23 मार्च को विश्व मौसम दिवस पर विशेष- अंधाधुन्ध विकास, औद्योगीकरण, नगरीकरण एवं वनों के अतिशय दोहन का प्रतिफल है मौसम में चरम परिवर्तन - डा० गणेश पाठक बलिया
23 मार्च को विश्व मौसम दिवस पर विशेष- अंधाधुन्ध विकास, औद्योगीकरण, नगरीकरण एवं वनों के अतिशय दोहन का प्रतिफल है मौसम में चरम परिवर्तन - डा० गणेश पाठक बलिया
डॉ सुनील कुमार ओझा की रिपोर्ट
बलिया 23 मार्च 2020 ।। आज विश्व मौसम दिवस के अवसर पर अमरनाथ मिश्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय दुबेछपरा, बलिया के पूर्व प्राचार्य एवं भूगोलविद् तथा पर्यावरणविद् डा० गणेश कुमार पाठक ने वर्तमान समय में हो रहे मौसम एवं जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में कोलकाता से डॉ पाठक ने हमारे उप संपादक डॉ सुनील ओझा से हुई वार्ता में बताया कि आदिम काल से लेकर वर्तमान समय तक जैसे- जैसे जनसंख्या वृध्दि होती गयी, भोजन, आवास एवं अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु हम अंधाधुन्ध विकास की तरफ अग्रसर हुए और यह विकास इतना अनियोजित एवं अनियंत्रित रहा कि न केवल वनों का तीव्र गति से विनाश किया गया, बल्कि अन्य सभी प्राकृतिक संसाधनों का भी तीव्रगति से दोहन एवं शोषण किया गया । यही नहीं तीव्र गति से बढ़ते औद्योगिकीकरण , नगरीकरण एवं तकनीकी विकास ने एक तरफ जहाँ विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों को जन्म दिया, वहीं दूसरी तरफ वनों एवं प्राकृतिक संसाधनों के अतिशय दोहन एवं शोषण ने पर्यावरण तथा प्रारिस्थितिकी असंतुलन को भी बढ़ाया, जिससे मानव जीवन के लिए विभिन्न तरह के संकट उत्पन्न होते गए। जिसके तहत सबसे भयानक दुष्परिणाम मौसम एवं जलवायु परिवर्तन के रूप में परिलक्षित होने लगा है।
डा० पाठक ने बताया कि विश्वव्यापी पर्यावरणीय समस्याएँ ओजोन परत का क्षरण, ग्रीन हाउस प्रभाव एवं तेजाबी वर्षा के प्रभाव ने मोसम एवं जलवायु को विशेष रूप से प्रभावित एवं परिवर्तित किया है , जिसके चलते अनेक प्राकृतिक आपदाओं सहित विविध मौसमी परिवर्तन से संबंधित चरम घटनाएँ जैसे- अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भीषण चक्रवातीय तूफान, घातक कुहरा, शीत लहर, प्रचण्ड गर्मी, लू , हिम वर्षा आदि अपना भयंकर रूप दिखाकर मानव की सभी गतिविधियों को अपनी आगोश में लेता जा रहा है, जिसका भयंकर दुष्परिणाम न केवल मानव जगत, बल्कि पशु- पक्षी जगत एवं पादप जगत को भी भोगना पड़ रहा है।
डा० पाठक ने यह भी बताया कि आजकल मौसम एवं जलवायु में जो परिवर्तन हो रहे हैं उसके लिए खासतौर से हमारी भोगवादी प्रवृत्ति एवं विलासितापूर्ण जीवन भी उत्तरदायी है। औद्योगीकरण , नगरीकरण एवं वन विनाश के चलते वायुमण्डल में इतनी अधिक मात्रा में कार्बन- डाई- आक्साइड, कार्बन- मोनो- आक्साइड एवं मीथेन आदि विषैली गैसें पहुँचती हैं कि उनसे ओजोन परत में छिद्र होने लगा है, जिससे सूर्य की घातक पराबैगनी किरणें सीधे धरती पर आकर वायुमण्डल एवं धरती के तामान में निरन्तर वृध्दि कर रही हैं। यही नहीं ओजोन परत के विनाश के लिए सबसे अधिक उत्तरदायी सी एफ सी गैसें हैं, जिसका उपयोग हमारी विलासितापूर्ण वस्तुओं खाषतौर से एयरोसोल , रफ्रिजरेटर, फोम आदि बनाने के लिए किया जाता है। पृथ्वी के वायुमण्डल में अत्यधिक कार्बन- डाई- आक्साइड गैस पहुँचने से पृथ्वी गैस चेम्बर के रूप में कार्य करने लगी है, जिससे पृथ्वी पर लगातार तापमान बढ़ता जा रहा है। फलतः मौसम एवं जलवायु में भी निरन्तर परिवर्तन हो रहा है और उनमें अस्थिरता कायम होती जा रही है। मौसम एवं जलवायु में इस चरम परिवर्तन के कारण मावन सहित सभी प्रकार के जीवधारियों , वनस्पतियों एवं जल स्रोतों के लिए भी खतरा उत्पन्न होता जा रहा है। प्राकृतिक आपदाओं की प्रवृत्ति एवं गहनता में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है, जिससे पर्याप्त धन- जन की क्षति हो रही है।
