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मौलाना अबुल कलाम आजाद की जयंती विशेष : एक ऐसा मौलाना जिसको ताउम्र भारतीयता पर रहा गर्व

अबुल कलाम आजाद जयंती: भारतीयता पर गर्व करने वाला एक मौलाना


11 नवम्बर 2018 ।।

(नाज़िम नक़वी )

'संगीत जिसे गुदगुदा नहीं पाता, वह इंसान या तो बीमार है या फिर उसमें संयम नहीं है; आध्यात्मिकता से दूर है और पक्षियों और जानवरों से भी कम-समझ रखता है क्योंकि मधुर आवाजों से तो सभी प्रभावित हो जाते हैं'. सीधे और साफ तौर पर तो यह किसी संगीत-प्रेमी का बयान है और कुछ नहीं. चलिए अगर यह पता चल भी जाए कि ये एक भारतीय-मुसलमान का बयान है तो भी ये कोई बड़ी बात नहीं, क्योंकि भारतीय-मुसलामानों में संगीत-परंपरा की लंबी-चौड़ी विरासत है.

लेकिन, अगर यह पता चले कि बयान देने वाला मक्का (अरब) में पैदा हुआ (11नवंबर-1888), रूढ़िवादी इस्लामी विषयों में शिक्षित एक मौलाना और कुरान-शरीफ का अनुवाद करने वाला है तो इक्कीसवीं-सदी की इस वर्तमान दहाई में चौंकना कोई हैरत की बात नहीं होनी चाहिए. क्योंकि आज के तथाकथित इस्लामी-प्रचारकों के नजरिए से जो आम-समझ बनती है, वह तो यही सवाल उठाती है कि क्या वाकई इस्लाम-धर्म मानने वाला, संगीत प्रेमी भी हो सकता है?

इतिहास पर नजर रखने वाले ये जानते हैं कि जिन हालात में देश का विभाजन हुआ था, मुस्लिम-लीग और जिन्नाह 'इस्लाम खतरे में है' के जिस नारे से देश के मुसलमानों में, हिंदुओं के खिलाफ जहर भर रहे थे, उस माहौल में ये कहना, 'मुझे अपने भारतीय होने पर गर्व है. मैं भारतीय राष्ट्रीयता की अटूट-एकता का हिस्सा हूं. मैं इस महान-संरचना का अनिवार्य-अंग हूं, मेरे बिना यह शानदार-ढांचा अधूरा है', यकीनन हैरत में डाल देता है.

तालीम से आती है ऐसी सलाहियत
मौलाना-आजाद के ऐसे बयानात पढ़ने पर अक्सर मन में आता है कि वह बड़े साहसी व्यक्ति थे. लेकिन थोड़ा गौर करें तो इसमें साहस जैसी कोई बात नहीं दिखती. यह दरअसल समझ की बात है, जो शिक्षा से आती है. और यह आजाद-भारत की खुशनसीबी है कि उसे अपने पहले शिक्षा-मंत्री के रूप में मौलाना अबुल कलाम आजाद मिले, जिन्होंने अगले 11 बरस तक हमारी तालीम के पौधे को एक होनहार माली की तरह देखा-भाला. जाहिर है कि इस पौधे ने इक्कीसवीं-सदी आते-आते अपना लोहा मानवता लिया, और पूरी दुनिया ने कहा कि भारत 'नॉलेज का सुपर-पॉवर' है.
मौलाना-आजाद ने किसी मौके पर कहा था, 'दिल से दी गई शिक्षा समाज में इंकलाब ला सकती है'. लेकिन यह भी सच है, 'कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता'. मौलाना मुस्लिम-शिक्षा के क्षेत्र में जो कुछ करना चाहते थे, नहीं कर पाए. इस्लामी-शिक्षा के लिए खोले गए मदरसों से वह इसी दिल की उम्मीद रखते थे, लेकिन कठमुल्ला जेहेनियत ने उन्हें हर-हर मोड़ पर पराजित किया. वह मदरसों में फैले अंधेरे को इल्म की रोशनी नहीं बांट सके.



