सरकारों की लापरवाही से असम का टाइम बम बना एनआरसी

- गुवाहाटी 30 जुलाई 2018 ।।
(रितुपर्णा भुयान)
करीब एक साल से, खासकर दिसंबर 2016 से जब राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर का पहला मसौदा जारी किया गया था तब से इस मुद्दे पर देश-दुनिया की मीडिया, सिविल सोसायटी और मानवाधिकारों के लिए संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त की तरफ से खासी दिलचस्पी दिखाई गई है ।
करीब एक साल से, खासकर दिसंबर 2016 से जब राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर का पहला मसौदा जारी किया गया था तब से इस मुद्दे पर देश-दुनिया की मीडिया, सिविल सोसायटी और मानवाधिकारों के लिए संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त की तरफ से खासी दिलचस्पी दिखाई गई है ।
लोग अपने हिसाब से इस मुद्दे का आंकलन करते रहे लेकिन यह साफ है कि इससे उस प्रक्रिया को धक्का लगा है जो 33 साल पहले शुरू हुई थी. 14 अगस्त 1985 की मध्यरात्रि को असम के लोगों को लगा कि वह उनकी नियति के साथ उनकी मुलाकात थी. उस आधी रात को ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन, असम सरकार और उस वक्त की राजीव गांधी सरकार के बीच हुई संधि के साथ ही बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासियों के खिलाफ 5 साल से जारी आंदोलन खत्म हुआ था ।
हालांकि यह एक ऐसा प्रयास था जिसे नहीं होना था. राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर का आखिरी मसौदा 31 जुलाई की मध्य रात्रि को प्रकाशित किया जाएगा. यह एक ऐसा कदम साबित होगा जो कई मायनों में विवादों को जन्म देने वाला है.
मैं इसी राज्य में पैदा और बड़ा हुआ हूं. इस नाते मैं NRC को लंबे समय से उपेक्षित समस्या के जवाब के रूप देख रहा हूं. एक ऐसी समस्या जिसे कमजोर नीति निर्माताओं और नेताओं ने बदतर बना दिया. असम गण परिषद (असम आंदोलन के नेताओं की पार्टी) दो बार सत्ता में रही लेकिन वह एनआरसी को अपडेट करने की पहल करने में असफल रही. साल 2005 में कांग्रेस सरकार ने आधे मन से इसे शुरू किया. हालांकि अवैध प्रवासियों से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने इस रजिस्टर के अपडेशन के लिये समयसीमा निर्धारित की. तब इस पर काम तेजी से शुरू हुआ.
यह जरूरी है कि रजिस्टर को अपडेट करने की प्रक्रिया पूरी होनी चाहिए लेकिन यह कहना आसान है और करना मुश्किल.
एक नजर असम समझौते पर डालते हैं जो NRC अपडेशन का आधार है. अवैध प्रवासियों के लिए समझौते में 3D है- डिटेक्शन (पता लगाना), डिलीशन (नाम हटाना) और डिपोर्टेशन (वापस भेजना).
