बलिया : सरकार कहती है : पढ़े बेटियां बढ़े बेटियां , पर क्या ऐसे टीचरों के पढ़ाने से बढ़ेगी बेटियां ? गणित की अध्यापिका को न तो शून्य की परिभाषा मालूम है न तो उपराष्ट्रपति जी का नाम ? प्राथमिक विद्यालय रसड़ा नम्बर 2 की गणित टीचर की है दास्तान
सरकार कहती है : पढ़े बेटियां बढ़े बेटियां , पर क्या ऐसे टीचरों के पढ़ाने से बढ़ेगी बेटियां ?
गणित की अध्यापिका को न तो शून्य की परिभाषा मालूम है न तो उपराष्ट्रपति जी का नाम
मधुसूदन सिंह
बलिया 16 जनवरी 2019 ।। सरकार कहती है - पढ़े बेटियां बढ़े बेटियां , पर यह नही देखती कि आखिर उसको पढ़ाने की जिम्मेदारी जिनके कंधों पर है वे कितनी जानकार है । जब जानकार ही देश दुनियां की ताजातरीन घटनाओ से अनभिज्ञ हो , अपने विषय से सम्बंधित जानकारी ही न रखते हो तो बच्चो को कैसे अपडेट करेंगे , यह सोचनीय प्रश्न है । जब अध्यापको को ही देश के राष्ट्रपति , उपराष्ट्रपति , पीएम , राज्यपाल, सीएम के नाम न पता हो तो बच्चो को क्या जानकारी होगी स्वयं सोचने का विषय है । यूपी के प्राथमिक स्कूल बड़ी बड़ी सेलरियो के आहरण का केंद्र और लगता है अधिकांश शिक्षकों के लिये टाइम पास का अड्डा बन गये है । हम बात कर रहे है आजकल विवादों के चलते चर्चा में आये प्राथमिक विद्यालय रसड़ा नम्बर 2 की , जहां की गणित की अध्यापिका को ही शून्य की परिभाषा नही मालूम । यही नही जब इनसे देश के उपराष्ट्रपति का नाम पूंछा गया तो वीडियो में देखिये कैसे इंकार करके टहलने लगती है ।
आलम यह है कि प्राथमिक विद्यालयों में बच्चो को सामान्य ज्ञान के विषय मे जानकारी दी ही नही जा रही , यहां तक कि बच्चो को अपने प्रदेश के सीएम , शिक्षामंत्री का नाम तो छोड़िये जिलाधिकारी और बेसिक शिक्षाधिकारी तक का नाम नही पता है । ऐसे में एक बार फिर कहना पड़ रहा है - नौनिहालों का भविष्य क्या सुरक्षित हाथों में है ? यह सरकार को सोचना चाहिये पूरी संजीदगी के साथ ।
प्राथमिक विद्यालय रसड़ा नम्बर 2 की गणित टीचर को तो शून्य की परिभाषा नही मालूम पर हम उनकी जानकारी के लिये परिभाषा से लेकर शून्य की खोज के इतिहास तक की जानकारी दे रहे है ।
शून्य
यद्यपि कुछ लोग इस संख्या का आविष्कारक ब्रह्मगुप्त को जानते हैं, मगर अक्सर इस अंक को आर्यभट नाम के भारतीय ऋषि के साथ लिया जाता है जिन्होंने इसे कठिन गणनाओ को आसान बनाने के लिए पहली बार इस्तेमाल किया था.
