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'लवगुरु' मटुकनाथ के लिए अब भी आ रहे हैं ढेरों रिश्ते, जल्द करेंगे फिर ब्याह

 'लवगुरु' मटुकनाथ के लिए अब भी आ रहे हैं ढेरों रिश्ते, जल्द करेंगे फिर ब्याह



20 नवम्बर 2018 ।।

लोग अकसर पूछते हैं, आपको फर्क नहीं पड़ता कि लोग आपको कैसे देखते हैं? कि वे आपके बारे में क्‍या सोचते हैं?

मैं कहता हूं, फर्क इस बात से नहीं पड़ता कि लोग क्‍या सोचते हैं, फर्क इस बात से पड़ता है कि मैं अपने बारे में क्‍या सोचता हूं. मैं अपने आत्‍म को कैसे देखता हूं.

जिस दिन मैं नौकरी से रिटायर हुआ, उस दिन एक फेसबुक पोस्‍ट लिखी थी. वो कुछ यूं थी-

“मैं 65 वर्ष का लरिका हूं ! मेरी जवानी ने अभी अंगड़ाई ली है ! मेरे अंग-अंग से यौवन की उमंग छलक रही है ! जब मैं मस्त होकर तेज चलता हूं तो लोग नजर लगाते हैं ! दौड़ता हूं तो दांतों तले उंगली दबाते हैं ---
अब हम कैसे चलीं डगरिया
लोगवा नजर लगावेला!
मेरी खुशनसीबी कि इस चढ़ती जवानी में रिटायर हो रहा हूं! लोग पूछते हैं कि रिटायरमेंट के बाद क्या कीजिएगा? 
चढ़ती जवानी में जो किया जाता है, वही करूंगा!
मतलब ?
मतलब यह कि मैं ब्याह करूंगा! बरतुहार बहुत तंग कर रहे हैं ! उनकी आवाजाही बढ़ गई है! लेकिन मैं एक अनुशासित, शर्मीला और परंपरा प्रेमी लरिका हूं! इसलिए खुद बरतुहार से बात नहीं करता हूं. उन्हें गार्जियन के पास भेज देता हूं. मेरे विद्यार्थी ही मेरे गार्जियन हैं. वे जो तय कर देंगे, आंख मूंदकर मानूंगा. उनसे बड़ा हितैषी मेरा कोई नहीं हो सकता. 
विदा हुआ वह मटुकनाथ जो योजना बनाता था और उसे पूरा करने में लहू सुखाता था. अब हम केवल मस्ती करेगा. सबसे पहले हम ब्याह करेगा. इसलिए आप लोगों का दायित्व है कि एक सुटेबल कन्या से मेरा ब्याह कराइये, फिर मेरी चाल देखिए.”


इस पोस्‍ट को लेकर लोगों ने काफी मजाक बनाया. लोगों की टिप्‍पणियों से लेकर इनबॉक्‍स में उनके मैसेजेज तक उपहास से भरे हुए थे.

लोग कहते हैं, इस उम्र में शादी क्‍यों.

बात असल में यह है कि बात शादी की है ही नहीं. बात है प्रेम की. मैंने शादी शब्‍द का प्रयोग इसलिए किया क्‍योंकि लोग शादी समझते हैं, प्रेम नहीं समझते. स्‍त्री-पुरुष के हर संबंध की परिणति, हर प्रेम की परिणति वो शादी में ही होते देखना चाहते हैं. जब मैंने प्रेम किया था, तब भी लोगों ने इसे शादी ही कहा. मैं और जूली लगातार खंडन करते रहे कि हमने शादी नहीं की है, हम पति-पत्‍नी नहीं, मित्र हैं. लेकिन लोग मानने को तैयार नहीं हुए. मीडिया भी लगातार हमारे संबंध को शादी के खांचे में डालकर, शादी के आवरण में लपेटकर ही पेश करता रहा.

यही तो चलन है इस समाज का. उसे प्रेम, मैत्री, संग, साथ, कुछ समझ नहीं आता. समझ आती है तो सिर्फ शादी. चाहे वह शादी कितनी ही दुखदायी क्‍यों न हो. साथ रहने की पीड़ा कितनी भी गहरी क्‍यों न हो. इस समाज में शादी से कोई भी खुश नहीं है, लेकिन इस शादी के बाहर निकलने का भी कोई रास्‍ता नहीं है. वो विवश हैं और अपनी विवशता को परंपरा और संस्‍कार का नाम देते हैं.


