सोचनीय प्रश्न छोड़ गयी झांसी की घटना :सात फेरे, सात महीने… और फिर खामोशी का शोर !
बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओं, को सिर्फ एक नारा नही हकीकत बनाये
झांसी।।एक छोटा-सा घर, जहाँ अभी कुछ महीने पहले मेहंदी की महक और शहनाई की आवाज़ गूंज रही थी। अप्रैल 2025 में ब्याहकर आई थी राधिका, 23 साल की। उसका पति विशाल था 24 का। दोनों के चेहरे पर वही चमक थी जो नई-नई शादी में होती है, जैसे सारी दुनिया उनके लिए ही रंगीन हो गई हो। सपने थे। छोटे-छोटे, लेकिन अपने। एक बच्चे की किलकारी, अपना एक कमरा, त्योहारों पर नई साड़ी-कुर्ता… बस यही सब।
फिर आया सितंबर। एक सामान्य सुबह। विशाल को सीने में तेज़ दर्द हुआ। घरवाले दौड़े, अस्पताल ले गए। लेकिन दिल ने साथ छोड़ दिया। 24 साल की उम्र में हार्ट अटैक। ऐसा नहीं कि पहली बार सुना हो, पर जब अपने घर में होता है, तो लगता है दुनिया रुक गई। विशाल चला गया। राधिका यादव विधवा हो गई। सात फेरे लिए अभी सात महीने भी पूरे नहीं हुए थे। अगले दो महीने राधिका ने जैसे-तैसे काटे। दिन में चुप, रात में रोना। खाना छुआ तक नहीं। नींद! वो तो पहले ही कहीं खो गई थी। परिवार ने समझाया, “समय सब ठीक कर देगा। हम यही कहते आए हैं न सदियों से , “समय सब ठीक कर देगा। पर कभी सोचा कि समय के साथ-साथ इंसान भी तो चाहिए होता है ठीक होने के लिए!
नवंबर की एक ठंडी सुबह। राधिका नहाने गई। देर तक बाहर नहीं आई। दरवाजा तोड़ा गया। और फिर वही दृश्य जो किसी भी घर को चिरकाल के लिए खामोश कर देता है! राधिका पंखे से लटकी हुई थी। 23 साल की जिंदगी, दो महीने के गम में खत्म।
एक घर, दो लाशें। सात महीने की शादी और समाज के कंधों पर दो जवान जानों का बोझ। ये सिर्फ विशाल और राधिका की कहानी नहीं है। ये उस हर उस युवा विधवा की कहानी है जिसे हम “अब क्या होगा” कहकर टाल देते हैं। छोटे शहरों में आज भी विधवा का मतलब है , सफेद साड़ी, सिर पर पल्ला, घर के कोने में जगह। दोबारा हँसना पाप, दोबारा जीना गुनाह। राधिका को शायद किसी ने ये नहीं बताया कि दुख के बाद भी जिंदगी हो सकती है। शायद किसी ने हाथ नहीं थामा। शायद किसी ने कहा ही नहीं, “बेटी, तू अकेली नहीं है।
बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओं, को सिर्फ एक नारा नही हकीकत बनाये
भारत में हर साल हजारों राधिकाएँ इसी खामोशी में डूब जाती हैं। WHO कहता है , अवसाद से होने वाली आत्महत्याओं में महिलाएँ पुरुषों से आगे हैं। खासकर युवा विधवाएँ। क्योंकि उनके पास न आर्थिक सहारा होता है, न सामाजिक स्वीकृति, न भावनात्मक कवच। हम चिल्लाते हैं “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ”। पर बेटी के विधवा होने पर चुप हो जाते हैं। हम गर्व करते हैं “संयुक्त परिवार” पर। पर दुख की घड़ी में “चुपचाप सह लो” ही सिखाते हैं। हम कहते हैं “मानसिक रोग कोई रोग नहीं । फिर डॉक्टर के पास जाने में शर्मिंदगी महसूस करते हैं। विशाल की मौत रोकना शायद मुश्किल था। पर राधिका को बचाया जा सकता था। बस एक बातचीत से। बस एक कंधे से। बस ये कहने से , “मैं हूँ ना।”
हम सबकी भी है बड़ी जिम्मेदारी
आज अगर आप पढ़ रहे हैं ये लेख, तो एक काम कीजिए। अगर आपके आसपास कोई है जो चुप-चुप सा रहने लगा है, जो पहले हँसता था और अब मुस्कुराना भी भूल गया है, तो एक बार उससे पूछिए , “ठीक हो ना! और रुकिए। जवाब का इंतज़ार कीजिए। शायद आपकी वो एक बात किसी राधिका की जिंदगी बचा ले। विशाल और राधिका अब नहीं हैं। पर उनकी कहानी अभी खत्म नहीं हुई। अब ये हमारी जिम्मेदारी है कि इसे खत्म होने से पहले बदल दें।ताकि सात फेरे सात महीनों में न टूटें। ताकि एक घर में दो लाशें न आएँ। ताकि प्यार के बाद सिर्फ यादें न रह जाएँ… बल्कि जिंदगी भी बाकी रहे। इन दोनों को श्रद्धांजलि। और हम सबको सबक..?
रिपोर्ट :इंद्र यादव





