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सत्ता के विदुरों कुछ तो बोलो

 सत्ता के विदुरों कुछ तो बोलो



मधुसूदन सिंह

बलिया ।। मैं अपनी बात को जनकवि नागार्जुन की इन पंक्तियों से शुरु करता हूँ --

 ‘जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊँ?

जनकवि हूँ, मैं साफ कहूँगा, क्यों हकलाऊँ?’

          (हजार हजार बाहों वाली-नागार्जुन,पृष्ठ-142)

भारतवर्ष के इतिहास में दो महान युद्ध हुए थे और इन दोनों युद्धों में सत्तासीन शासक को दो करीबी व्यक्ति हमेशा गलत करने से रोकने का प्रयास करते थे । एक ने तो अत्याचार व्यभिचार को रोकने में जब अपने आप को असमर्थ देखा और जब बहुत अपमानित हुआ तो नाइंसाफी व अत्याचार को खत्म करने के लिये अपने ही भाई के सबसे बड़े शत्रु के साथ होकर अन्याय अत्याचार को खत्म कराया ।

लेकिन दूसरे महायुद्ध में जो करीबी थे वो राय तो देते थे लेकिन उनको शासक के चमचों भक्तों के आगे चुप होना पड़ता था,उनके ऊपर सही बोलने पर दुश्मन का समर्थक होने का आरोप लगाकर भरी सभा मे अपमान का घूंट पीकर रहना पड़ता था । नतीजन सही सलाह को अस्वीकार करने व गलत सलाह पर चलने के कारण शासक को अपने परिजनों समेत समाप्त होना पड़ा ।

पहली घटना रामायण काल और राम रावण युद्ध की है । जिसमे लंकेश रावण के छोटे भाई विभीषण ने सामने खड़े राम के रूप में विनाश के लिये उद्दत काल को साक्षात देख लिया था और इससे बचाने के लिये अपनी तरफ से बहुत प्रयास किया लेकिन जब अपमानित होने की पराकाष्ठा हो गयी तो इसने भी अपने शासक भाई का साथ छोड़कर भाई के दुश्मन राम से संधि करके रावण को सदा सदा के लिये समाप्त करा दिया । यह सही है कि आज भी विभीषण को घर का भेदी कहते है लेकिन वास्तव में विभीषण भारतवर्ष का पहला विदुर थे जो शासक को निडरता के साथ सही राय देते थे । यह अलग बात है कि रावण ने अपने अंध समर्थकों की राय के आगे इसको नही मानी और रसातल को चला गया ।

दूसरी घटना महाभारत की है । जिसमे सिंहासन पर बैठे जन्मजात अंधे धृतराष्ट्र अक्ल से भी पुत्र मोह में अंधे हो गये थे ।ये भी अपने पितामह भीष्म,गुरु द्रोण,गुरु कृपाचार्य और तो और अपने छोटे भाई और मंत्री विदुर की एक भी अच्छी बातों को पुत्रमोह और इसके समर्थकों के बहकावे में आकर नही मानते थे । नतीजन अपने कौरव वंश के सर्वनाश का कारण भी धृतराष्ट्र ही बने,इसमे विदुर ने साथ तो नही छोड़ा पर अंदर ही अंदर सर्वनाश की कामना और पांडवों के प्रति हमदर्दी तो रखता है था । यह अलग बात है कि शासक का शुभचिंतक होने के बावजूद उसको दुश्मनों का हितैषी कहकर उपहास उड़ाया जाता रहा ।

यही उपरोक्त उद्धरण अब वर्तमान काल मे भी देखने को मिल रहा है । देश हो या कोई भी प्रदेश हो, चाहे किसी भी दल की सरकारें हो,पूरी तरह से अंधभक्तो से घिर चुकी है और इनके जो विदुर है वो डर के मारे मौन साध लिये हुए है । आज चाहे किसी भी दल की सरकार हो, अगर उसके दल का कोई भी नेता सरकार के किसी गलत निर्णय पर उंगली उठा दे तो उसे तुरंत पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल बताकर अपमानित कर दिया जायेगा या कूड़े की तरह एक कोने में चुप रहने के लिये फेक दिया जाएगा ।

नागार्जुन जी की यह बात वर्तमान में भी उतनी ही सटीक है जितनी लिखते समय थी ---

छुट्टा घूमें डाकू गुंडे, छुट्टा घूमें हत्यारे,

देखो, हंटर भांज रहे हैं जस के तस ज़ालिम सारे!

जो कोई इनके खिलाफ़ अंगुली उठाएगा बोलेगा,

काल कोठरी में ही जाकर फिर वह सत्तू घोलेगा!


