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मोदी की नई शैली है गमछा लहराकर जनता से जुड़ना

 




संजय सक्सेना

वरिष्ठ पत्रकार

skslko28@gmail.com

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लखनऊ / पटना।।भारतीय राजनीति में प्रतीकों का महत्व हमेशा से रहा है। चाहे महात्मा गांधी का लाठी लेकर चलना हो, जयप्रकाश नारायण का खादी कुर्ता हो या लालू प्रसाद यादव का साधारण चेकदार गमछा, इन तमाम प्रतीकों ने नेताओं को आम जनता के करीब लाने में अहम भूमिका निभाई। इसी परंपरा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हाल का गमछा लहराना भी एक नया लेकिन गहराई लिए संदेश बनकर उभरा है। बीते कुछ वर्षों में मोदी जब भी किसी जनसभा या रैली में आते हैं, तो मंच से हाथ उठाकर सिर्फ अभिवादन ही नहीं, बल्कि गमछा लहराकर भी जनता से जुड़ाव जताते हैं।प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहली बार गमछा सार्वजनिक तौर पर वर्ष 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान लहराया था। उस समय उन्होंने बिहार के मुजफ्फरपुर में चुनावी सभा में हेलीकॉप्टर से उतरते ही स्थानीय मधुबनी प्रिंट वाले गमछे को हवा में लहराया था और यह अंदाज सोशल मीडिया पर भी काफी वायरल हुआ था। इसके बाद से यह उनकी एक लोकप्रिय पहचान बन गई है, खासकर उत्तर भारत के किसानों और श्रमिकों के प्रतीक के तौर पर। मोदी ने मुजफ्फरपुर रैली के दौरान पहली बार गमछा लहराकर यह प्रतीकात्मक संदेश दिया था कि वे जमीन से जुड़े नेता हैं, लेकिन चर्चा में तब आये जब 14 नवंबर 2025 को बिहार विधानसभा चुनावों की बंपर जीत पर पीएम मोदी ने दिल्ली स्थित बीजेपी मुख्यालय में भारी भीड़ के बीच कार से बाहर निकलते ही जोरदार तरीके से गमछा लहराकर सभी का अभिवादन किया। इसी तरह से 20 नवंबर को पटना में नीतीश सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में भी गमछा लहराकर जनता का अभिवादन स्वीकार करते हुए नजर आये। वहीं इससे पूर्व अगस्त 2025 में बिहार के बेगूसराय जिले में आंता-सिमरिया पुल उद्घाटन के मौके पर पीएम मोदी ने मंच से गमछा लहराया था। यह दृश्य भीड़ के बीच उत्साह का केंद्र रहा, बगल में बैठे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी तालियां बजाकर प्रतिक्रिया दी। इसी तरह से 31 अक्टूबर 2025 को मुजफ्फरपुर चुनावी सभा के दौरान फिर मोदी ने गमछा लहराया, जिसका वीडियो वायरल हुआ। अब यह दृश्य मोदी की पहचान का हिस्सा बन चुका है, लेकिन इसके पीछे राजनीति और प्रतीक दोनों का महीन मेल नजर आता है।


मोदी की यह शैली केवल मंचीय मुद्रा नहीं है। इसमें एक गहरा सांस्कृतिक भाव और राजनीतिक रणनीति छिपी है। भारतीय समाज में गमछा सिर्फ कपड़े का एक टुकड़ा नहीं, बल्कि श्रम और स्वाभिमान का प्रतीक है। यह किसान, मजदूर और आम आदमी की पहचान है, जो घर हो या खेत, बाजार हो या सड़क हर जगह उसके साथ रहता है। जब प्रधानमंत्री उसी गमछे को लहराकर जनता की ओर हाथ उठाते हैं, तो वह एक संदेश देते हैं कि वे सत्ता के शिखर पर होते हुए भी जनता के बीच से आए व्यक्ति हैं। यह भाव जनता के नेता की छवि को और मजबूत करता है।गमछे की राजनीति का एक सांस्कृतिक पक्ष भी है। भारत के कई राज्यों में गमछा स्थानीय पहचान से जुड़ा हुआ है। उत्तर प्रदेश और बिहार में यह सम्मान और आत्मीयता का प्रतीक है। असम में ‘गमसा’ या ‘गमोसा’ सांस्कृतिक अस्मिता का हिस्सा है। प्रधानमंत्री मोदी जब इन प्रदेशों में रैलियों में लोक गमछा लहराते हैं, तो वे सिर्फ अभिवादन नहीं, बल्कि उस क्षेत्र की संस्कृति को सम्मान देते हैं। यह कदम लोगों को भावनात्मक रूप से जोड़ने का माध्यम बन जाता है। मोदी के इस व्यवहार से यह भी स्पष्ट होता है कि वे भाषण से ज्यादा हाव-भाव के जरिए संवाद पर विश्वास करते हैं, जो भारतीय जनता को अधिक प्रभावित करता है। राजनीतिक दृष्टि से देखा जाए, तो मोदी का यह गमछा संवाद उनकी जन संवाद शैली का एक विस्तार है, जो उन्हें भीड़ से जोड़ता है। 2014 से पहले जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री रहे, तब भी उनका अंदाज ग्रामीण भारत से जुड़ी चीजों को मंच पर लाने वाला था। प्रधानमंत्री बनने के बाद यह शैली और परिष्कृत हो गई। अब उनका गमछा न केवल फैशन का हिस्सा है, बल्कि यह उनकी वैचारिक यात्रा का प्रतीक भी है एक ऐसा नेता जो वैश्विक मंच पर सूट और ब्लेज़र में नजर आता है, लेकिन अपने देश के लोगों के बीच आते ही उसी लोक वस्त्र को धारण करता है। यही द्वैत उनकी लोकप्रियता का मूल है वैश्विक छवि के साथ स्थानीय जुड़ाव।


