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हिंदी पत्रकारिता के 200 वर्ष : पत्रकारिता की नैतिकता और उत्तरदायित्व,समर्पण बनाम सेंसेशन पर हो गहन समीक्षा

 


बलिया।। हिंदी पत्रकारिता दिवस हम 30 मई को मनाते हैं। इसी दिन 1826 को कोलकाता से पं.युगुल किशोर शुक्ल ने हिंदी भाषा के पहले पत्र ‘उदंत मार्तण्ड’ की शुरुआत की थी। यह संयोग था या सुविचारित योजना कि उस दिन भारतीय तिथि से नारद जयंती भी थी। यानि हिंदी के पहले संपादक ने भी नारद जी अपने पुरखों के रुप में देखा। संपादकीय में उन्होंने हमें पत्रकारिता का उद्देश्य और बीज मंत्र भी यह लिखकर दिया- हिंदुस्तानियों के हित के हेत’। इस नजरिए से मूल्यबोध और राष्ट्रहित हमारी मीडिया का आधार रहा है।


इन 200 सालों की यात्रा में हमने बहुत कुछ अर्जित किया है। आज भी मीडिया की दुनिया में आदर्शों और मूल्यों का विमर्श चरम पर है। विमर्शकारों की दुनिया दो हिस्सों में बंट गयी है। एक वर्ग मीडिया को कोसने में सारी हदें पार कर दे रहा है तो दूसरा वर्ग मानता है जो हो रहा वह बहुत स्वाभाविक है तथा काल-परिस्थिति के अनुसार ही है। उदारीकरण और भूमंडलीकृत दुनिया में भारतीय मीडिया और समाज के पारंपरिक मूल्यों का बहुत महत्त्व नहीं है।


एक समय में मीडिया के मूल्य थे सेवा, संयम और राष्ट्र कल्याण। आज व्यावसायिक सफलता और चर्चा में बने रहना ही सबसे बड़े मूल्य हैं। कभी हमारे आदर्श महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, विष्णुराव पराड़कर, माखनलाल चतुर्वेदी और गणेशशंकर विद्यार्थी थे, ताजा स्थितियों में वे रुपर्ट मर्डोक और जुकरबर्ग हों? सिद्धांत भी बदल गए हैं। ऐसे में मीडिया को पारंपरिक चश्मे से देखने वाले लोग हैरत में हैं। इस अंधेरे में भी कुछ लोग मशाल थामे खड़े हैं, जिनके नामों का जिक्र अकसर होता है, किंतु यह नितांत व्यक्तिगत मामला माना जा रहा है। यह मान लिया गया है कि ऐसे लोग अपनी बैचेनियों या वैचारिक आधार के नाते इस तरह से हैं और उनकी मुख्यधारा के मीडिया में जगह सीमित है। तो क्या मीडिया ने अपने नैसर्गिक मूल्यों से भी शीर्षासन कर लिया है, यह बड़ा सवाल है।





सच तो यह है भूमंडलीकरण और उदारीकरण इन दो शब्दों ने भारतीय समाज और मीडिया दोनों को प्रभावित किया है। 1991 के बाद सिर्फ मीडिया ही नहीं पूरा समाज बदला है, उसके मूल्य, सिद्धांत, जीवनशैली में क्रांतिकारी परिर्वतन परिलक्षित हुए हैं। एक ऐसी दुनिया बन गयी है या बना दी गई है जिसके बारे में काफी कुछ कहा जा चुका है। आज भूमंडलीकरण को लागू हुए चार दशक होने जा रहे हैं। उस समय के प्रधानमंत्री श्री पीवी नरसिंह राव और तत्कालीन वित्तमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने इसकी शुरुआत की तबसे हर सरकार ने कमोबेश इन्हीं मूल्यों को पोषित किया। एक समय तो ऐसा भी आया जब श्री अटलबिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में जब उदारीकरण का दूसरा दौर शुरू हुआ तो स्वयं नरसिंह राव जी ने टिप्पणी की “हमने तो खिड़कियां खोली थीं, आपने तो दरवाजे भी उखाड़ दिए।” यानी उदारीकरण-भूमंडलीकरण या मुक्त बाजार व्यवस्था को लेकर हमारे समाज में हिचकिचाहटें हर तरफ थी। एक तरफ वामपंथी, समाजवादी, पारंपरिक गांधीवादी इसके विरुद्ध लिख और बोल रहे थे, तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी अपने भारतीय मजूदर संघ एवं स्वदेशी जागरण मंच जैसे संगठनों के माध्यम से इस पूरी प्रक्रिया को प्रश्नांकित कर रहा था। यह साधारण नहीं था कि संघ विचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी ने वाजपेयी सरकार के वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा को ‘अनर्थ मंत्री’ कहकर संबोधित किया। खैर ये बातें अब मायने नहीं रखतीं। 1991 से 2025 तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है और सरकारें, समाज व मीडिया तीनों ‘मुक्त बाजार’ के साथ रहना सीख गए हैं। यानी पीछे लौटने का रास्ता बंद है। बावजूद इसके यह बहस अपनी जगह कायम है कि हमारे मीडिया को ज्यादा सरोकारी, ज्यादा जनधर्मी, ज्यादा मानवीय और ज्यादा संवेदनशील कैसे बनाया जाए। व्यवसाय की नैतिकता को किस तरह से सिद्धांतों और आदर्शों के साथ जोड़ा जा सके। यह साधारण नहीं है कि अनेक संगठन आज भी मूल्य आधारित मीडिया की बहस से जुड़े हुए हैं।




