आधुनिक पत्रकारिता पर प्रहार करता लेख :तुमसे बड़ी है, मेरी पूंछ ?
बलिया।। लिखना आजकल फैशन है, लिखने के लिये पढने की जरूरत नहीं होती है। मैं मैट्रिक पास होने के बाद लिखने लगा और संवाददाता बन गया। संवाददाता बनने के लिये मैंने शहर के तीन-चार बडे पत्रकार जिनकी बड़ी पूंछ थी, उनकी पूंछ खूब सहलायी और मैं पूंछ वाला बन गया। मैं सन 1986 से पत्रकार हॅू और मेरे मिलने वाले सभी इधर-उधर खूब थूक उडाते कहते है कि इतने सालों में आपकेे लिखने का अन्दाज निराला हो गया है और आपकी लेखनी का कोई तोड नहीं है। बस यही बात मुझे गुदगुदाती है और मैं स्वयं की जड़ें परिपक्व लेखन में जम चुकी मानकर अपने आप को दुनिया का एक बड़ा नामचीन पूंछ वाला समझने लगा हॅू। अचानक जिला जनसम्पर्क अधिकारी ने मोबाइल लगाकर पूछा, आप किस अखबार के पत्रकार हो, तुम्हारी खबरें कहॉ किस जगह छपती है, मैंने आज तक पढ़ी नही, मैं अवाक, आश्चर्य से भरा कि रोज खबरों की लिंक उन्हें व्हाट्सएप पर पोस्ट कर रहा हॅू, जो सैकड़ों खबरों में गुम सी हो जाती है, से मायूस हुआ सोचने को विवश था कि अब तक मैंने जो अपना कैरियर बनाया वह मेरे अहंकार के साथ ताश के पत्तों सा चकनाचूर हो गया। विनम्रता से मैंने अधिकारी महोदय से कहॉ इनते वर्षो में अचानक मेरी कौन सी भूमिका या ऊँटपटांग- लटके अथवा झटकेदार बात से आप जागरूक हुये, जो यह वैधानिक ज्ञान का प्रश्न कर रहे है। हर साल मेरे संपादक आप को पत्र लिखकर सूचना देते है जिसकी खबर आप रखते हो, मेरी ही नही सभी की रखते हो, अगर मेरे विषय में आप संदेह से भरे प्रश्न कर रहे है तो क्या मेरे संपादक वर्षो से गलत है, या मैं फर्जी पत्रकार हॅू । नहीं तो क्या कारण है आपके मस्तिष्क में चाचा चौधरी सी स्पूर्ति और चेतना इतने विलंब से स्वयं चेती या किसी ने चेतायी ।अलवत्ता संपादक महोदय से चर्चा उपरांत उन्होंने मुझे पत्रकार होने का प्रमाणपत्र जारी कर ब्यूरो चीफ मान लिया । पर उनका प्रश्न सिस्टम के मुंह पर तमाचा है जो उसमें आलोचकों का गिंजाई यों की तरह घुसपैठ कर चुका है, जिसमें मेरी पूंछ का गुमान टूटने पर मुझे मेरे पत्रकार होने का सबूत देने यहाँ प्रयोगवादी होना पडा, खैर वे अनुभवहीन अधिकारी जिले की तहसीलों के पत्रकारों को पत्रकार नही मानते और उनका रिकार्ड नहीं रखते फिर संभागीय मुख्यालय के मुझ दीनहीन के साथ उनका यह व्यवहार ने मुझे नहीं कुचेटा।
यह सर्वविदित है की ये अधिकारी महोदय द्वारा सारा आफिस व्हाट्सएप पर चलाया जा रहा है, उसी पर खबर भेजना, सूचना भेजना, सहित ईमेल का इस्तेमाल किया जाता है, जिसका रिकार्ड वे संधारित करते है, पत्रकार इन्हें खबरे मेल नहीं करता, उन्हीं की तर्ज पर व्हाट्सएप करता है । सरकार के पास प्रतिदिन अखबारों को जनसम्पर्क आफिस में खरीद का भुगतान करने की व्यवस्था पर पत्रकार अनभिज्ञ है, इसी कारण जिन्हें भुगतान होता है वे ही अखबार उनके कार्यालय मं भेजते है, बिना अनुमति भुगतान के उनके कार्यालय में दर्जनों अखबार नहीं पहुँचते है इन्हीं बातों की अकड लिये एजेंसी या चैनलों की लिंक का रिकॉर्ड व्हाट्सएप पर भेजा जाता है, अगर वे नहीं देख सके, तो किसी पर गल्ती आरोपित तो नहीं कर सकते । मुझसे सबूत मांगे जाने का प्रयोग कुछ कनफटे स्वयंभूओं की खोज थी जिसमें वे सभी पूंछ वाले जो मेरी कतार में मुझसे ऊॅचे और बडे है, उनको भी टारगेट बनाकर उनकी भी पूंछ काटने-कटवाने की भूमिका बनायी गयी, ताकि वे पढे लिखे देहाती गॅवारों के शहरी होने पर उनकी उपासना और स्तुति कर सके। जिनकी अपनी कोई पूंछ नहीं है और दूसरों की पूंछ पचती नहीं और वे उनकी पूंछ पर पैर रखना चाहते है, वास्तव में वे सभी पूंछ के बीमार है जिनमें कुछ कवारे कुछ एक दम नये विवाहिता, तो कुछ पुराने पत्नी पीडित तो कुछ लटके-झटके उचक्के वाजों की गिनती में लोग उन्हें करते है,जिन्हें दुनिया के सामने अपनी बडी पूंछ दिखाने का भूत सवार है, इसके लिए वे उतना पसीना बहाते भी है। मेरी अपनी पूंछ सहित जो ऊॅची पुरानी पूंछों के धनी है, उनका गुमान भी इन्हें कचोटता है, और वे सब मिलकर हमारी पूंछ काटने के लिये हर संभव प्रयास कर चुके है, कर रहे है, करते रहेंगे।
मेरी ही नहीं दुनिया भर के सभी पतियों की पत्नियां बहुत समझदार, जागरूक और सतर्क होती है ताकि वे अपने पति की कमजोरी तलाशने में दिनरात कोई मौका नहीं गॅवाना चाहती है। ताकि वे पतियों के पूंछ की बराबरी कर सके, या काटकर अपनी योग्यता साबित कर सके। पत्नियां यह सब अपने मायके व ससुराल में धाक जमा कर अपने साज-संवार वाले सारे शौक और अपनी निजी जरूरतों के लिये ही पतियों की पूंछ से ज्यादा अपनी पूंछ रखना चाहती है जबकि इसका उद्देश्य अपने पति का सम्मान बरकरार रख उन की पूंछ कम तर कर अपनी पूंछ बढाना है। अपने बाबत मैं मेरी पत्नी का एक उदाहरण पेश कर रहा हॅू, मेरी पत्नी चाक-कलम, काजल की सींक आदि को कलम के रूप में इस्तेमाल कर मुझसे लोहा मनवाने का पक्का गणित जानती है। सच में देखा जाये तो वह पक्कीे गणितज्ञ है जो अपने स्वंय के अधिकार पाने की मंशा से अपनी फरमाइश पूरी कराती है। जब मेरी शादी हुई, तब से मेरे व्यक्तित्व में नया मोड आया और जो मैं कागजों पर लिखा करता था, वह जिम्मेदारी मेरी पत्नी ने मेरे घर में कदम रखते ही अपने कन्धों पर ले ली। सुबह विवाह हुआ, दोपहर से उन्होंने खर्चा लिखना शुरू किया, तब से वे आज तक मेरे घर की पुरानी शीड वाली दीवारों पर हर महीने रसोई-गैस टंकी, सब्जी-भाजी का पूरा खर्च, दूध, बिजली, पेट्रोल खर्च, मोबाईल- टीवी रिचार्ज, कम्प्युटर प्रिंटर आदि का खर्चा लिखकर मेरी फिजूलखर्ची रोक रही है। मैं उन दीवारों पर लिखे हिसाब को आज तक नहीं पढ पाया और जब भी देखता हॅू तो किसी प्रागैतिहासिक गुफा या पहाड़ पर आदिमानव के अंकित आकृतियॉ जैसा लगता है, पर मेरी पत्नी की उकेरी वे लकीरों के किये जा रहे गणित के हिसाब से में आतंकित सा आत्मसमर्पण कर देता हूं।
मुझे खुद पर गुमान है कि मैं पूंछ वाला हॅू पर पत्नी के सामने समर्पित हॅू, हाँ मेरे आस पास कुछेक और गिनती के लोग इन बातों की डींगें मारते है ओर लोगों के जेहन को खाद बीज देकर हरा-भरा करते है, उनके दिमाग की खरपतवार को आग लगाते है, वे भी बड़े पूंछ वाले है, अलबत्ता मैं उनकी पूंछ से अपनी पूंछ की तुलना न्यूनतम पूंछ वालों में करता हॅू। बडे-बूढे कह गये है कि भेड-बकरियों की संगत में आदमी खुद भेड़ बकरी हो जाता है और खुद फूला नहीं समाता है क्योंकि उसकी पकड में भेड बकरियों के पोंचे होने से वह खुद को पहुंचा हुआ व्यक्ति समझता है। जिला जनसम्पर्क अधिकारी को मेरी पूंछ नहीं दिखी, वैसे ही उन्हें जो ज्यादा पूंछवाले या बडी पूंछवाले है उनकी पूंछ भी नहीं दिखी इसलिये वे उन सभी पत्रकारों से पूछने लगे कि तुम्हें जिन अखबारों-चैनलों ने पूंछ दी है, उसका सबूत दो। क्या पता, क्यों यह अधिकारी महोदय किसके दबाव में लोगों की पूंछ देखने निकले है, जबकि उन की पूंछ भी हम पत्रकारों के कारण है जो जरा सा टेडी करले तो इनकी पूंछ ही नहीं रहेगी। कारण जो भी हो पर मेरा गर्व चूर-चूर हो गया और लिखते-लिखते मेरी खून की कमी से उँगलियाँ झुकने लगी थी, वे इस जवाब को सह न सकी हालॉकि यह मैं अकेला नहीं था, जिनसे प्रश्न किया और भी कई ऐसे वरिष्ठं पत्रकार थे जिनसे प्रश्न किया और उन्हें प्रमाणपत्र नहीं मिला और इसके बलबूते वे अधिमान्यता से वंचित हुये।
