Breaking News

दिल की आवाज : अद्भुत प्रेम की निश्छल दास्तान


 तुमने प्रथम मिलन में ही मुझे आकर्षित कर लिया, आज तुम्हारे आगोश में बैठकर ज्ञान ...
बलिया एक्सप्रेस की एक्सक्लूसिव प्रस्तुति
      मधुसूदन सिंह /डॉ सुनील ओझा 
बलिया 7 अगस्त 2018   ।। 
        त्रिलोचन जी की कविता से इस अद्भुत और निश्छल प्रेम की दास्तान का आगाज करते है --

यूं ही कुछ मुस्काकर तुमने ,                                                                         परिचय की वो गांठ लगा दी!                         
था पथ पर मैं भूला भूला ,                                                                              फूल उपेक्षित कोई फूला ।                             
जाने कौन लहर थी उस दिन,                                                                        तुमने अपनी याद जगा दी ।                             
कभी कभी यूं हो जाता है,                                                                            गीत कहीं कोई गाता है,                                   
गूंज किसी उर में उठती है,                                                                         तुमने वही धार उमगा दी।                                       
जड़ता है जीवन की पीड़ा,                                                                             निस्-तरंग पाषाणी क्रीड़ा,                                   
तुमने अन्जाने वह पीड़ा,                                                                            छवि के शर से दूर भगा दी ।।                                   