कोई भी मीडिया सत्यान्वेषण की अपनी भूख से ही सार्थक बनता है, लोक में आदर का पात्र बनता है। हमें अपने मीडिया को मूल्यों, सिद्धांतों और आदर्शों के साथ खड़ा करना होगा, यह शब्द आज की दुनिया में बोझ भले लगते हों पर किसी भी संवाद माध्यम को सार्थकता देने वाले शब्द यही हैं। सच की खोज कठिन है पर रुकी नहीं है। सच से साथ खड़े रहना कभी आसान नहीं था। हर समय अपने नायक खोज ही लेता है। इस कठिन समय में भी कुछ चमकते चेहरे हमें इसलिए दिखते हैं क्योंकि वे मूल्यों के साथ, आदर्शों की दिखाई राह पर अपने सिद्धांतों के साथ डटे हैं। समय ऐसे ही नायकों को इतिहास में दर्ज करता है और उन्हें ही मान देता है। आइए भारतीय मीडिया के पारंपरिक अधिष्ठान पर खड़े होकर हम अपने वर्तमान को सार्थक बनाएं।


       हिंदी पत्रकारिता की द्विशताब्दी पर चिंतन 

 हिंदी पत्रकारिता की यात्रा केवल समाचारों की प्रस्तुति नहीं, बल्कि यह भारतीय जनचेतना, स्वतंत्रता-संघर्ष, लोकतंत्र, सामाजिक उत्थान और भाषायी अस्मिता की जीवंत गाथा है। 1826 में पंडित युगल किशोर शुक्ल द्वारा ‘उदन्त मार्तण्ड’ के माध्यम से जिस आंदोलन का शुभारंभ हुआ, वह समय के साथ आंदोलनों का पर्याय बन गया। यह यात्रा मात्र छपाई की नहीं थी; यह संवेदना, विचार और विरोध की ऐसी धारा थी, जिसने भारत में राष्ट्रीय चेतना को पंख दिए। ‘उदन्त मार्तण्ड’ के पहले अंक से लेकर आज के डिजिटल पोर्टलों तक हिंदी पत्रकारिता ने समय के अनेक थपेड़े सहे, लेकिन वह न कभी रुकी, न झुकी। यह लेख इस 200 वर्षों की यात्रा को समास शैली में – कम शब्दों में अधिक अर्थ देने की कोशिश के साथ – ऐतिहासिक, सामाजिक, भाषायी, तकनीकी और सांस्कृतिक संदर्भों में प्रस्तुत करता है।