दकियानूसी दिमागों में नहीं घुसी बातजनवरी 2009 में, यानी मौलाना के इस दुनिया से रुखसत होने (1958) के करीब 51 बरस बाद, एक बार फिर मदरसों की शिक्षा को आधुनिक शिक्षा से जोड़ने की मुहिम शुरू की गई. मानव-संसाधन एवं विकास मंत्रालय ने, राज्य-अल्पसंख्यक-आयोग की वार्षिक-बैठक में, केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की तर्ज पर एक 'मदरसा-बोर्ड' बनाने की घोषणा कर दी, इस तर्क के साथ कि इस तरह से मदरसे की शिक्षा लेने वाले विद्यार्थी भी सरकारी नौकरी में लाए जा सकेंगे.

लेकिन हर नई पहल को शक की निगाह से देखने वाले दकियानूसी दिमागों को, इसमें चालें नजर आईं. देश के लगभग सभी मशहूर मदरसों के संचालकों ने इसका विरोध किया और कहा कि इस तरह सरकार हमारी मजहबी-तालीम में हस्तक्षेप करने का रास्ता ढूंढ रही है.

2009 में हुए इस विरोध ने, लखनऊ में हुई 1948 की उस सभा की याद दिला दी, जिसमें सभी नामी-मदरसों के संचालक मौजूद थे और मौलाना आजाद उसकी अध्यक्षता कर रहे थे. सभा को संबोधित करते हुए मौलाना ने, पूरी मुस्लिम-दुनिया में तालीम का क्या हाल है, इस्लामी-शिक्षा का मूल क्या है, उसका विकास कैसे हुआ और उसमें गिरावट क्यों आई, को विस्तार से इस सभा में समझाया और उन जरूरतों की तरफ लोगों का ध्यान खींचने की कोशिश की जिससे उसे बचाया जा सके, और देश की मदरसा-शिक्षा को प्रासंगिक बनाया जा सके.

मौलाना अबुल कलाम आजाद के साथ जवाहर लाल नेहरू
अपने संबोधन में, मौलाना ने कहा कि इस्लामी-शिक्षा का फैलाव 12वीं शताब्दी (लगभग 500 वर्ष) तक तो पूरे वेग के साथ हुआ, लेकिन इसके बाद इस्लामी-शिक्षा के इतिहास में एक अजीब मोड़ आया जो सिर्फ बौद्धिक और शैक्षिक परंपरा की गिरावट के रूप में वर्णित किया जा सकता है. इल्म का जो पौधा फल-फूल रहा था, अचानक मुरझा गया.


अपना नाम रखा था आजादमौलाना ने कहा, भारत में मदरसा-शिक्षा बौद्धिक गिरावट के इसी दौर में शुरू हुई और इसने उन्हीं सब कमियों और बुराइयों को अपना लिया. अबुल कलाम आजाद जानते थे कि वह किन लोगों के सामने क्या बात कर रहे थे. उनके भाषण को सुनने वाली मानसिकता वही थी जिसने सर सैयद अहमद की तालीमी-मुहिम का सिर्फ विरोध ही नहीं किया था बल्कि उनका सर कलम करने का फ़तवा तक वह मक्का से ले आए थे. फिर भी मौलाना अपनी बात दर्ज करा देना चाहते थे ताकि भारतीय-मुस्लिम सोच को उस कट्टर-पंथी सोच से अलग किया जा सके जो पड़ोस (पाकिस्तान) में इस्लाम के नाम पर थोपी जा रही थी.

भारत-रत्न, मौलाना आजाद का इस्लाम, समकालीन कठोर और झगड़ेदार इस्लाम से कहीं ज्यादा उदार था. वह जिस परिवार से आते थे वहां पीरी-मुरीदी के संस्कार थे. उन्होंने अपना उपनाम 'आजाद' भी शायद इसीलिए रखा था क्योंकि वह दकियानूसी विचारधारा से आजादी चाहते थे. मौलाना आजाद ने इस्लामी-शिक्षा के सही अर्थों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए अथक परिश्रम किए. भारतीय परिवेश में इस्लाम का क्या रूप होना चाहिए, सर्वधर्म सम्भाव की इस धरती पर इस्लाम को अपना अस्तित्व कैसे कायम रखना चाहिए, इस पर मौलाना आजाद ने लगातार लिखा जिसे आज भी पढ़ा जा सकता है.
(साभार न्यूज18)