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मेरी पत्रकारिता के पांच दशक पूर्ण - डा० उपाध्याय



 जीवन में  सदैव सकारात्मक रचना धर्मिता ही रही महत्वपूर्ण 

प्रयागराज।। जीवन में सदैव अपने लेखन में सकारात्मक रचनाधर्मिता  को ही  महत्वपूर्ण मानकर कलम को  कल्याणकारी भावना से चलाया और  कभी  वादग्रस्त होकर पीत पत्रकारिता नही किया , इसीलिए अपने सिद्धांत पर अडिग रह सका। बीस मई उन्नीस सौ तिहत्तर को विद्यालय की वार्षिक पत्रिका में पहली बार अपने लेख के प्रकाशन पर बहुत प्रसन्नता हुई थी।   

     आधी शताब्दी की इस कंटकाकीर्ण   यात्रा में बहुत से उतार-चढ़ाव आए ,  कई बार अनेक संकटों का सामना करना पड़ा।  जहाँ एक ओर सत्य का पक्षधर  होने पर जान से हाथ धो लेने की धमकियां  मिलीं , वहीं  दूसरी ओर  समय-समय पर उपहार व सम्मान भी मिलता रहा। मेरे रचनात्मक   लेखन की गति न तो कभी रुकी   न कभी झुकी ।कभी अपने सम्मान से समझौता नहीं कर पाया, इसीलिए विभिन्न समाचार पत्रों में  कार्य करने का  जो आकर्षण और चाव था वह धीरे-धीरे कम होता गया।आकाशवाणी  और  दूरदर्शन पर भी  कभी कभी अवसर मिला।

यदि समझौता वादी बन जाता तो अखबार मालिकों की चापलूसी करके शीर्ष पद पर जा सकता था ,  किंतु ऐसा नहीं कर पाया।अपना  स्वाभिमान सदैव बचाए रखने में सफल रहा और  लेखन व पत्रकारिता में  जो प्रतिमान बनाया उसमें अपने आदरणीय गुरुजनों का एवं मार्गदर्शक वरिष्ठ पत्रकारों का महत्वपूर्ण योगदान है। अनेक  सरकारी सुविधाएं पाने के लिए मैंने कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया और अपने  स्वकर्म पर विश्वास करके आगे बढ़ता रहा। पारिवारिक दायित्व में भी सदैव नैतिकता का बोध ही ही होता रहा।  अर्थोपार्जन  की  अपेक्षा  यशार्जन  को  ही  अधिक महत्व दिया।





आज अपने जीवन में स्वयं द्वारा स्थापित साहित्यिक संस्थाओं और पत्रिका को ही सर्वस्व मानकर अहर्निश उनकी सेवा और विस्तार में लगा रहता हूं। कभी-कभी जिन्हें अधिक महत्व देकर आगे बढ़ा देता हूं वही बाद में टांग खींचने लगते हैं और ईर्ष्या भाव से ग्रसित होकर दुर्भावना के शिकार बन जाते हैं फिर भी मैं किसी से कभी कोई शिकायत का पक्षधर नहीं रहा और उन्हें विस्मि्त करके अपने मार्ग पर चलता रहा हूँ। कौन क्या कह रहा है कौन क्या कर रहा है और कौन  साथ में  आ  रहा है अथवा जा रहा है   , इस पर कभी बहुत गंभीर नहीं हो पाया  |  जिन्हें मैंने आगे बढ़ाया वह कई तरह के छल छंद अपनाकर बहुत आगे निकल गए  , उन्होंने कभी पीछे मुड़कर मेरी ओर देखा भी नहीं किंतु मैंने सदैव उनके कल्याण की ही  कामना की।जीवन के  चतुर्थ  आश्रम की ओर  बढ़ते हुए प्रकृति ने भी कठोर परीक्षा ली और कभी ना भूलने वाला असह्य दुख भी दिया किंतु मैं अपने मार्ग से विचलित नहीं हुआ आज सदैव चरैवेति चरैवेति का अनुगामी बना अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहा हूं।  

     एक विशेष भेंट में भारतीय राष्ट्रीय पत्रकार महासंघ के राष्ट्रीय संयोजक डॉक्टर भगवान प्रसाद उपाध्याय ने उपरोक्त उद्गार भारी मन से व्यक्त किया और उन्होंने इस बात का भी संकल्प दोहराया कि वह कभी किसी समझौते को स्वीकार नहीं करेंगे और अपने निश्चित किए हुए मार्ग पर निर्बाध गति से आगे बढ़ते रहेंगे |  जीवन के 67 बसंत देख चुके   अड़ठवें बसंत की तैयारी में  लगे रहना ही और अपनी धुन में चलते रहना ही अपनी नियति बना ली है।