                            प्रारंभिक दौर 

    ‘उदन्त मार्तण्ड’ से आरंभ, आंदोलन तक अभ्युदय 

30 मई 1826 को कलकत्ता से प्रकाशित ‘उदन्त मार्तण्ड’ ने हिंदी पत्रकारिता के युग का शुभारंभ किया। पंडित युगल किशोर शुक्ल ने हिंदीभाषियों की आवाज को पहली बार छपाई की स्याही से जोड़कर जनता तक पहुँचाया। हालांकि इसे सरकारी सहायता नहीं मिली और पाठक वर्ग सीमित था, फिर भी यह हिंदी के आत्मसम्मान की पहली उद्घोषणा थी। ‘उदन्त मार्तण्ड’ का जीवन काल एक वर्ष से भी कम रहा, लेकिन उसका ऐतिहासिक प्रभाव कालजयी रहा। इस युग में हिंदी पत्रिकाएं जैसे ‘बनारस अख़बार’, ‘सुधाकर’, ‘बिहार बंधु’, ‘हिंदी प्रदीप’, ‘सार सुधानिधि’ ने धार्मिक, सामाजिक, सुधारवादी चेतना का प्रसार किया। पत्र-पत्रिकाएं केवल समाचार नहीं देती थीं, वे आंदोलन का औजार बनती थीं। बंगाल नवजागरण और आर्य समाज के आंदोलन हिंदी पत्रकारिता के माध्यम से गाँव-गाँव पहुंचे। यह वह युग था जब संपादक लेखक थे, आंदोलनकारी थे और समाज सुधारक भी थे।


                     राष्ट्रीय चेतना का निर्माण 

 स्वाधीनता संग्राम और हिंदी पत्रकारिता : 1857 की क्रांति के पश्चात अंग्रेजी शासन और कठोर हुआ, लेकिन हिंदी पत्रकारिता और अधिक जुझारू हो गई। ‘अखंडानंद’, ‘भारतमित्र’, ‘सरस्वती’, ‘हिंदुस्तान’, ‘प्रताप’, ‘कर्मयोगी’ और ‘अभ्युदय’ जैसे पत्रों ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में आत्मा का कार्य किया। गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘प्रताप’ को जनसंघर्ष का प्रतीक बनाया। बाल मुकुंद गुप्त और माधव राव सप्रे जैसे पत्रकारों ने पत्रकारिता को विचारधारा से जोड़ा। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने साहित्य और पत्रकारिता को एक मंच पर लाकर हिंदी को राष्ट्रीय आंदोलन का वाहक बना दिया। ‘सरस्वती’ के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भाषा, विचार और दर्शन का अद्वितीय समन्वय प्रस्तुत किया। स्वराज, स्वदेशी और असहयोग जैसे आंदोलनों की चेतना हिंदी अखबारों के माध्यम से देशभर में फैली। गांधी जी का ‘हरिजन’ और ‘यंग इंडिया’ अंग्रेजी में होते हुए भी हिंदी पत्रकारिता को दिशा देने वाले प्रेरक साधन बने। यह युग पत्रकारिता का तपस्वी युग था – जब पत्रकार केवल कलम से नहीं, अपने जीवन से लेखनी को विश्वसनीय बनाते थे।


                        उत्तर स्वातंत्र्योत्तर काल 

              नवनिर्माण, बाजारवाद और पुनराविष्कार 

 1947 के पश्चात जब भारत आजाद हुआ, तब हिंदी पत्रकारिता को स्वतंत्रता के साथ उत्तरदायित्व भी मिला। स्वतंत्र भारत में ‘नवभारत’, ‘आज’, ‘राजस्थान पत्रिका’, ‘हिंदुस्तान’, ‘नई दुनिया’, ‘दैनिक जागरण’, ‘अमर उजाला’ जैसे अखबारों ने सूचना और जनजागरण की दोहरी भूमिका निभाई। जनतांत्रिक मूल्य, संवैधानिक चेतना और ग्रामीण भारत की समस्याओं को राष्ट्रीय विमर्श में लाना हिंदी पत्रकारिता की प्राथमिकता बनी। लेकिन धीरे-धीरे पत्रकारिता में व्यवसायीकरण का प्रवेश हुआ। विज्ञापन और सर्कुलेशन की दौड़ में संपादकीय मूल्यों को चुनौती मिली। इसके बावजूद आपातकाल (1975) में हिंदी पत्रकारिता ने अद्वितीय साहस दिखाया – सेंसरशिप के विरुद्ध मौन प्रतीकार्थ में बगावत की गई। लघु पत्रिकाएं और वैकल्पिक मीडिया ने लोकतंत्र को जीवित बनाए रखा। रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती, प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर, सुरेंद्र प्रताप सिंह जैसे संपादकों ने पत्रकारीय गरिमा को बनाए रखा। इस युग में पत्रकारिता एक ओर जनतांत्रिक स्तंभ बनी रही, वहीं दूसरी ओर बाजारवादी दबाव से संघर्षरत भी रही।