माताओं पर, बहिनों पर, घोड़े दौड़ाए जाते हैं!

बच्चे, बूढ़े-बाप तक न छूटते, सताए जाते हैं!

मार-पीट है, लूट-पाट है, तहस-नहस बरबादी है,

ज़ोर-जुलम है, जेल-सेल है। वाह खूब आज़ादी है!


रोज़ी-रोटी, हक की बातें जो भी मुंह पर लाएगा,

कोई भी हो, निश्चय ही वह कम्युनिस्ट कहलाएगा!

नेहरू चाहे जिन्ना, उसको माफ़ करेंगे कभी नहीं,

जेलों में ही जगह मिलेगी, जाएगा वह जहां कहीं!


सपने में भी सच न बोलना, वर्ना पकड़े जाओगे,

भैया, लखनऊ-दिल्ली पहुंचो, मेवा-मिसरी पाओगे!

माल मिलेगा रेत सको यदि गला मजूर-किसानों का,

हम मर-भुक्खों से क्या होगा, चरण गहो श्रीमानों का!

आज पूरे देश मे हत्या बलात्कार लूट की घटनाएं चरम पर है । नौजवानों की फौज बेरोजगारी के चलते सड़को पर है । महंगाई चरम पर है,आमजन कराह रहा है,किसान परेशान व बेहाल है,कोरोना में कामधंधा चौपट हो गया है ,इसको बोलने वाला कोई नही है । नौकरशाही बेलगाम हो गयी है,पर अंकुश लगाने वाला कोई नही दिख रहा है । बच्चियों महिलाओ के साथ बलात्कार को भी जाति के और दल विशेष की सरकार के आधार पर परिभाषित किया जा रहा है । यूपी में बलात्कार बहुत खराब तो राजस्थान में स्वीकार्य है । पीड़ितों की लाशों पर जाति की राजनीति खेली जा रही है,एक बार पहले धर्म के नाम पर यह कुचक्र चला था ,अब जाति जाति में विभेद पैदा करके जातीय संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार की जा रही है । परंतु देश का दुर्भाग्य है कि किसी भी राज्य या केंद्र सरकार का कोई भी विदुर ऐसा नही सामने आ रहा है जो नैतिकता के आधार पर गलत को गलत कहने का साहस कर सके । रामायण व महाभारत काल के विदुर तो मुंह खोल भी लेते थे लेकिन वर्तमान काल के विदुर तो इस डर के साथ चुप्पी साधे हुए है कि अगर मुंह खोला तो देश द्रोही या पार्टी द्रोही कहकर बाहर न फेक दिया जाऊं । लेकिन यह परिस्थिति शासक दलों के लिये शुभ नही कही जा सकती क्योंकि जब जब विदूरो का अपमान हुआ है ,सत्ता के सत्ताधीशों के प्रति अंधभक्ति बढ़ी है, सत्तासीन का विनाश ही हुआ है ।

मैं अपनी बातों को जनकवि नागार्जुन की कविता की इन पंक्तियों से समाप्त करना चाहूंगा - “प्रतिबद्ध हूँ” में नागार्जुन ने दो टूक लहजे में अपनी दृष्टि को स्पष्ट किया है , से जोड़ता हूं --

‘प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, प्रतिबद्ध हूँ-

बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त-
संकुचित ‘स्व’ की आपाधापी के निषेधार्थ
अविवेकी भीड़ की ‘भेड़िया-धसान’ के खिलाफ
अंध-बधिर ‘व्यक्तियों’ को सही राह बतलाने के लिए
अपने आप को भी ‘व्यामोह’ से बारंबार उबारने की खातिर

प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, शतधा प्रतिबद्ध हूँ!’

 नागार्जुन ने शोषक  चाहे जिस वर्ग का हो, वे उसे नहीं माफ नहीं करते। इस प्रकार कबीर की तरह वे किसी प्रकार के भी अत्याचार पर करारी चोट करते हैं-

‘तुमसे क्या झगड़ा है
 हमने तो रगड़ा है,
इनको भी,उनको भी !’

दोस्त है, दुश्मन है
ख़ास है, कामन है
छाँटो भी, मीजो भी, धुनको भी

लँगड़ा सवार क्या
बनना अचार क्या
सनको भी, अकड़ो भी, तुनको भी

चुप-चुप तो मौत है
पीप है, कठौत है
बमको भी, खाँसो भी, खुनको भी

तुमसे क्या झगड़ा है
हमने तो रगड़ा है
इनको भी, उनको भी, उनको भी !




(हजार हजार बाहों वाली-नागार्जुन,पृष्ठ-189)





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