूत गणो की एक अमानुषधिक व अति- मानु पिक निर्लिप्तता व्याप्त हो रही है। दक्षिणेश्वर में आकर रहने के प्रथम दिनो मे रामकृष्ण को इन जीवित शवो के प्रति एक भयानक आकर्षण पैदा हुआ था और यह सोचकर कि सम्भव है कि उनकी भी एक दिन ऐसी ही अवस्था न हो जाय, वे भय से रोने लगे थे। रामकृष्ण के समान एक आजन्म प्रेमिक व कलाप्रेमी के लिए, जिसे कि मैंने प्रेमोन्मत्त कहकर वर्णन किया है, ऐसा विचार कितना कष्टदायक है, यह कल्पना करने की बात है। उन्हें अपने प्रेमपात्र को देखने, स्पर्श करने व आत्मसात् करने की आवश्यकता अनुभव होती थी, और वह तब तक संतुष्ट न होते थे जब तक कि वे उसकी जीवित मूति को अपने आलिंगन-पाश में न आवद्ध कर लेते थे, एक नदी के समान उसमे स्नान न कर लेते थे, और उनकी दिव्य मूति तथा सौन्दर्य को अपने अन्दर प्रतिष्ठित न कर लेते थे। रामकृष्ण के लिए वह उससे कही अधिक कष्टदायक व प्रतिकूल थी। पास से गुजरते हुए तोतापुरी ने ही रामकृष्ण को पहले देखा, यद्यपि राम- कृष्ण ने उनकी तरफ ध्यान नही दिया। तोतापुरी तीन दिन से अधिक एक स्थान पर नहीं ठहर सकते थे। उन्होंने देखा, मन्दिर का तरुण पुरोहित मंदिर की सीढी पर बैठा हुआ अपने ध्यान के गुप्त आनन्द से निमग्न है। तोतापुरी उसे देखकर विस्मित हो गये । उन्होंने कहा, 'वत्स!मैं देखता हूँ कि तुम पहले ही सत्य के मार्ग पर काफी दूर तक अग्रसर हो चुके हो, यदि तुम चाहो तो मै तुम्हे इसमे भी अगली मंजिल पर पहुंचा सकता हूँ, मैं तुम्हे वेदान्त की शिक्षा दूंगा।'
जब रामकृष्ण ने तोतापुरी के शिष्य बनाने के आग्रह को मां से पूंछ कर स्वीकार करने की कही बात
तोतापुरी महाराज को सुनने के बाद रामकृष्ण ने सहज सरल भाव से उन्हें उत्तर दिया, 'माँ से पूछ लूं अगर अनुमति मिलेगी तो आपसे शिक्षा ग्रहण कर लूंगा । रामकृष्ण की इस सरलता ने कठोर नागा सन्यासी तोतापुरी को भी मुग्ध कर लिया और वह मुस्कराने लगे । मां ने अनुमति दे दी, और रामकृष्ण ने अत्यन्त नम्रतापूर्वक इस भगवत्-प्रेरित गुरु तोतापुरी महाराज के चरणों मे पूर्ण विश्वास के साथ आत्मसमर्पण कर दिया । परन्तु दीक्षा लेने से पूर्व रामकृष्ण को परीक्षा देनी पड़ी। पहली शर्त यह थी कि उन्हे अपने सब विशेषाधिकार व सकेंत चिह्न, ब्राह्मण का उपवीत, पुरोहित की पद मर्यादा एवं अन्यान्य सभी सुविधाएं त्याग करनी होगी। रामकृष्ण के लिए यह अत्यंत तुच्छ वस्तु थी। सदगुरु तोतापुरी महाराज ने कहा इन सभी के साथ साथ उन्हें एक ही क्षण में चिरकाल के लिए सब विसर्जन करना होगा । पृथ्वी के समान नग्न होकर उन्हें प्रतीक के रूप में स्वय अपना शबदाह करना होगा। अपने अहंकार व हृदय के अंतरतम अवशेप को भी उन्हें दफनाना होगा। तभी वे सन्यासी के उन गैरिक वस्त्रो के अधिकारी हो सकते जो कि उनके नवजीवन के प्रतीक है। अब तोतापुरी उन्हे अद्वैत वेदान्त के मुख्य सिद्धांतों, एक अद्वितीय एवं अभिन्न ब्रह्म तथा किस प्रकार अहम् के सन्धान में गोता लगाना होगा, जिससे कि ब्राह्म के साथ उसकी एकरूपता की उपलब्धि हो सके और समाधि के द्वारा उसे ग्रह मे प्रतिष्ठित किया जा सके, आदि की शिक्षा देने लगे ।
रामकृष्ण के लिये गुरु तोतापुरी ने बदले अपने नियम
महाराज तोतापुरी अपने नियम के अनुसार तीन दिन से अधिक कहीं नहीं ठहर सकते थे। परन्तु जो शिष्य अपने गुरु से भी कही आगे बढ़ गया था, उससे आलाप करने के लिए ग्यारह मास तक वहीं बने रहे। जिस सिद्धि को प्राप्त करने के लिए तोतापुरी महाराज को चालीस वर्ष का समय लगा था, रामकृष्ण ने वह एक ही दिन में प्राप्त कर ली। जिस परम ज्ञान की प्राप्ति के लिए सन्यासी तोतापुरी ने रामकृष्ण को प्रवुद्ध किया था, उसके फल को देखकर वे स्वयं विस्मित व भयभीत हो गये। कई दिन तक रामकृष्ण का शरीर एक शव के समान कठोर अवस्था में बना रहा, जिसमे से ज्ञान की चरम सीमा को प्राप्त आत्मा के प्रभान्त प्रकाश की ज्योति विकीर्ण होती रही, साधक के लिए यह गौरव की बात थी । तोतापुरी आश्चर्यचकित रह गये और सन् १८६५ के अन्त के लगभग रामकृष्ण से विदा हुए थे ।
लेखक
आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार,
श्रीजगन्नाथधाम, काली मंदिर के पीछे,
ग्वालटोली ,नर्मदापुरम मध्यप्रदेश मोबाइल 9993376616