             डिजिटल युग में हिंदी पत्रकारिता 

                     अवसर और अंतर्द्वंद्व 

 21वीं सदी ने पत्रकारिता के माध्यम को बदल डाला। छपाई से डिजिटल की ओर बढ़ती हिंदी पत्रकारिता ने ‘वेब पत्रकारिता’ के युग में प्रवेश किया। ‘भास्कर’, ‘जागरण’, ‘हिंदुस्तान’, ‘आज तक’, ‘NDTV India’ आदि ने वेबसाइट और ऐप के जरिए डिजिटल उपस्थिति दर्ज की। इसके समानांतर ‘द वायर हिंदी’, ‘कविता कोश’, ‘प्रेस प्रसंग’, ‘हंस पोर्टल’, ‘जनचौक’, ‘न्यूज़लॉन्ड्री हिंदी’, ‘डाउन टू अर्थ हिंदी’ जैसे वैकल्पिक डिजिटल माध्यमों ने गंभीर पत्रकारिता को एक नई पहचान दी। सोशल मीडिया पर यूट्यूब चैनल्स, ब्लॉग, पोडकास्ट और फेसबुक लाइव के माध्यम से लाखों लोग न केवल खबरें बना रहे हैं, बल्कि जनमत को भी प्रभावित कर रहे हैं। लेकिन इस दौर में फेक न्यूज़, ट्रोलिंग, पेड न्यूज़ और नैतिक संकट ने पत्रकारिता की विश्वसनीयता को प्रश्नांकित किया है। फिर भी, डिजिटल हिंदी पत्रकारिता ने क्षेत्रीय मुद्दों को राष्ट्रीय मंच दिया है। पत्रकारिता अब बहुपरतीय हो गई है – जहां तकनीक, भावना और विचार एक साथ चलते हैं।


           भाषायी संघर्ष और राजभाषा का प्रश्न 

            हिंदी पत्रकारिता की संवैधानिक भूमिका 

 भारत में हिंदी को 1950 के संविधान द्वारा राजभाषा का दर्जा दिया गया, किंतु उसका संपूर्ण कार्यान्वयन आज भी संघर्षरत है। इस संघर्ष का प्रमुख मंच हिंदी पत्रकारिता ही बनी। ‘राजभाषा आंदोलन’, ‘तीन भाषा सूत्र’, ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’ जैसे अभियान मीडिया के सहारे ही आम जन तक पहुँचे। पत्रकारिता का यह योगदान किसी अधिनियम से कम नहीं। 1965 में जब दक्षिण भारत में हिंदी विरोधी आंदोलन हुआ, तब हिंदी पत्रकारिता ने संयमित एवं तर्कपूर्ण लेखों के माध्यम से राष्ट्रभाषा की पक्षधरता में जनमत तैयार किया।


हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं ने यह भूमिका दो स्तरों पर निभाई – एक ओर हिंदी को प्रशासनिक और शैक्षिक माध्यम के रूप में स्थापित करने का प्रयास, दूसरी ओर जनसंचार के आधुनिक माध्यमों में हिंदी की तकनीकी उपस्थिति की माँग। इस दौर में ‘राष्ट्रभाषा’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘कादंबिनी’, ‘नंदन’, ‘धर्मयुग’, ‘सारिका’ जैसी लोकप्रिय पत्रिकाओं ने हिंदी भाषा और पत्रकारिता को सांस्कृतिक गर्व का विषय बनाया। राजभाषा विभाग की समितियों, संसदीय प्रस्तावों, भाषा आयोग की रिपोर्टों को भी हिंदी पत्रकारिता ने पाठकों तक पहुँचाकर जनजागरण का काम किया। हिंदी भाषा के तकनीकी सशक्तिकरण, टाइपिंग सॉफ़्टवेयर, यूनिकोड, हिंदी ब्राउज़र और की-बोर्ड लेआउट से संबंधित रिपोर्टों को बार-बार प्रकाशित करके हिंदी पत्रकारिता ने डिजिटल युग में हिंदी के सशक्तिकरण में भूमिका निभाई।


                 लोकतंत्र और हिंदी पत्रकारिता 

                 चौथे स्तंभ की सामाजिक भूमिका 

 भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बनाने में हिंदी पत्रकारिता की भूमिका निर्णायक रही है। चुनावी जनमत निर्माण, सामाजिक मुद्दों की अनदेखी के विरोध, भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनजागरण, शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए नीति निर्माण की माँग – इन सभी क्षेत्रों में हिंदी पत्रकारिता एक सजग प्रहरी के रूप में खड़ी रही। 1975 के आपातकाल में जब सेंसरशिप के तहत समाचारों को रोक दिया गया, तब भी कुछ हिंदी अखबारों ने सफेद खाली कॉलम छाप कर विरोध दर्ज कराया – यह पत्रकारिता का मौन लेकिन मुखर प्रतिरोध था।