शून्य (0) एक अंक है जो संख्याओं के निरूपण के लिये प्रयुक्त आजकी सभी स्थानीय मान पद्धतियों का अपरिहार्य प्रतीक है। इसके अलावा यह एक संख्या भी है। दोनों रूपों में गणित में इसकी अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका है। पूर्णांकों तथा वास्तविक संख्याओं के लिये यह योग का तत्समक अवयव(additive identity) है। इसके गुण निम्न है -
किसी भी वास्तविक संख्या को शून्य से गुणा करने पर शून्य ही प्राप्त होता है ।
आविष्कार
प्राचीन बक्षाली पांडुलिपि में भी इसके सही आविष्कार के काल खंड को यह नही बताया जा सका है परन्तु निश्चित रूप से उसका काल आर्यभट्ट के काल से प्राचीन है, शून्य का प्रयोग किया गया है और उसके लिये उसमें संकेत भी निश्चित है। 2017 में, इस पाण्डुलिपि से 3 नमूने लेकर उनका रेडियोकार्बन विश्लेषण किया गया। इससे मिले परिणाम इस अर्थ में आश्चर्यजनक हैं कि इन तीन नमूनों की रचना तीन अलग-अलग शताब्दियों में हुई थी- पहली की 224 ई॰ – 383 ई॰, दूसरी की 680–779 ई॰, तथा तीसरी की 885–993 ई॰। इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल पा रहा है कि विभिन्न शताब्दियों में रचित पन्ने कैसे एक साथ जोड़े जा सके।
शून्य का आविष्कार किसने और कब किया यह आज तक अंधकार के गर्त में छुपा हुआ है, परंतु सम्पूर्ण विश्व मे यह तथ्य स्थापित हो चुका है कि शून्य का आविष्कार भारत में ही हुआ। ऐसी भी कथाएँ प्रचलित हैं कि पहली बार शून्य का आविष्कार बाबिल में हुआ और दूसरी बार माया सभ्यता के लोगों ने इसका आविष्कार किया पर दोनो ही बार के आविष्कार संख्या प्रणाली को प्रभावित करने में असमर्थ रहे तथा विश्व के लोगों ने इन्हें भुला दिया। फिर भारत मे हिन्दुओ ने तीसरी बार शून्य का आविष्कार किया। हिंदुओं ने शून्य के विषय में कैसे जाना यह आज भी अनुत्तरित प्रश्न है। अधिकतम विद्वानों का मत है कि पांचवीं शताब्दी के मध्य में शून्य का आविष्कार किया गया। सर्वनन्दि नामक दिगम्बर जैन मुनि द्वारा मूल रूप से प्रकृत में रचित लोक विभाग नामक ग्रंथ में शून्य का उल्लेख सबसे पहले मिलता है। इस ग्रंथ में दशमलव संख्या पद्धति का भी उल्लेख है।
सन् 498 में भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलवेत्ता आर्यभट्ट ने आर्यभटीय( संख्यास्थाननिरूपणम् ) में कहा है-
- एकं च दश च शतं च सहस्रं तु अयुतनियुते तथा प्रयुतम्।
- कोट्यर्बुदं च वृन्दं स्थानात्स्थानं दशगुणं स्यात् ॥ २ ॥
अर्थात् "एक, दश, शत, सहस्र, अयुत, नियुत, प्रयुत, कोटि, अर्बुद तथा बृन्द में प्रत्येक पिछले स्थान वाले से अगले स्थान वाला दस गुना है और शायद यही संख्या के दशमलव सिद्धान्त का उद्गम रहा होगा। आर्यभट्ट द्वारा रचित गणितीय खगोल शास्त्र ग्रंथ "आर्यभटीय" के संख्या प्रणाली में शून्य तथा उसके लिये विशिष्ट संकेत सम्मिलित था (इसी कारण से उन्हें संख्याओं को शब्दों में प्रदर्शित करने के अवसर मिला)।
उपरोक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि भारत में शून्य का प्रयोग ब्रह्मगुप्त के काल से भी पूर्व के काल में होता था।
शून्य तथा संख्या के दशमलव के सिद्धान्त का सर्वप्रथम अस्पष्ट प्रयोग ब्रह्मगुप्त रचित ग्रंथ "ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त "में पाया गया है। इस ग्रंथ में ऋणात्मक संख्याओं (negative numbers) और बीजगणितीय सिद्धान्तों का भी प्रयोग हुआ है। सातवीं शताब्दी, जो कि ब्रह्मगुप्त का काल था, शून्य से सम्बंधित विचार कम्बोडिया तक पहुँच चुके थे और दस्तावेजों से ज्ञात होता है कि बाद में ये कम्बोडिया से चीन तथा अन्य मुस्लिम संसार में फैल गये।
इस बार भारत में हिंदुओं के द्वारा आविष्कृत शून्य ने समस्त विश्व की संख्या प्रणाली को प्रभावित किया और संपूर्ण विश्व को जानकारी मिली। मध्य-पूर्व में स्थित अरब देशों ने भी शून्य को भारतीय विद्वानों से प्राप्त किया। अंततः बारहवीं शताब्दी में भारत का यह शून्य पश्चिम में यूरोप तक पहुँचा।
भारत का 'शून्य' अरब जगत में 'सिफर' (अर्थ - खाली) नाम से प्रचलित हुआ। फिर लैटिन, इटैलियन , फ्रेंच आदि से होते हुए इसे अंग्रेजी में 'जीरो' (zero) कहते हैं।