इस शैली की तुलना अगर पुराने नेताओं से की जाए तो कुछ समानताएं जरूर दिखती हैं, परंतु यह सीधा अनुसरण नहीं है। उदाहरण के लिए, लालू प्रसाद यादव या मुलायम सिंह यादव भी गमछे को अपनी पहचान का हिस्सा बनाते थे, लेकिन उनके लिए यह एक वर्गीय और ग्रामीण पहचान का प्रतीक था। दूसरी ओर, नरेंद्र मोदी गमछे को वर्गीय पहचान से ऊपर, राष्ट्रीय सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करते हैं। उनके लिए गमछा जनता के साथ निकटता का माध्यम है, न कि केवल ग्रामीण प्रतिनिधित्व का। यही फर्क उनके अंदाज को दूसरों से अलग करता है। गमछा लहराना मोदी के नए तरह के जनसंवाद का हिस्सा भी है। यह ऐसा संवाद है जिसमें शरीर की भाषा, चेहरे के भाव और सरल प्रतीक अधिक बोलते हैं। जब हजारों की भीड़ प्रधानमंत्री को गमछा लहराते देखती है, तो उसे एक अपनापन महसूस होता है। मंच और जनता के बीच सीमाएं मिटती हैं। यह दृश्य एक तरफ नेतृत्व का उत्सव लगता है, तो दूसरी तरफ लोकतंत्र की जीवंतता को दर्शाता है। यही वह दृश्य है जो सोशल मीडिया पर वायरल होता है, वीडियो क्लिप्स में भावनात्मक जुड़ाव पैदा करता है, और चुनावी संदेश को शब्दों से पहले ही पहुंचा देता है।


इसके अतिरिक्त, मोदी का गमछा एक व्यक्तिगत ब्रांड का भी हिस्सा बन गया है। उनके कुर्ते, जैकेट और स्टोल की तरह ही गमछा अब उनका स्थायी सहयोगी बन चुका है। यह भारतीय परिधान संस्कृति को आधुनिक राजनीतिक छवि से जोड़ने का प्रयास भी कहा जा सकता है। पश्चिमी परिधान के विपरीत गमछा सहज और सस्ता है, जिसे हर व्यक्ति अपने घर में पाता है। इस प्रतीक के माध्यम से मोदी इस भाव को मजबूती देते हैं कि ‘मैं तुम्हारे जैसा हूं’। यह लोकतांत्रिक राजनीति में गहरा असर छोड़ती है। इसके पीछे मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी छिपा है। भाषा से परे दृश्यों की शक्ति शब्दों से ज्यादा होती है। चुनावी जनसमूह में जहां सब कुछ शोर और तात्कालिकता से भरा होता है, वहां एक साधारण गमछा लहराना एक स्थायी छवि बना देता है। यही दृश्य दोबारा चुनाव के वक्त स्मृति में लौट आता है, और मतदाता को भावनात्मक स्तर पर जोड़ देता है। राजनीति में यह जुड़ाव रणनीतिक महत्व रखता है, खासकर तब जब नेता को अपने स्थानीयपन और जनसामान्यता को निरंतर सिद्ध करना हो।नरेंद्र मोदी के इस प्रतीकात्मक कदम को केवल मंचीय प्रदर्शन मानना गलत होगा। यह दरअसल भारतीय राजनीति और संस्कृति का ऐसा संगम है, जिसमें परंपरा, भावना और संचार का अनोखा मिश्रण है। जिस दौर में राजनीति मीडिया-प्रचार पर निर्भर हो चुकी है, वहां मोदी का गमछा लोक-संस्कृति और संचार का जीवंत प्रतीक बन जाता है। तात्पर्य यह है कि गमछा लहराना मोदी के लिए सिर्फ जनता का अभिवादन नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक संवाद है, जिसमें आम आदमी, उसकी परंपरा, उसकी अस्मिता और उसकी भावनाएं एक साथ समा जाती हैं। यही सरल भाव हर जनसभा में उन्हें भीड़ से नहीं, बल्कि उस भीड़ के बीच का नेता बना देता है।


                          संजय सक्सेना लखनऊ