जनता पार्टी शासन, मंडल-कमंडल राजनीति, राम जन्मभूमि आंदोलन, गुजरात दंगे, अन्ना हजारे आंदोलन, निर्भया कांड, नोटबंदी, किसान आंदोलन, कोरोना महामारी – इन सब घटनाओं में हिंदी मीडिया ने जनता की पीड़ा, आकांक्षा और सवालों को मंच दिया। यह भी सत्य है कि कई बार हिंदी पत्रकारिता पर एकतरफा रिपोर्टिंग, जातिवाद, भाषायी पूर्वग्रह और TRP की भूख के आरोप भी लगे, किंतु सम्पूर्ण परिदृश्य में हिंदी पत्रकारिता का लोकतंत्र के प्रति समर्पण असंदिग्ध रहा। आज भी ग्रामीण भारत में लोकतंत्र की वास्तविक जानकारी और उसका मूल्य हिंदी अखबारों और न्यूज़ चैनलों के माध्यम से ही आम नागरिक तक पहुँचता है। जिला स्तर के संवाददाता और ब्लॉक स्तरीय पत्रकार लोकतंत्र के असली सैनिक हैं – जिनके पास संसाधन भले सीमित हों, मगर प्रतिबद्धता असीमित है।


        हिंदी पत्रकारिता का वैश्विक विस्तार 

            प्रवासी हिंदी और नवसंप्रेषण 

 21वीं सदी में हिंदी केवल भारत तक सीमित नहीं रही। मॉरिशस, सूरीनाम, फिजी, त्रिनिदाद, यूएई, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में बसे प्रवासी भारतीयों ने हिंदी पत्रकारिता को अंतरराष्ट्रीय स्वरूप दिया। ‘गिरमिटिया भारतवंशी’ समुदाय के लिए हिंदी भाषा अस्मिता की पहचान बनी और पत्रकारिता उनके जीवन का दर्पण। आज ‘सृजन ऑस्ट्रेलिया’, ‘भारत दर्शन (न्यूज़ीलैंड)’, ‘वतन से दूर (दुबई)’, ‘गवर्नेंस नाउ हिंदी’, ‘सृजन मॉरिशस’, ‘सृजन अमेरिका’, ‘सृजन कतर’ जैसी पत्रिकाएँ डिजिटल माध्यम से विश्व के हिंदी पाठकों से जुड़ चुकी हैं। अंतरराष्ट्रीय हिंदी पत्रकारिता अब केवल संस्कृति और साहित्य की वाहक नहीं, बल्कि वैश्विक राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक विमर्श की सहभागी भी बन चुकी है। यूट्यूब पर प्रवासी हिंदी चैनल, वेब पोर्टल, हिंदी रेडियो पॉडकास्ट और ब्लॉग्स हिंदी की पहुँच को भूमंडलीय बना रहे हैं। इस वैश्विक हिंदी पत्रकारिता में तकनीक, भाव, संस्कृति और पत्रकारिता का सुंदर समन्वय दिखाई देता है।


   नारी विमर्श और हिंदी पत्रकारिता : आवाज़ की विविधता

 हिंदी पत्रकारिता ने नारी प्रश्नों को भी विस्तृत स्थान दिया है। ‘गृहलक्ष्मी’, ‘वामा’, ‘नई दुनिया’ के स्त्री केंद्रित कॉलमों से लेकर आज के ‘गाँव कनेक्शन’, ‘हंस’, ‘जनचौक’ और ‘सृजन संवाद’ जैसे डिजिटल मंचों ने महिला अधिकारों, लैंगिक समानता, कार्यस्थल पर उत्पीड़न, शिक्षा, स्वास्थ और प्रतिनिधित्व के मुद्दों को उभारा है। प्रभा दत्त, मृणाल पांडे, मधु पूर्णिमा किश्वर, रचना खैरा, रमा शर्मा जैसी महिला पत्रकारों ने हिंदी पत्रकारिता को संवेदनशीलता और धार दी। सामाजिक मुद्दों से लेकर युद्ध संवाद तक में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी पत्रकारिता को समावेशी बना रही है। नारी विमर्श अब केवल स्त्रियों की पीड़ा तक सीमित नहीं, बल्कि महिला सशक्तिकरण, निर्णय प्रक्रिया और नेतृत्व में सहभागिता तक विस्तृत हो चुका है – और इसका श्रेय हिंदी पत्रकारिता को भी जाता है।


