Breaking News

बलिया : पर्यावरणीय, पारिस्थितिकीय, सामाजिक एवं सांस्कृतिक समस्याओं तथा संकटों से छुटकारा पाना है तो हमें अपने भारतीय संस्कृति की तरफ पड़ेगा लौटना : डॉ गणेश पाठक






उपसंपादक डॉ सुनील कुमार ओझा द्वारा डॉ गणेश पाठक से ली गयी भेंटवार्ता
बलिया 18 नवम्बर 2018 ।।
         भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद ( आई० सी० एस० एस० आर०) द्वारा प्रायोजित एवं बापू पी० जी० कालेज पीपीगंज, गोरखपुर द्वारा" मानव के क्रियाकलापों का पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव" नामक विषय पर 17 एवं 18 नवम्बर, 2018 को आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय  संगोष्ठी के तकनीकि सत्र में मुख्य वक्ता के रूप में अपना व्याख्यान प्रस्तुत कर बलिया लौटने पर एक भेंटवार्ता में अमरनाथ मिश्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय दूबेछपरा के पूर्व प्राचार्य एवं पर्यावरणविद् डा० गणेश कुमार पाठक ने बताया कि मानव ने अपनी भोगवादी प्रवृत्ति , विलासिता पूर्ण जीवन तथा अनियोजित, अनियंत्रित एवं अविवेकपूर्ण विकास के लिए पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के कारकों तथा प्राकृतिक संसाधनों का इस कदर दोहन एवं शोषण तथा उपभोग किया कि एक तरफ जहां प्राकृतिक संसाधन समाप्त होते जा रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के तत्व भी  विनष्ट होकर एवं प्रदूषित होकर हमारे लिए घोर संकट उत्पन्न कर रहे हैं और प्राकृतिक आपदाएं हमारे अस्तित्व को मिटाने पर ही तुली हुई हैं। साथ ही साथ ओजोन परत का क्षरण, तेजाबी बर्षा एवं ग्रीनहाउस प्रभाव जैसी भूमण्डलीय पर्यावरणीय समस्याओं ने तो पृथ्वी के अस्तित्व पर ही संकट ला खड़ा किया है।


     डा० पाठक ने बताया कि प्रश्न यह उठता है कि पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के लिए घातक मानव की इन गतिविधियों को रोका कैसे जाए ? सत्य तो यह है कि विकास कार्यों को पूर्णतः रोका नहीं जा सकता । कारण कि विकास प्रक्रिया भी आज के परिप्रेक्ष्य में अनिवार्य हो गया है। किन्तु यह विकास अपने देश में भारतीय परिवेश में होना चाहिए । हमें अपनी भारतीय संस्कृति एवं परम्पराओं की तरफ ध्यान देना होगा एवं पश्चिमीकरण के अंधाधुन्ध अनुकरण का त्याग करना होगा।  भारतीय संस्कृति एवं भारतीय वांगमय में पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी संरक्षण की विधाएं एवं संकल्पनाएं भरी पड़ी हैं। जब तक हम भारतीय परिवेश में जीते रहे हैं एवं विकास करते रहे हैं , तब तक हमें किसी भी प्रकार के संकट का सामना नहीं करना पड़ा , किन्तु जैसे- जैसे  भारतीय परिवेश पर पश्चीमीकरण हावी होता गया , हमारा न केवल भारतीय परिवेश असंतुलित होता गया , बल्कि सामाजिक  एवं सांस्कृतिक परिवेश भी प्रदूषित एवं विकृत होता जा रहा है, फलतः निरन्तर प्राकृतिक तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक संकट उत्पन्न होता जा रहा  है।

        यदि पर्यावरणीय, पारिस्थितिकीय, सामाजिक एवं सांस्कृतिक समस्याओं तथा संकटों से छुटकारा पाना है तो हमें अपने भारतीय संस्कृति की तरफ लौटना होगा और उसे पूर्णतः अपनाना होगा। हमारी संस्कृति अरण्य संस्कृति रही है और हम प्रकृति पूजक रहे हैं। यही कारण है कि हम भगवान की पूजा भी प्रकृति पूजा के रूप में करते हैं, क्योंकि भगवान में पाँच शब्द - भ= भगवान, ग= गगन, व= वायु, अ= अग्नि एवं न= नीर निहित है। अर्थात प्रकृति के पाँच मूल तत्व - क्षिति, जल, पावक, गगन  एवं समीर हैं।इन्हीं पाँच तत्वों की पूजा हम भगवान के रूप में करते हैं। इसके अतिरिक्त भी जितने महत्वपूर्ण प्राकृतिक तत्व हैं, भारतीय संस्कृति में उन्हें देवता स्वरूप मानकर उनके पूजा का विधान बनाया गया है। महत्वपूर्ण पेंड़- पौधों पर देवी- देवताओं का वास स्थान  माना गया है ताकि वृक्षों को कोई नष्ट न करें। साथ ही साथ जितने भी हिंसक एवं अहिंसक जीव- जन्तु हैं , सभी को देवी- देवताओं का वाहन बना दिया गया, ताकि उनको कोई मारे नहीं और इन वृक्षों तथा जीव जंतुओं का संरक्षण हैता रहे। इस तरह हम जीव- जंतु, पेड़- पौधों, जल स्रोत, ऊर्जा स्रोत( सूर्य ), वायु, आकाश, पाताल, अग्नि एवं पृथ्वी की पूजा कर पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी संरक्षण का ही कार्य करते हैं। पृथ्वी को तो माँ का स्थान दियि गया है , यथा- माता भूमिः पुत्रोहम पृथ्वियाः। यही नहीं हमारी परम्पराओं, लोकगीतों, लोकोक्तियों, लोक कहावतों में भी पर्यावरण संरक्षण की बातें भरी पड़ी हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि इन सभी तथ्यों को हम जाने, समझें , पहचानें एवं उन्हें अपने जीवन में उतारें तो निश्चित तौर पर हमें पर्यावरणीय एवं पारिस्थितिकीय  समस्याओं से उत्पन्न संकटों से छुटकारा प्राप्त हो सकता है।

     डा० पाठक ने बताया कि इस संगोष्ठी में प्रस्तुत सभी शोध पत्रों का पुसतकाकार रूप में प्रकाशन भी किया गया है जिसमें डा०गणेश पाठक का शोध पत्र " जनपद बलिया में आर्दभूमि विकास एवं संपोषित विकास " एवं डा० पाठक के साथ ही सह लेखन में डा० सुनील कुमार ओझा एवं डा० सुनील कुमार चतुर्वेदी का शोधपत्र " पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी संरक्षण हेतु जनान्दोलन एवं जनजागरूकता( भारत के विशेष संदर्भ में ) " प्रकाशित हुआ है, जिसकी संगोष्ठी में काफी प्रशंसा की गयी।