स्मरण रखना चाहिये इतिहास जिनका बनता है, उनके कंधे पर बड़ी जिम्मेदारी होती है। पूंछ भी दो प्रकार की है, एक पूंछ इंसान की मानी है, जिसमें उसके अच्छे- बुरे कामों की सभी जगह पूछ-परख होती है, यह पूछपरख उसे घर-परिवार, समाज, देश सभी जगह सम्मान दिलाती है। दूसरी पूंछ शेर, गाय, बन्दर सहित अनेक अनेक जानवरों की होती है और पालतू कुत्ते की भी होती है। जिनका जानवरों से संबंध होता है वे पालतू कुत्तों को और उसकी पूंछ के महत्व को समझते है। कुत्ते की पूंछ को दुम भी कहा गया है, दुम इसलिए कि वह अनेक गुणी है जिसमें एक गुण उसका हमेशा टेढ़ा होना है, दूसरा कुत्ता जब भी अपनी दुम को पकडना चाहे तो उसे गोल गोल घूमना होता है, तीसरा जब भी कोई उसे कुछ खिलाये तब उसकी दुम का निरंतर हिलना, चौथे ताकतवर के सामने दुम दबाना और पांचवा जो उससे कमजोर हो उसके सामने अकड कर गुर्राना। वे लोग जो अपना शहर नहीं घूमे, जिला नहीं देखा, उसकी भौगोलिक राजनीतिक स्थिति-परिस्थितियों का ज्ञान नहीं वे अगर शौचालयों, बेडरूमो में बैठकर मोबाइल पर फैले कचरे को उठाकर अपनी कलम चला अपनी पूंछ साबित करें, कोई खबर प्रेस नोट से, कोई भाईचारे से, कोई कॉपी-पेस्ट से लिखे तो समझदार कहेंगे कि ये तो खबरों का गला घोंटना है, पर क्या कीजियेगा जब उनकी यही शैली जिसमें सत्ता की चरण वंदना , पाद तालुका उवाच से वे सर्वसुरक्षित कवच पाकर सर्वाधिकार और सर्व प्रतिष्ठित हो गये, उनकी हर एक जगह इसी छिपे गुण से पूंछ परख है, उनकी पूंछ भी पूंछ है, जिसका मुकाबला दूसरे की पूंछ नहीं कर सकती है, बशर्ते कोई इस दुखती दुम पर पैर न रखे।
दुम के बताये ये सभी गुण यहाँ अनेकों में दृश्यमान किये जा सकते है दुम अर्थात पूंछ की बात चल रही है, तो बताये देता हॅू कि कुछ ज्यादा समझदार लोग कुत्ते को पालने से पहले उसकी दुम काटकर उसे दुम कटा कर देते है, ताकि न उसके डॉगी की दुम होगी और न दुम की बात होगी । अधिकारी और पूंछ वालों की जुगलबंदी से उत्पन्न दुम की ऐंठन मैंने देखी,यह बात मेरे शहर की है, आपके शहर की भी हो सकती है। ज्यादतियां सभी जगह सभी के साथ होती है, कोई छुपाता है, कोई छपाता है और मुझ जैसा व्यक्ति सभी तरह की रिस्के उठाकर इस बीमारी को समझकर उसका इलाज चाहता है, जैसे बीमारी पता होने पर डॉक्टर उसका इलाज करता है, मैं इसका इलाज चाहता हॅू। मैं चाहता हॅू कि अब भविष्य में ऐसे कनखडे अधिकारी न हो जो कानों में रात गये गीदडों के समूह की आवाज ‘’हूं-हां’’ को सुने तो अपने शब्दकोशीय ज्ञान में इसे समारोह का नाम न दे, जैसा कि हाल ही में गीदड की ‘’हॅूं हॉं’’ को ‘’हॅू हॉ’’ की स्वीकारोक्ति देकर वे जंगली जानवर बनने की बीमारी में खुद को शामिल कर बैठे। मैं इसे एक झुंझलाहट मानता हॅू अधिकारी जब भी कुर्सी पर बैठे तो उसे पहले अपनी आंखों का मैल निकालना चाहिये। कोई कान में आकर कहे कि अगडम, बगडम, सगडम, तगडम तो इसका अर्थ समझना होगा, जिम्मेदारी जाननी होगी, कि ऐसा उच्चारण करने वालों का भूत और वर्तमान क्या है, अगर उनकी हां में हॉ मिलाये तो अपना भविष्य क्या होगा तथा उसके दूरगामी परिणाम क्यों होगें, यह भी समझना होगा तभी निष्पक्षता के साथ शुचिता स्थापित की जा सकेगी।
आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार
श्रीजगन्नाथ धाम काली मंदिर के पीछे ग्वालटोली
नर्मदापुरम मध्यप्रदेश मोबाईल 9993376616