डा० पाठक का कहना है कि यदि हमें मौसम एवं जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों से पृथ्वी को एवं पृथ्वी पर निवास करने वावे सभी जीवधारियों तथा वनस्पतियों को बचाना है तो इसका एकमात्र उपाय वन विनाश को रोकना एवं अधिक से अधिक वृक्षारोपण कर धरती को हरा - भरा बनाना होगा। साथ ही साथ वायुमण्डल में जाने वाली घातक विषैली गैसों के उत्पादन एवं उपभोग पर भी रोक लगाना आवश्यक है। मानव को अपनी शोच में भी परिवर्तन लाना होगा और भोगवादी प्रवृत्ति तथा विलासितापूर्ण जीवन से परहेज करना होगा । यही नहीं " अपनी आवश्कताओं को कम रखिए, सुखी रहेंगे " तथा " उतनी पाँव पसारिए, जितनी तोरी ठाँव" जैसे सिद्धान्तों को अपनाते हुए "माता भूमिः पुत्रोअहम् पृथ्वियाः " की संकल्पना को अपनाकर पृथ्वी को बचाना होगा। हमें अपनी जीवन शैली एवं सोच में परिवर्तन लाना होगा एवं जनजागरूकता पैदा करनी होगी। हमें अपनी जीवन शैली को पुनः भारतीय संस्कृति के आधार पर अपनाना होगा, जिसमें प्रकृति की पूजा की संकल्पना निहित है ताकि हम प्रकृति के तत्वों को विनष्ट न करें। विकास के लिए सतत विकास की संकल्पना अपनानी होगी, सिसके तहत विकास की प्रक्रिया निरन्तर जारी तो रहेगी , किन्तु पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के तत्वों को भी संरक्षण प्राप्त होगा। यदि हम ऐसा कर सक तभी चरम मौसम एवं जलवायु परिवर्तन पर विराम लगाया जा सकता है, अन्यथा हमारा विनाश अवश्यम्भावी है।
डॉ सुनील कुमार ओझा की रिपोर्ट
बलिया 23 मार्च 2020 ।। आज विश्व मौसम दिवस के अवसर पर अमरनाथ मिश्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय दुबेछपरा, बलिया के पूर्व प्राचार्य एवं भूगोलविद् तथा पर्यावरणविद् डा० गणेश कुमार पाठक ने वर्तमान समय में हो रहे मौसम एवं जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में कोलकाता से डॉ पाठक ने हमारे उप संपादक डॉ सुनील ओझा से हुई वार्ता में बताया कि आदिम काल से लेकर वर्तमान समय तक जैसे- जैसे जनसंख्या वृध्दि होती गयी, भोजन, आवास एवं अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु हम अंधाधुन्ध विकास की तरफ अग्रसर हुए और यह विकास इतना अनियोजित एवं अनियंत्रित रहा कि न केवल वनों का तीव्र गति से विनाश किया गया, बल्कि अन्य सभी प्राकृतिक संसाधनों का भी तीव्रगति से दोहन एवं शोषण किया गया । यही नहीं तीव्र गति से बढ़ते औद्योगिकीकरण , नगरीकरण एवं तकनीकी विकास ने एक तरफ जहाँ विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों को जन्म दिया, वहीं दूसरी तरफ वनों एवं प्राकृतिक संसाधनों के अतिशय दोहन एवं शोषण ने पर्यावरण तथा प्रारिस्थितिकी असंतुलन को भी बढ़ाया, जिससे मानव जीवन के लिए विभिन्न तरह के संकट उत्पन्न होते गए। जिसके तहत सबसे भयानक दुष्परिणाम मौसम एवं जलवायु परिवर्तन के रूप में परिलक्षित होने लगा है।
