हिन्दी हूँ मैं
हिन्दी हूँ मैं
पुत्रों से परिवारों से, गली मोहल्ले गांवों से
दफ्तर दुकान बाजारों से,सीख के पाठशालों से
संस्कृति से संस्कारों से, नैतिक पलटवारों से
सदियों से लड़ती आई हूँ , हुई अब पराई हूँ।
जन्म जाति संसार दिया है
बोली ज्ञान विस्तार दिया है
जीने का अधिकार दिया है
करती पोषण आई हूँ, हुई अब पराई हूँ।
पाश्चात्यों का रंग चढ़ा है
अंधानुकरण का दौर बढ़ा है
दिखावे में फंसे हुए हैं
सदाचार से दूर खड़े हैं
पराधीनता से थर्राई हूँ, हुई अब पराई हूँ।
निर्मल हूँ मैं निर्विकार हूँ
सरल परिष्कृत मैं आसान हूँ
मातृभूमि की अपनी, भारत की पहचान हूँ
संस्कृत पालि की अविर्भाव, प्राकृत की जाई हूँ
आर्यावर्त्त की भाषा 'हिन्दी', हुई अब पराई हूँ।
■निर्भय नारायण सिंह■
शिक्षक
बलिया