एनआरसी का अपडेशन असम में अवैध अप्रवासियों का पता लगाने की प्रक्रिया है. असम में प्रवेश करने और रहने वाले किसी भी शख्स को जिसके पास वैध प्रवेश पत्र नहीं है उसे रजिस्टर में शामिल नहीं किया जाएगा.ऐसे में उनकी भारतीय नागरिकता रद्द हो जाएगी ।भारत के अन्य सभी हिस्सों में, भारतीय नागरिकता के लिए कट ऑफ डेट 19 जुलाई, 1948 है ।
अवैध विदेशियों का पता लगाने की प्रक्रिया विशेष अदालतों (फॉरेन ट्रिब्यूनल) के माध्यम से भी की गई हैं । ये अदालतें कथित अवैध अप्रवासियों के खिलाफ शिकायतों पर सुनवाई करती हैं. ट्रिब्यूनल ने कई गलतियां की जिससे उसपर पूर्वाग्रह के आरोप भी लगे ।
एनआरसी अपडेट करने की प्रक्रिया की निष्पक्षता पर प्रश्न उठाए जा रहे हैं क्योंकि नए ग्राउंड नियमों को प्रक्रिया के बीच में जोड़ा गया है. यह तय है कि किसी भी सरकारी स्कीम को लागू करने में कोई न कोई दिक्कत आती है । हालांकि, नागरिकता के राष्ट्रीय रजिस्टर की निष्पक्षता पर गंभीर संदेह मतलब है कि यह पूरी प्रक्रिया अपनी विश्वसनीयता खो देगी । इससे ऐसी समस्याएं पैदा होंगी जिनसे निपटना काफी मुश्किल होगा । 1985 के असम समझौते में यह साफ है कि इस रजिस्टर में किसी भी वास्तविक भारतीय का नाम छूटना नहीं चाहिए ।
अब सीधे तीसरे D यानी डिपोर्टेशन पर आते हैं. असम समझौते के तहत 25 मार्च 1971 के बाद अवैध रूप से बांग्लादेश से असम आने वाले अवैध विदेशियों को उनके देश वापस भेजना ।
हमें यह समझना होगा कि यह असंभव है ।यह समझना होगा कि यह असंभव है । असम आंदोलन से यह सुझाव था कि निर्वासन एक समाधान है, छात्र नेताओं ने यह नहीं समझा कि यह भारत और बांग्लादेश के बीच द्विपक्षीय समझौते पर निर्भर है ।
जून में एनआरसी पर आयोजित एक संगोष्ठी में (जिसमें इस लेखक ने भी हिस्सा लिया था) पूर्व गृह सचिव गोपाल कृष्ण पिल्लई ने बताया था कि बांग्लादेश के साथ कई बैठकों में भारत ने वैध कागजात के बिना भारत में रह रहे विदेशियों के निर्वासन का मुद्दा उठाया था और पड़ोसी देश ने हर बार इसे खारिज कर दिया था ।
तो उन लोगों के साथ क्या होगा जिनके नाम रजिस्टर में शामिल नहीं होंगे? इस सवाल ने राज्य में लाखों लोगों को परेशान कर दिया है. वहीं इसके बाद क्या होगा इसे लेकर सरकार ने कुछ भी साफ नहीं किया है ।
अनुमान है कि 50 हजार से 40 लाख लोगों को एनआरसी से बाहर निकाला जा सकता है ।क्या इतनी बड़ी संख्या में लोगों को हिरासत शिविरों में भेजा जाएगा? फिलहाल यहां छह डिटेंशन कैंप हैं जिनकी स्थिति बेहद खराब है । क्या बच्चों को मां से अलग कर दिया जाएगा? क्या घर के बुजुर्गों को अपनी बाकी की जिन्दगी सीखचों के पीछे बितानी होगी? यह कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसा कोई भी कदम मानवाधिकार के बड़े संकट खड़े कर देगा ।
फिर भी एक को तो कड़वी गोली निगलनी है और यह सुनिश्चित करना है कि एक बार सफाई प्रक्रिया पूरी हो जाए. असम में अवैध अप्रवासन एक बड़ी समस्या है और इसे छिपाया नहीं जा सकता है. हालांकि कुछ लोग इस पूरे मामले को साम्प्रदायिक रंग देकर और भी खराब करने की कोशिश कर रहे हैं ।