मेरे साथ ऐसी कोई मजबूरी नहीं है. मैं उन सारी विवशताओं से ऊपर उठ चुका हूं, हालांकि जीवन के अनेक वर्ष मैं उस विवशता को ढोते हुए और उस पीड़ा को सहते हुए गुजारे.

जूली और मेरा प्रेम
इस प्रेम को संसार वैसे ही और उतना ही जानता है, जितना मीडिया ने उन्‍हें दिखाया. हम कभी नहीं चाहते थे कि संसार हमारे प्रेम में भागी बने. प्रेम तो व्‍यक्तियों के बीच का नितांत निजी और पवित्र अनुभव है. उसमें मीडिया का, समाज का क्‍या काम. लेकिन शादी एक सामाजिक व्‍यवहार है. अगर प्रेम में पड़ा कोई भी एक पक्ष शादी की जंजीरों में जकड़ा हुआ है तो पूरे समाज को उसमें हस्‍तक्षेप करना, उस शादी को बचाना अपना नैतिक दायित्‍व लगने लगता है. हमारे साथ यही हुआ. पूरा संसार मानो उस रिश्‍ते में पक्षकार बन बैठा हो. हमारी निजता, हमारा सुकून जाता रहा.

संसार की इन सारे हमलों को झेलकर, उनसे लड़कर हम जो बाहर निकले तो बहुत थक चुके थे. फिर भी हमारा प्रेम अपनी सुंदरता को बचा लेने में कामयाब रहा.

लेकिन फिर वक्‍त गुजरा और जूली को संसार से वैराग्‍य हो गया.

याद करिए न्‍यूज चैनलों अखबारों की हेडलाइन, अखबारों की वो टिप्‍पणियां, प्रेमिका के लिए पत्‍नी को छोड़ा और अब प्रेमिका भी नहीं है साथ में.


यह कितनी उथली बात है, कितनी गरिमाहीन. संसार में कौन जानता है कि मेरे और जूली के साथ क्‍या हुआ. इसे छोड़ना नहीं कहते. जो समाज रिश्‍तों को सिर्फ जकड़ने और ठुकराने की भाषा में ही समझता हो, उसे कभी समझ नहीं आएगा कि इसके परे भी कुछ मुमकिन है. जहां न बंधन है, न परित्‍याग.

जूली की आत्‍मा हमेशा ही कुछ और तलाश रही थी. प्रेम में संतुष्टि नहीं मिली तो उन्‍होंने ईश्‍वर का दरवाजा खटखटाया. वो उस आत्मिक शांति की तलाश में मथुरा, वृंदावन, काशी, पुणे कहां-कहां नहीं भटकी. बीच-बीच में वहां से लौटकर आती तो कुछ समय मेरे पास रहती. लेकिन हर बार एक नई पीड़ा में घिरी हुई. उनका आत्‍म कुछ और तलाश रहा था, उसे संसार में मुक्ति नहीं मिल सकती थी.

एक और चीज हुई थी हमारे बीच, जिसे अकसर प्रेमी समझ नहीं पाते. प्रेम की डोर बड़ी नाजुक होती है. इसे बड़ी कोमलता और बड़े संतुलन से सहेजने की जरूरत है. प्रेम को मिलन और वियोग का संतुलन चाहिए. विरह प्रेम की अग्नि है तो मिलन उसे अग्नि को शांत करने वाला जल. दोनों जरूरी है. जिस प्रेम में विरह न हो, वियोग न हो, वो प्रेम नष्‍ट हो जाता है. कभी अतिशय वियोग प्रेम को खत्‍म कर देता है तो कभी अतिशय मिलन भी. स्‍थाई रूप से साथ रहने पर रोमांस खत्‍म हो जाता है.

हम वह संतुलन शायद बना नहीं पाए और प्रेम की नाजुक डोर चटक गई.

आज भी कभी-कभी हमारी बात होती है. वो कहती हैं, आपको कभी भी जरूरत है, बस मुझे एक बार आवाज लगाइएगा, मैं आ जाऊंगी.



(साभार न्यूज18)