          नवीन प्रवृत्तियाँ और तकनीकी संक्रमण 

 हिंदी पत्रकारिता का पुनराविष्कार : हिंदी पत्रकारिता अब सूचना-आधारित समाज में कदम रख चुकी है, जहाँ पाठक केवल समाचार नहीं चाहता, बल्कि विश्लेषण, संदर्भ, आंकड़े और सत्यापन भी चाहता है। इस संदर्भ में पत्रकारिता को अपनी भूमिका पुनर्परिभाषित करनी पड़ी है। डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर हिंदी पत्रकारिता की उपस्थिति अब बहुआयामी हो चुकी है – समाचार पोर्टल, वेब टीवी, पॉडकास्ट, ब्लॉग, सोशल मीडिया रिपोर्टिंग और इन्फोग्राफिक्स इसका हिस्सा बन चुके हैं।


आज ‘लाइव हिंदुस्तान’, ‘जनसत्ता’, ‘दैनिक भास्कर डिजिटल’, ‘पत्रिका ऑनलाइन’, ‘न्यूज़ 18 हिंदी’, ‘आज तक डिजिटल’, ‘लोकमत हिंदी’, ‘जनचौक’, ‘द वायर हिंदी’ जैसे वेब पोर्टल्स ने हिंदी पत्रकारिता को न्यूज़रूम से निकालकर मोबाइल स्क्रीन तक पहुँचा दिया है। रील्स (Reels), स्टोरीज़ (Stories), ट्वीटर थ्रेड्स (Twitter threads), शॉर्ट्स (Shorts) और लाइव सेशन्स ने रिपोर्टिंग के तरीकों को पूरी तरह बदल दिया है।


डिजिटल परिवर्तन ने कुछ गंभीर प्रश्न भी खड़े किए हैं, जैसे—फेक न्यूज़ (Fake News), डीपफेक (Deepfake), पेड न्यूज़, प्रायोजित सामग्री (Sponsored Content), एल्गोरिद्मिक पक्षपात (Algorithmic Bias) और टीआरपी आधारित विषय-चयन। परंतु इन चुनौतियों के बीच हिंदी पत्रकारिता ने डिजिटल साक्षरता, डेटा जर्नलिज़्म और फैक्ट चेकिंग की ओर बढ़ते कदमों से उम्मीद की नई राहें खोली हैं। यह युग पत्रकारिता का समवेत काल है – जहाँ प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक, वेब और सोशल मीडिया एक-दूसरे को समृद्ध करते हैं। अब पत्रकार संवाददाता भर नहीं, कंटेंट क्रिएटर, डेटा एनालिस्ट, वीडियो एडीटर, सोशल मीडिया मैनेजर और डिजिटल साक्षरक भी बन चुका है।


पत्रकारिता की नैतिकता और उत्तरदायित्व :समर्पण बनाम सेंसेशन 

 पिछले दो दशकों में पत्रकारिता की सबसे बड़ी चुनौती उसकी नैतिकता (Ethics) और जवाबदेही (Accountability) को लेकर बनी रही है। हिंदी पत्रकारिता, जो पहले जनपक्षधरता और विचारधारा से संचालित थी, अब कई बार सनसनी, भावनात्मक उत्तेजना और झूठी राष्ट्रभक्ति की ओर झुकती दिखाई दी। कुछ चैनलों और पोर्टलों ने TRP की दौड़ में पत्रकारिता को तमाशा बना दिया – बहस के नाम पर शोर, खबर के नाम पर नफरत और विश्लेषण के नाम पर एजेंडा। इस परिप्रेक्ष्य में पत्रकारिता की आचार संहिता, प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया, न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (NBA) और डिजिटल न्यूज एथिक्स कोड जैसे उपायों की प्रासंगिकता बढ़ जाती है। हिंदी पत्रकारिता को न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करनी है, बल्कि अपने भीतर भी पारदर्शिता, विविधता, समावेशिता और भाषा की गरिमा को बनाए रखना है। पत्रकारों की सुरक्षा, प्रेस की स्वतंत्रता, जमीनी संवाददाताओं को आर्थिक और विधिक संरक्षण जैसे प्रश्न अब हिंदी पत्रकारिता की आत्मा के लिए अनिवार्य बन चुके हैं। अन्यथा, पत्रकारिता जनसेवा से व्यवसाय और अंततः केवल प्रचार का औजार बनकर रह जाएगी।


