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संदेश देती कहानी : अपनी पहचान और अस्मिता खो कर जीने से अच्छा है संघर्ष करके मरना

 


मधुसूदन सिंह 

बलिया।। आजकल देश मे लोग अपनी बुद्धि से ज्यादे दूसरों की सलाह को ज्यादे तवज्जो दे रहें है। आज कोई कह दे कि आपका कान कौवा लेकर भाग रहा है तो लोग अपना कान नही देखते है बल्कि कौवे की खोज मे निकल जाते है। जबकि अगर बुद्धि का प्रयोग करते तो कौवे के पीछे भागना ही नही पड़ता। आज लोग अपनी पहचान व अस्मिता को भूल चुके है। कोई नेता अगर कह दे रहा है कि हमारा समाज खतरें मे है तो लोग बिना स्व चिंतन के मान ले रहे है कि खतरा है। हड़प्पा मोहनजोदड़ो की खुदाई से नफ़रत के बीज निकाल कर समाज को फिर से उसी पुरानी अवस्था मे ले जाना चाह रहे है और हम 21 सदी से पहली सदी को वापस जाने को तैयार है। यह सब इस लिये हो रहा है क्योंकि 21 वी सदी का भी नौजवान AI तो चला रहा है लेकिन बुद्धि नही। आज देश को सबसे ज्यादे नौजवानों के बेरोजगार हाथों को काम देना है, महंगाई से लोगों के घरों के चूल्हे की बुझ रही आग को जलाये रखने की है, देश मे बदहाल किसानों को सहारा देना है लेकिन इसके ठीक उलट हम काम कर रहे है।

जब भारत सरकार हो या राज्य सरकारें हो, कर्मचारियों के लिये काम करने की एक निश्चित उम्र निर्धारित कर रखी है, तो राजनीति मे क्यों नही? अगर कर्मचारी एक निश्चित आयु मे अपनी कार्यक्षमता खो देता है जबकि उसके पास सीमित काम होता है तो फिर देश की, राज्य की तकदीर बनाने की सोच रखने वाले नेताओं के लिये यह नियम क्यों नहीं? अगर नौकरी करने के लिये युवा योग्य होते है तो उनको राजनीति मे क्यों नही प्रवेश देने के लिये वरिष्ठ नेता अपने आप को स्वैच्छिक रूप से रिटायर होने की घोषणा कर रहे है? अब समय आ गया है कि नौजवानों को अपना हक अपने वोट के अधिकार से लेना होगा क्योंकि राजनेता तो सिर्फ अपना पिछलग्गू बनाने की ही युक्ति पर काम कर रहे है। जब तक हिंदुस्तान की राजनीति मे युवाओं का बहुमत नही होगा, बेरोजगारी दूर नहीं होंगी।युवाओं को अपनी पहचान व अस्मिता को जानने के लिये इस छोटी सी कहानी को जरूर पढ़ना चाहिये.....


एक आदमी एक मुर्गा खरीद कर लाया। एक दिन वह मुर्गे को मारना चाहता था, इसलिए उस ने मुर्गे को मारने का बहाना सोचा और मुर्गे से कहा, "तुम कल से बाँग नहीं दोगे, नहीं तो मै तुम्हें मार डालूँगा।" 


मुर्गे ने कहा, "ठीक है, सर, जो भी आप चाहते हैं, वैसा ही होगा !"

सुबह , जैसे ही मुर्गे के बाँग का समय हुआ, मालिक ने देखा कि मुर्गा बाँग नहीं दे रहा है, लेकिन हमेशा की तरह, अपने पंख फड़फड़ा रहा है। 


मालिक ने अगला आदेश जारी किया कि कल से तुम अपने पंख भी नहीं फड़फड़ाओगे, नहीं तो मैं वध कर दूँगा।


 अगली सुबह, बाँग के समय, मुर्गे ने आज्ञा का पालन करते हुए अपने पंख नहीं फड़फड़ाए, लेकिन आदत से, मजबूर था, अपनी गर्दन को लंबा किया और उसे उठाया। 


मालिक ने परेशान होकर अगला आदेश जारी कर दिया कि कल से गर्दन भी नहीं हिलनी चाहिए। अगले दिन मुर्गा चुपचाप मुर्गी बनकर सहमा रहा और कुछ नहीं किया। 


मालिक ने सोचा ये तो बात नहीं बनी, इस बार मालिक ने भी कुछ ऐसा सोचा जो वास्तव में मुर्गे के लिए नामुमकिन था।


मालिक ने कहा कि कल से तुम्हें अंडे देने होंगे नहीं तो मै तेरा वध कर दूँगा।


अब मुर्गे को अपनी मौत साफ दिखाई देने लगी और वह बहुत रोया।

मालिक ने पूछा, "क्या बात है?"

मौत के डर से रो रहे हो?

मुर्गे का जवाब बहुत सुंदर और सार्थक था।


 मुर्गा कहने लगा:

"नहीं, मै इसलिए रो रहा हूँ कि, अंडे न देने पर मरने से बेहतर है बाँग देकर मरता...

बाँग मेरी पहचान और अस्मिता थी ,

मैंने सब कुछ त्याग दिया और तुम्हारी हर बात मानी , लेकिन जिसका इरादा ही मारने का हो तो उसके आगे समर्पण नहीं संघर्ष करने से ही जान बचाई जा सकती है, जो मैं नहीं कर सका..."


अपने अस्तित्व, अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष करना पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए...!!

मैं यहां मुर्गे की बात नही कर रहा  हूँ...

विचार अवश्य करियेगा....