एक वर्ग का आरोप है कि इस प्रक्रिया के जरिए केवल बंगाली बोलने वाले मुस्लिमों को निशाना बनाया जा रहा है । स्पष्ट रूप से वे इस तथ्य को अनदेखा कर रहे हैं कि बांग्लादेश से अवैध आप्रवासियों का एक बड़ा हिस्सा बंगाली बोलने वाले मुस्लिम ही हैं. उन्होंने इस तथ्य को भी नजरअंदाज कर दिया है कि बंगाली भाषी हिंदुओं की एक बड़ी संख्या भी जांच में घेरे हैं और अपडेटेड एनआरसी में उनके नाम नहीं रहेंगे ।
केंद्र में मौजूदा सत्तारूढ़ बीजेपी ने पड़ोसी देशों में अल्पसंख्यकों की भारतीय नागरिकता को सुविधाजनक बनाने के लिए एक बिल पेश करने का प्रस्ताव देकर जटिलता को और बढ़ा दिया है । इसका मतलब है कि असम में रहने वाले बंगाली बोलने वाले हिंदू अवैध आप्रवासी अपनी नागरिकता बचा सकेंगे । दिल्ली में सत्ता के गलियारों में खबर है कि बंगाली भाषी हिंदुओं को दीर्घकालिक वीजा देने की योजना है ।
इस विधेयक ने मुख्य रूप से असमिया बोलने वाले ब्रह्मपुत्र घाटी और बंगाली बोलने वाली बराक घाटी के बीच एक ध्रुवीकरण पैदा कर दिया है. इसमें कचर, हेलकंदी और करीमगंज के तीन जिले शामिल हैं. ब्रह्मपुत्र घाटी में विधेयक के खिलाफ व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए थे ।
अब हम दूसरे D यानी डिलीशन की बात करते हैं । असम समझौते के अनुसार मतदाताओं की सूची से अवैध अप्रवासियों के नाम हटाए जाने चाहिए. एक स्थापित प्रक्रिया के माध्यम से अवैध अप्रवासियों के मतदान अधिकारों को दूर करना किसी भी लोकतंत्र में एक तार्किक कदम है ।
इस जुलाई की शुरुआत में वेब न्यूज पोर्टल वायर के एक इंटरव्यू में पूर्व डीआईजी हिरण्य कुमार भट्टाचार्य ने कहा कि असम निर्वासन के संबंध में चूक हो गई थी । यह शब्द उस शख्स ने कहे जिसने सबसे पहले मंगलदाई में अवैध मतदाताओं का मुद्दा उठाया था, जिससे असम में विवाद की शुरुआत हुई ।
मेघालय के मुख्यमंत्री कॉनराड संगमा समेत कई विशेषज्ञों ने एक स्थायी समाधान के रूप में उन लोगों को विशेष वर्क परमिट देने का प्रस्ताव दिया है जिनके नाम इस रजिस्टर में नहीं हैं ।
30 जुलाई को, जब असम सरकार अपडेटेड एनआरसी के साथ आएगी तो इससे एक और यात्रा की शुरुआत होगी, जो जल्द ही खत्म नहीं होगी.
ऐसा इसलिए है क्योंकि दावों और अपील की प्रक्रिया होगी- जिसके माध्यम से बाहर छोड़े गए लोगों को यह साबित करने के लिए दस्तावेज दिखाने का एक और मौका दिया जाएगा कि वे या उनके पूर्वज 1971 की कट ऑफ तारीख से पहले भारतीय नागरिक थे. जाहिर है, जो लोग बाहर रखे गए है वे अदालत भी जाएंगे ।
कई ऐसे मामले सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में चल रहे हैं. असम सम्मिलिता महासंघ की ओर से दायर की गई एक याचिका में यह मांग की गई है कि 25 मार्च 1971 की कट ऑफ डेट को 1951 किया जाए जो सभी राज्यों के लिए लागू है. अगर संवैधानिक बेंच इस याचिका पर राजी हो जाती है तो पूरी NRC की प्रक्रिया फिर से होगी ।
जो भी हो, दोनों घाटियों से असम के लोगों को इस अनुभव से बहुत कुछ सीखना है. राज्य के लोगों को यह समझना चाहिए कि उनकी सबसे बड़ी ताकत विविधता है ।
(साभार न्यूज 18)
सरकारों की लापरवाही से असम का टाइम बम बना एनआरसी
Reviewed by बलिया एक्सप्रेस
on
July 30, 2018
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