डा० पाठक ने बताया कि विश्वव्यापी पर्यावरणीय समस्याएँ ओजोन परत का क्षरण, ग्रीन हाउस प्रभाव एवं तेजाबी वर्षा के प्रभाव ने मोसम एवं जलवायु को विशेष रूप से प्रभावित एवं परिवर्तित किया है , जिसके चलते अनेक प्राकृतिक आपदाओं सहित विविध मौसमी परिवर्तन से संबंधित चरम घटनाएँ जैसे- अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भीषण चक्रवातीय तूफान, घातक कुहरा, शीत लहर, प्रचण्ड गर्मी, लू , हिम वर्षा आदि अपना भयंकर रूप दिखाकर मानव की सभी गतिविधियों को अपनी आगोश में लेता जा रहा है, जिसका भयंकर दुष्परिणाम न केवल मानव जगत, बल्कि पशु- पक्षी जगत एवं पादप जगत को भी भोगना पड़ रहा है।
डा० पाठक ने यह भी बताया कि आजकल मौसम एवं जलवायु में जो परिवर्तन हो रहे हैं उसके लिए खासतौर से हमारी भोगवादी प्रवृत्ति एवं विलासितापूर्ण जीवन भी उत्तरदायी है। औद्योगीकरण , नगरीकरण एवं वन विनाश के चलते वायुमण्डल में इतनी अधिक मात्रा में कार्बन- डाई- आक्साइड, कार्बन- मोनो- आक्साइड एवं मीथेन आदि विषैली गैसें पहुँचती हैं कि उनसे ओजोन परत में छिद्र होने लगा है, जिससे सूर्य की घातक पराबैगनी किरणें सीधे धरती पर आकर वायुमण्डल एवं धरती के तामान में निरन्तर वृध्दि कर रही हैं। यही नहीं ओजोन परत के विनाश के लिए सबसे अधिक उत्तरदायी सी एफ सी गैसें हैं, जिसका उपयोग हमारी विलासितापूर्ण वस्तुओं खाषतौर से एयरोसोल , रफ्रिजरेटर, फोम आदि बनाने के लिए किया जाता है। पृथ्वी के वायुमण्डल में अत्यधिक कार्बन- डाई- आक्साइड गैस पहुँचने से पृथ्वी गैस चेम्बर के रूप में कार्य करने लगी है, जिससे पृथ्वी पर लगातार तापमान बढ़ता जा रहा है। फलतः मौसम एवं जलवायु में भी निरन्तर परिवर्तन हो रहा है और उनमें अस्थिरता कायम होती जा रही है। मौसम एवं जलवायु में इस चरम परिवर्तन के कारण मावन सहित सभी प्रकार के जीवधारियों , वनस्पतियों एवं जल स्रोतों के लिए भी खतरा उत्पन्न होता जा रहा है। प्राकृतिक आपदाओं की प्रवृत्ति एवं गहनता में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है, जिससे पर्याप्त धन- जन की क्षति हो रही है।
डा० पाठक का कहना है कि यदि हमें मौसम एवं जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों से पृथ्वी को एवं पृथ्वी पर निवास करने वावे सभी जीवधारियों तथा वनस्पतियों को बचाना है तो इसका एकमात्र उपाय वन विनाश को रोकना एवं अधिक से अधिक वृक्षारोपण कर धरती को हरा - भरा बनाना होगा। साथ ही साथ वायुमण्डल में जाने वाली घातक विषैली गैसों के उत्पादन एवं उपभोग पर भी रोक लगाना आवश्यक है। मानव को अपनी शोच में भी परिवर्तन लाना होगा और भोगवादी प्रवृत्ति तथा विलासितापूर्ण जीवन से परहेज करना होगा । यही नहीं " अपनी आवश्कताओं को कम रखिए, सुखी रहेंगे " तथा " उतनी पाँव पसारिए, जितनी तोरी ठाँव" जैसे सिद्धान्तों को अपनाते हुए "माता भूमिः पुत्रोअहम् पृथ्वियाः " की संकल्पना को अपनाकर पृथ्वी को बचाना होगा। हमें अपनी जीवन शैली एवं सोच में परिवर्तन लाना होगा एवं जनजागरूकता पैदा करनी होगी। हमें अपनी जीवन शैली को पुनः भारतीय संस्कृति के आधार पर अपनाना होगा, जिसमें प्रकृति की पूजा की संकल्पना निहित है ताकि हम प्रकृति के तत्वों को विनष्ट न करें। विकास के लिए सतत विकास की संकल्पना अपनानी होगी, सिसके तहत विकास की प्रक्रिया निरन्तर जारी तो रहेगी , किन्तु पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के तत्वों को भी संरक्षण प्राप्त होगा। यदि हम ऐसा कर सक तभी चरम मौसम एवं जलवायु परिवर्तन पर विराम लगाया जा सकता है, अन्यथा हमारा विनाश अवश्यम्भावी है।