यह सत्य है कि जैसे जैसे समय बीतता जाता है, अपनों से दूर रहकर, अपने भूलने से लगते हैं। लेकिन मैं कुछ ज्यादा ही भावुक हो जाता हूं, वह तब जब अपने, स्वप्न में आने लगते हैं। ऐसा लगता है कि अचेतन मन में अभी वह अपने बसे हुए हैं, कहीं ना कहीं छिपे हुए हैं, तैर रहे हैं, कभी ओझल हो जाते हैं, कभी चलते फिरते वार्ता करते हुए सन्निकट आ जाते हैं।
 तुम्हें याद हो ना हो लेकिन मुझे याद है कि जब मैं पहले पहल तुमसे 15 सितंबर 1989 में मिला था तब मुझे ऐसा लगा था कि तुम मुझे पाकर अति प्रसन्न हो रहे हो। बार-बार मुझे यह आभास हो रहा था कि मौन खड़े होकर तुम मेरा स्वागत कर रहे हो। एक साधु के हरे भरे आश्रम में मानो कोई मौन साधना कर रहा हो। तुम पावन गंगा और घागरा के दुकूलों के बीच प्रकाश की किरण के रूप में खड़े थे।
 तुमने प्रथम मिलन में ही मुझे आकर्षित कर लिया। आत्म संतोष हुआ कि भटकते हुए मन रूपी राही को स्थायित्व तो मिला। दूसरे दिन ही मैं तुम्हारी रुग्णा अवस्था को देखकर बहुत ही दुखी हुआ। मैंने ठान लिया कि तुम जैसे ज्ञान केंद्र को अधिक से अधिक विकसित करूंगा।
सर्वप्रथम तुम्हारी रुग्णा अवस्था को दूर करने हेतु अनेक उपाय किए। हल्के नीले आवरण में खूब सजा कर तुम्हें रखा। मुझे याद है कि तुम्हारे सृजनकर्ता तुम्हारा यह रुप देख कर बहुत प्रसन्न हुए थे और मुझे बहुत आशीर्वाद रूपी लड्डू दिए थे।
तुम्हारे आगोश में बैठ कर ज्ञान प्राप्त करने वालों की संख्या दिनों दिन बढ़ती जा रही थी। इसका कारण यह था कि तुम्हारे ज्ञानात्मक प्रकाश की ख्याति दिनों दिन बढ़ रही थी। अतः तुम्हारे साथियों को बढ़ाना आवश्यक हो गया लेकिन एक जबरदस्त कठिनाईया थी कि तुम्हारे खड़े होने के स्थान के बगल में गहरी खाई थी।  मैं भी कम जिद्दी नहीं था। ठान लिया कि तुम्हें ऐसी मजबूती प्रदान करूंगा कि लाख झंझावात आवे, तुम्हें हिला तक नहीं सकेंगे। मैंने ऐसा ही किया तुम्हें याद होगा कि मुझसे तुम्हें इतना स्नेह था, लगावजुड़ाव था कि मां गंगा तीन बार तुम्हें अपने साथ ले जाने के लिए बहुत जोर मारती रही, फिर भी तुम मुझ से अत्यधिक स्नेह के कारण उनके साथ नहीं गए और मेरा मान रख लिए। तुम्हें हमारे स्नेह पर अधिक भरोसा हो गया था। फिर तो तुम्हारी सफलता का गुणगान करते हुए और भी तुम्हारे बड़े-बड़े साथियों को खड़ा कर दिया। तुम्हें सुरक्षित और सुसज्जित करने में भी मैंने अपनी बुद्धि, विवेक और सामर्थ्य को लगा दिया। मैं इस कार्य में पीछे नहीं हटा।
आज जब मैं तुमसे कई वर्षों से नहीं मिल पा रहा हूं या यूं कहें कि परिस्थितियां मिलने नहीं दे रही हैं इससे मैं अत्यंत व्याकुल बेचैन और परेशान सा हो जाता हूं। परंतु मुझे यह सोचकर अत्यंत आत्म संतोष होता है कि तुम उसी प्रकार सुरक्षित हो पल्लवित हो रहे हो और ज्ञान के प्रकाश के स्तंभ के रूप में खड़े हो।
एक बात और तुम्हें बताने बताते हुए मुझे जरा भी संकोच नहीं हो रहा है कि तुम्हारे सानिध्य में आने पर मेरे परिवार का भरण-पोषण अति सम्मान पूर्वक हुआ। मेरा ही नहीं मेरे साथ तुम्हारी सेवा में लगे हुए अनेकों के पारिवारिक जीवन को सुखद तथा भौतिक सुखों से परिपूर्ण तुमने किया। आज जब मैं गणना करने बैठा हूं तो  तुम्हें यह भी बता दूं कि तुमने लगभग 50000 को अज्ञान के अंधकार से निकालकर प्रकाश की धारा में बहा दिया है। यह गणना जब तक मैं तुम्हारे सानिध्य में रहा तब तक की है। हम सब तुम्हारे ऋणी हैं।
यह भी सत्य है कि जितने लोगों को तुमने ज्ञान का प्रकाश दिया है, वह सब भी तुम्हारे साथ मुझे भी याद करते हैं। कभी-कभी तो मुझे लगता है कि तुम्हें नजरअंदाज कर, सीधे मुझसे संवाद युक्त होना चाहते हैं। किंतु मुझे अच्छी तरह याद है कि तुम्हारा परिक्षेत्र जो मुझे अपने परिवार सदृश ही प्रतीत हुआ, वही सब की स्मृतियों का, सम्मान और सानिध्य का कारण है।
तुम्हारे बारे में आत्माभिव्यक्ति करते-करते मुझे लगने लगा है कि मैं तुम्हारी स्तुति, महिमा गान कर रहा हूं। लेकिन एक तथ्य से तुमको अवगत कराना चाहता हूं। वह यह कि तुमसे मिलने के लिए बड़ा ही कठिन मार्ग अपनाना पड़ता था। जिससे जितना ही प्रगाढ़ प्रेम होता है उससे मिलने में उतनी ही बाधाएं आती हैं। तुमसे मेरी निकटता सर्व प्रसिद्ध थी। मैं रात या दिन सामान्य स्थिति या असामान्य स्थितियों में किसी भी परिस्थिति में तुम्हारे पास आ ही जाता था। मुझे डर या भय बिल्कुल नहीं लगता था। क्योंकि तुम्हारी स्मृति मेरे समक्ष थी। तुम्हें सजाने-संवारने एवं तुम्हारी स्थित को उच्च से उच्चतम बनाने हेतु, हजारों किलोमीटर का सफर मैंने तय किया था। लोगों से सहायता की भीख, चिरौरी, मिनती करता था। एक धुन थी। मैं सफल भी रहा। किंतु तुम से मिलने के लिए आने पर 30 किलोमीटर दूर केवल जीप का साधन होने पर, उसे ही पकड़कर आने पर जान सूखी रहती थी, कलेजा मुंह में ही रहता था, कहीं गति की तीव्रता से तो कहीं मां गंगा का विशाल और विकराल स्वरूप डरा ही देता था।
एक गोपनीय बात और है जो नहीं कहना चाहिए किंतु विचार प्रवाह अभिव्यक्त होने के लिए बार-बार मुझे बाध्य कर रहा है। वह यह कि तुम्हारा उच्च स्तर बनाने हेतु जब मैं अपने सहयोगियों पर विशेष जोर डालता था तब कुछ सहयोगी तो प्रसन्न होते थे और कुछ के चेहरे का भाव भंगिमा विचित्र हो जाती थी। मैं तो उन्हें बार-बार यही समझाता था कि जो हमारा भरण पोषण कर रहा है उसको सम्मान जनक  स्थिति तक पहुंचाना हमारा कर्तव्यहै। सच यह भी है कि तुम्हारी बढ़ती हुई ख्याति से कुछ पड़ोसी तो बहुत प्रसन्न थे तो कुछ तुम्हें बदनाम करने की चेष्टा में लगे रहते थे। चाहे कुछ भी हो तुम्हारे ही सानिध्य और सेवा से मेरी प्रतिष्ठा में चार चांद लगे, इसमें कोई दो राय नहीं। पुनः मैं तुम्हारा आभार व्यक्त करता हूं, तुम्हें शत शत नमन करता हूं---मेरा प्यार मेरा जुनून "महाविद्यालय दुबे छपरा बलिया" ।
लफ्जो की बनावट मुझे नहीं आती….
मुझे तुमसे मोहब्बत है…सीधी सी बात है 


-(भूतपूर्व प्राचार्य ,डॉ सत्य प्रकाश सिंह के दिल से निकले उद्गार)