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आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी पुण्यतिथि आज: ज्योतिष के प्रकांड विद्वान जो बन गये हिंदी साहित्य के चमकते ध्रुवतारा



(बलिया) ।।  सुरसरिता पतित- पावनी मां गंगा के पवित्र तट पर स्थित सुप्रसिद्ध ओझवलिया गांव अनादिकाल से स्थापित है।जहाँ लगभग 17वीं शताब्दी में पं. माणिक्य द्विवेदी आकर बस गए,उनके छह पुत्रों में  तीसरे पुत्र का नाम आर्त्तशरण द्विवेदी था।जो ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान थे। इनकी विद्वता, लोकप्रियता और जनसेवा से प्रभावित होकर जनता ने समीपस्थ एक गांव का नाम आर्त्त दुबे के छपरा रख दिया।आज भी यह गांव अपने नाम से श्री दुबे की कीर्ति पताका को गगन में फहरा रहा है।इसी वंश के पाँचवीं पीढी में ज्योतिष मर्मज्ञ पं अनमोल द्विवेदी की पत्नी श्रीमती ज्योतिष्मती देवी के कुक्षि(गर्भ) से 19 अगस्त सन् 1907 ई. को व्योमकेश द्विवेदी का जन्म हुआ।जन्म के पश्चात ही इनके नाना जो बलिया जिले के ब्राह्राणावली(बभनवली)निवासी देवनारायण पाण्डेय थे ,ने एक कठिन एवं लम्बा अभियोग जीतकर विजय स्वरूप हजार रूपया भी प्राप्त किया था को  अपने नाती को दे दिये । इसी उल्लास में व्योमकेश, "हजारी प्रसाद" के नाम से प्रसिद्ध हो गये जो अपने युग में हिंदी के प्रकाण्ड विद्वान के रूप में प्रसिद्ध हुए।
 सरयू जल के समान निर्मल स्वभाव वाले सरयूपारीण ब्राह्मण परिवार में जन्मे भारत-प्रसिद्ध हिंदी भाषा-भास्कर ज्योतिर्विद् आचार्य डाॅ. हजारी प्रसाद द्विवेदी की शिक्षा-दीक्षा ग्रामीण विद्यालय रेपुरा से प्राइमरी एवं वर्नाकुलर फाइनल (मिडिल) की परीक्षा बसरिकापुर से उत्तीर्ण करने के बाद अपने चचेरे भाई विश्वनाथ द्विवेदी के साथ अपने पिता के पास बंगाल के फरीदपुर जिले में बरहमगंज स्थित एक निजी विद्यालय में दोनों भाईयों ने दाखिला लिया,जिसका माध्यम बंगला भाषा थी।कक्षा सात उत्तीर्ण हुये दोनों बालकों को  बंगला भाषा का ज्ञान न होने से वहां तीसरी कक्षा में प्रवेश मिला।दोनों ने एकाग्रचित्त होकर घोर परिश्रम कर बंगला भाषा का उत्तम ज्ञान प्राप्त किया कि प्रधानाचार्य ने शीघ्र ही कक्षोंन्नति कर इन्हें कक्षा छह में प्रविष्टि किया।सन् 1921 में महात्मा गांधी ने स्कूल छोड़ो आंदोलन छेड़ दिया जिसके कारण वह विद्यालय बंद हो गया जिससे दोनों भाई वापस गांव आ गए। वहां से उच्च शिक्षा ग्रहण करने हेतु पंडित जी सन्  1921 में ही काशी जाकर मालवीय जी द्वारा स्थापित
"हिन्दू विश्व विद्यालय" में  ज्योतिष में प्रवेश लिया । इस प्रकार मालवीय जी के सान्निध्य में अत्यंत उच्च श्रेणी  के परिक्षार्थी के रूप में सन् 1929 में श्री द्विवेदी जी परीक्षा में  प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए । परीक्षा उत्तीर्ण कर जब मालवीय जी से आशीर्वाद लेने गये तो इनकी अलौकिक प्रतिभा का मूल्यांकन करके वे बोले- 'तुम हिन्दी के बहुत अच्छे विद्वान हो । रविन्द्रनाथ ठाकुर ने एक हिंदी अध्यापक मांगा है,उन्हें पत्र लिख देता  हूँ, चले जाओ' । इस प्रकार मालवीय जी की कृपा से हजारी प्रसाद जी प्रारंभ में ही उस धरातल पर पहुँचे जहाँ से उनकी कीर्ति - पताका गगन में फहराने लगी और दिग्- दिगन्त में शुभ - संदेश देने लगी । विद्या की अधिष्ठात्री देवी माँ सरस्वती के वरद-पुत्र आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हिन्दी के शीर्षस्थ साहित्यकारों में से है । वे उच्चकोटि के निबन्धकार,उपन्यासकार,आलोचक,चिन्तक तथा शोधकर्ता है । साहित्य के इन सभी क्षेत्रों में द्विवेदी जी अपनी प्रतिभा एवं विशिष्ट कर्तव्य के कारण विशेष यश के भागी हुए है । आचार्य जी का व्यक्तित्व गरिमामय,चित्तवृत्ति उदार और दृष्टिकोण व्यापक है । द्विवेदी जी के प्रत्येक रचना पर उनके इस व्यक्तित्व की छाप देखी जा सकती है । उन्होंने सुर, तुलसी आदि पर जो विद्वत्तापूर्ण आलोचनाए लिखी है वे हिन्दी में पहले नहीं लिखी गयी । उनका निबंध हिन्दी साहित्य की स्थायी निधि है । उनकी समस्त कृतियों पर उनके गहन विचारों और मौलिक चिंतन की छाप है । विश्वभारती आदि के द्वारा द्विवेदी जी ने संपादन के क्षेत्र में पर्याप्त सफलता प्राप्त की । उनके निबंधों में दार्शनिक तत्वों की प्रधानता रहती है । हिन्दी साहित्य का इतिहास,भारतीय धर्मसाधना,सूरदास,कबीर आदि ग्रन्थ उनके साहित्य की परख और इतिहास बोध की प्रखरता को रेखांकित करते है । 'वाणभट्ट की आत्मकथा' के साथ ही पुनर्नवा, 'चारूचन्द्रलेख', अनामदास का पोथा, जैसे ऐतिहासिक उपन्यास ऐतिहासिकता और पौराणिकता की रक्षा करते हुए अपने युग और समाज के सच को उजागर किया । आचार्य जी कई वर्षों तक काशी 'नागरी प्रचारिणी सभा' के उपसभापति, 'खोज विभाग के निदेशक तथा 'नागरी प्रचारिणी सभा' के संपादक रहे है । सन् 1950 ई. में  'बीएचयू' में 'हिन्दी विभाग' के अध्यक्ष एवं प्रोफेसर रहे । इसके एक वर्ष पूर्व सन् 1949 ई. में 'लखनऊ विश्वविद्यालय' ने  उनकी हिन्दी की महत्वपूर्ण सेवा के कारण उन्हें 'डी.लिट.' की सम्मानित उपाधि प्रदान की थी । सन् 1955 ई.में वे प्रथम 'आफिशियल लैंग्वेज कमीशन' के सदस्य चुने गये । उनको साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में महमहिम राष्ट्रपति द्वारा सन् 1957 में 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया गया । सन् 1958 ई. में वे  'नेशनल बुक ट्रस्ट' के सदस्य रहे । सन् 1960 ई. में 'पंजाब विश्वविद्यालय' के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष और प्रोफेसर होकर चण्डीगढ चले गये । सन् 1968 ई. में ये फिर 'बीएचयू' में 'डायरेक्टर' नियुक्त हुए तत्पश्चात उत्तर प्रदेश 'हिन्दी ग्रन्थ अकादमी' के अध्यक्ष हुए और फिर 19 मई सन् 1979 ई. में 'महानिर्वाण' को प्राप्त हो गये । उनका पुरूषोत्तम व्यक्तित्व हम सबके लिए प्रेरणादायक है । उनमें प्रखर पाण्डित्य,शील, विनय, ऋजुता आदि सभी गुणों का समावेश था । उन्होंने अनेक गवेषणात्मक श्रेष्ठतम ग्रन्थों का सृजन कर हिन्दी जगत् की श्रीवृद्धि की है उनका कृतित्व व व्यक्तित्व अपने आप में एक संस्थान है यदि हमारे युवा पीढ़ी उनके पद - चिन्हों पर चलें और उनका अनुकरण करे तो अवश्य ही वे भी प्रतिभावान् और कोविद बनेंगे,जिससे हिन्दी साहित्य व ज्योतिष का ज्ञान समृद्ध होगा ।
आज हिन्दी जगत् के देदीप्यमान नक्षत्र एवं कालजयी रचनाकार आचार्य श्री द्विवेदी की रचना से भारत ही नहीं बल्कि पूरा विश्व आलोकित हो रहा है, लेकिन उनका पैतृक गांव ओझवलिया ही आज अपनी पहचान को मोहताज नजर आ रहा है, जहाँ आज तक इतने बड़े महान विभूति की एक प्रतिमा तक इस गाँव में नहीं है । इसके लिए ग्रामीणों ने जिला प्रशासन सहित जनप्रतिनिधियों को जिम्मेदार ठहराया है । गाँव के प्रबुद्ध लोगों ने स्वनामधन्य आचार्य जी की 'आदमकद प्रतिमा' एवं ' हजारी सरोवर' सुन्दरीकरण की मांग तेज कर दी है ।
सन् 1948 में अपने प्रसिद्ध निबन्ध संग्रह 'अशोक के फूल' से हिन्दी साहित्य के आकाश पर अपना परचम लहराने वाले बागी-@ बलिया के अद्वितीय लाल डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी आज अपने ही जनपद में बिस्मृति होते जा रहे है । इनसे जुड़ी स्मृति चिन्हों को मिटते देखते रहे जनता के रहनुमा । खाली पड़ी जगहों पर नेताओं की मुर्ति  लगने में थोड़ी भी देर नहीं होती है परन्तु हिन्दी के इस देदीप्यमान नक्षत्र के लिए 22 वर्ष  पूर्व तत्कालीन जिलाधिकारी नरेश कुमार के आदेश पर हुए शिलान्यास के बाद भी विद्वत्तप्रवर आचार्यश्री की मुर्ति नहीं लग पायी ।

