आज का शिक्षक और हमारी जिम्मेदारी
डॉ सुनील कुमार ओझा
बलिया।।शिक्षक दिवस हर वर्ष हमें उस अनमोल विरासत की याद दिलाता है, जिसके आधार पर भारतीय संस्कृति और समाज ने अपनी प्रगति का मार्ग तय किया है। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस पर मनाया जाने वाला यह दिन केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि गुरु-शिष्य परंपरा का जीवंत उत्सव है।
आज के दौर में शिक्षक की भूमिका पहले से कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण हो गई है। वह केवल पाठ्यपुस्तकों का अध्यापक नहीं रहा, बल्कि अब मार्गदर्शक, प्रेरक और चरित्र-निर्माता है। डिजिटल युग ने ज्ञान के अनेक स्रोत उपलब्ध करा दिए हैं, लेकिन यह तथ्य निर्विवाद है कि तकनीक कभी भी शिक्षक की जगह नहीं ले सकती। समाज के सामने कई ज्वलंत प्रश्न खड़े हैं—क्या हम अपने शिक्षकों को वह सम्मान और गरिमा दे रहे हैं, जिसके वे अधिकारी हैं? क्या शिक्षा का व्यापारीकरण और प्रतिस्पर्धा का दबाव शिक्षक की गरिमा को कम नहीं कर रहा? क्या आर्थिक असुरक्षा और प्रशासनिक दबाव उनके मनोबल को नहीं तोड़ रहे?
आज का शिक्षक तकनीक और परंपरा के बीच पुल का काम कर रहा है। वह बच्चों को केवल अक्षरज्ञान नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला सिखाता है। बदलते समय में छात्र मोबाइल और सोशल मीडिया की चकाचौंध में उलझे हुए हैं, ऐसे में शिक्षक ही उन्हें संयम, धैर्य और मूल्य-आधारित जीवन का पाठ पढ़ाता है।
शिक्षक दिवस पर हमें आत्मचिंतन करना चाहिए। अगर हम सचमुच अपने राष्ट्र का भविष्य सुरक्षित करना चाहते हैं तो हमें शिक्षक को केवल "नौकरी करने वाला कर्मचारी" नहीं, बल्कि "राष्ट्र निर्माता" के रूप में देखना होगा। शिक्षक की गरिमा तभी सुरक्षित होगी जब हम उनके लिए बेहतर सम्मान, उचित सुविधाएँ और कार्य की स्वतंत्रता सुनिश्चित करेंगे।
समाज और सरकार दोनों को यह समझना होगा कि शिक्षक केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक संस्था है। शिक्षक को सशक्त किए बिना सशक्त भारत का निर्माण संभव नहीं
(लेखक- भारतीय राष्ट्रीय पत्रकार महासंघ राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य व असिस्टेंट प्रोफेसर,अमर नाथ मिश्र पी जी कालेज दुबेछपरा बलिया है।)