                 शिक्षा, शोध और प्रशिक्षण 

        हिंदी पत्रकारिता का अकादमिक आधार 

 आज की हिंदी पत्रकारिता को व्यावसायिक प्रशिक्षण, शोध और नवाचार की आवश्यकता है। देश के अनेक विश्वविद्यालयों – जैसे माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय (भोपाल), काशी हिंदू विश्वविद्यालय (वाराणसी), दिल्ली विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया (दिल्ली), कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, पंजाब विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय (वर्धा), लखनऊ विश्वविद्यालय, जन नायक चंद्रशेखर विश्वविद्यालय बलिया आदि में पत्रकारिता की पढ़ाई हो रही है। परंतु प्रशिक्षण और मीडिया उद्योग के बीच समन्वय की कमी, शोध में नवाचार का अभाव और हिंदी मीडिया की वैश्विक पहुँच को लेकर रणनीतिक दृष्टि का अभाव एक बड़ी चुनौती है। हिंदी पत्रकारिता को अब केवल समाचार लेखन तक सीमित नहीं रहना चाहिए – उसे सांस्कृतिक अनुवाद, इंटरनेशनल रिपोर्टिंग, डेटा स्टोरीज़, विज्ञान पत्रकारिता, पर्यावरण पत्रकारिता, आपदा रिपोर्टिंग और बाल पत्रकारिता जैसे नए क्षेत्रों में कदम बढ़ाने चाहिए। अकादमिक शोध में अब मीडिया साहित्य, मीडिया समाजशास्त्र, मीडिया मनोविज्ञान और डिजिटल मीडिया की तुलनात्मक समीक्षा जैसे उपविषयों को अपनाना होगा, जिससे पत्रकारिता का अध्ययन केवल इतिहास नहीं, समकालीन व्यवहार का प्रतिबिंब बन सके।


                                  निष्कर्ष 

                   दो सौ वर्षों की जीवित धरोहर 

 हिंदी पत्रकारिता की यह द्विशताब्दी केवल एक कालक्रम नहीं, बल्कि राष्ट्र की स्मृति, समाज की संवेदना और जनसंघर्ष की चेतना का दस्तावेज है। इस यात्रा में ‘उदन्त मार्तण्ड’ की छोटी सी कोशिश से लेकर आज के 24×7 डिजिटल प्लेटफॉर्म तक की दूरी में असंख्य कहानियाँ, बलिदान, प्रयोग, विवाद और उपलब्धियाँ छिपी हुई हैं। हिंदी पत्रकारिता ने भाषा को केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं, बल्कि संघर्ष, विचार और अस्मिता की आवाज बनाया। चाहे आज़ादी का आंदोलन हो, संविधान निर्माण की प्रक्रिया, नवोन्मेष की चाह हो या लोकतंत्र की रक्षा – हर चरण में हिंदी पत्रकारिता की उपस्थिति मौन गवाह नहीं, सक्रिय सहभागी की रही है। आज जब हिंदी पत्रकारिता 200 वर्षों की इस यात्रा के मील के पत्थर पर खड़ी है, तब यह आत्मनिरीक्षण और नवचिंतन का अवसर है – हमें पूछना चाहिए कि क्या हम अब भी उस मूल उद्देश्य के साथ खड़े हैं, जहाँ पत्रकारिता लोकतंत्र की आत्मा कहलाती थी? या फिर हम सूचना के भीषण शोर में सत्य की आवाज़ खो बैठे हैं? आवश्यक है कि हम इस विरासत को केवल स्मरण तक सीमित न रखें, बल्कि उसे प्रेरणा बनाकर नव पत्रकारिता की ऐसी संस्कृति रचें, जिसमें संवेदनशीलता हो, सत्य के प्रति प्रतिबद्धता हो और जनपक्षधरता सर्वोपरि हो। यही द्विशताब्दी का सच्चा सम्मान होगा – पत्रकारिता की आत्मा को पुनर्जीवित करने का संकल्प।