मूर्ति लगाने के लिये 1988 से हो रहा है प्रयास,पर राजनेताओ ने अबतक नही किया सहयोग


आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की मुर्ति लगाने हेतु सन् 1998 में तत्कालीन जिलाधिकारी नरेश कुमार द्वारा शिलापट्ट स्थापित कराया गया था जो उपेक्षा के अभाव में आज तक एक अदद मुर्ति स्थापित कराने हेतु कोई भी जनप्रतिनिधि, अधिकारियों ने रूचि नहीं दिखाई जो कि बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी स्मारक समिति के सचिव सुशील द्विवेदी 1998 से लगातार प्रयासरत है फिर भी जनप्रतिनिधियों के असहयोगात्मक रवैये से इनको अबतक मूर्ति लगाने में सफलता नही मिली है ।

जन्म पर भी है मतभेद 
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का  19 अगस्त को जन्मदिन मनाया जाता है । लेकिन इनके जन्मदिन पर भी मतभेद है और 1 अक्टूबर 1906 को भी इनकी जन्मतिथि कही जाती है । इसके समर्थन में आचार्य जी की मिडिल की टीसी में दर्ज जन्मतिथि को प्रस्तुत किया जाता है ।

आचार्य डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी की प्रारम्भिक शिक्षा प्रा. विद्यालय रेपुरा एवं मिडिल/ वर्नाक्यूलर की शिक्षा बसरिकापुर में हुई थी जिसमें उनकी टी.सी. एवं नामांकन/उपस्थिति रजिस्टर संख्या-1 में क्रमांक संख्या,- 262 पर जन्म तिथि (01/10/1906) एक अक्टूबर सन् उन्नीस सौ छ: दर्ज है । जो आज भी बसरिकापुर मिडिल स्कूल में उक्त रजिस्टर आलमारी में सुरक्षित रखी हुई है ।