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आत्म निष्ठा और आत्मश्रद्धा से ही परम् सत्य से हो सकता है साक्षात्कार



राजू बाबू सिंह (पूर्व आईपीएस अधिकारी )

लखनऊ।। बहुधा लोगों की सोच है कि परमात्मा किसी की कृपा से मिल जाएग, किसी के प्रसाद से मिल जाएगा। कुछ लोग ऐसे हैं जो सोचते हैं कि परमात्मा किसी के आशीर्वाद से मिल जएगा और कुछ लोग सोचते हैं परमात्मा कोई हमें दे देगा ऐसे लोगों का सोचना नितांत गलत है। ऐसे लोगों के सोचने का पूरा दृष्टिकोण भ्रान्त है।ऐसा सोचने वाले लोग अपने तमस को और अपने अलस्य को अपनी उक्त सोच के तहत छुपाने का प्रयास करते हैं।

बहुत सारे लोगों का दृष्टिकोण है कि हम क्यों करें जो कुछ करेगा परमात्मा कर देगा। कुछ लोग कहते हैं कि हम क्या करें किसी साधु या किसी गुरु की कृपा से सब कुछ हो जएगा। कुछ लोग कहते हैं किसी के चरणों में हम समर्पित हो जाएंगे तो वह सब कुछ कर देगा,किंतु ऐसा बिल्कुल संभव नहीं है। जिसको सत्य के जगत में आरोहण करना  हो वह बिना स्वयं के प्रयास के सत्य को नहीं जान सकता और ना सत्य को पा सकता है, क्योंकि पात्रतायें मुफ्त में नहीं प्राप्त होती हैं। पात्रताएं आतंरिक परिवर्तन हैं। पात्रताएं कोई वस्तुएं नहीं जो कोई दे दे । क्षमताएं कोई वस्तुएं नहीं है कि कोई आपको दान कर दें। क्षमताएं कोई ऐसी चीजे नहीं है कि कहीं से आप चुरा लाएं । सत्य की  न चोरी होती है और न सत्य भिक्षा में मिलता है और न सत्य दान में मिलता है, न सत्य बाजार में खरीदा जा सकता है। उसके लिए तो स्वयं का प्रयास, स्वयं का श्रम एवं स्वयं पर पर श्रद्धा रखनी होगी।

 आश्चर्यजनक तथ्य यह  है कि लोग स्वयं पर श्रृद्धा नहीं रखते हैं और दूसरों पर श्रद्धा रखना शुरू कर देते हैं। जो व्यक्ति दूसरों पर  श्रद्धा रखते हैं वह किसी न किसी रूप में स्वयं के प्रति अश्रद्धालु होते हैं। मेरे विचार से एक ही श्रद्धा काफी है जो स्वयं पर हो, किसी अन्य पर नहीं। 

अपने भीतर के दिव्य स्वरूप पर अटूट विश्वास रखना और उस पर पूर्ण समर्पण करना। यह आंतरिक शांति और संतुष्टि की ओर ले जाता है, क्योंकि जब आप अपने भीतर की चेतना को पहचानते हैं और उसे ईश्वर का अंश मानते हैं, तब सभी संदेह समाप्त हो जाते हैं।


स्वयं पर श्रृद्धा स्वयं पर आस्था स्वयं पर निष्ठा का केवल एक ही तात्पर्य है कि मेरे भीतर भी मनुष्यता है, मेरे भीतर भी मनुष्यता का ही स्पंदन है।मेरे भीतर भी हृदय की वहीं धड़कने हैं जो बुद्ध में थीं,जो महावीर में थीं, जो क्राइस्ट में थीं और जो कृष्ण में थीं। मेरे प्राणों में भी ,मेरे शरीर में भी, मेरे चित्त में भी वही स्पंदन है,वही सूर्य है वही प्रकाश है,वहीं पृथ्वी है जो उन्हें बनाती है। उसी ने मुझे भी बनाया वही खून मेरी रगों में बहता है जो उनकी रगों में , वही आत्मा बीज रूप में जो उनमें थी वही मुझ में तो फिर उन्हें जो संभव,वही मुझे भी संभव होगा।

हर व्यक्ति इस अर्थ में वही हो सकता है जो बुद्धादि हुए। अपने भीतर उस संभावना का स्मरण करने से आत्म श्रद्धा उत्पन्न होती है। अपने भीतर उस आत्यांतिक ऊंचाई पर विचार करने से स्वयं के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है। जिस मनुष्य में दूसरों पर आस्था करने की प्रवृत्ति पैदा कर दी जाए, जिस मनुष्य में दूसरों के चरणों में गिरने की प्रवृत्ति पैदा कर दी जाए, जिस मनुष्य को यह विश्वास दिलाया जाए कि दूसरे तुम्हारे लिए कुछ कर सकेंगे,वह मनुष्य आत्महीन हो जाता है और वह मनुष्य क्रमशः नीचे गिरता जाता है।तात्पर्य है कि किसी पर समर्पण पर विश्वास न करके आत्म समर्पण पर विश्वास करना श्रेयस्कर है।केवल आत्मसमर्पण ही पर्याप्त है। स्वयं की शरण पकड़ लेना आसान है किसी अन्य के चरण पकड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है।जब भी कोई मनुष्य किसी अन्य के चरण पकड़ता है तो वह स्वयं का अपमान करता है तथा स्वयं के अंदर बैठे उस परमात्मा का भी अपमान करता है 

इसलिए कोई व्यक्ति किसी अन्य की शरण में जाकर उसके चरण न पकड़े,आत्म शरण ही पर्याप्त है, इसी को आत्म निष्ठा एवं आत्म श्रद्धा कहते हैं। जिसमें आत्म निष्ठा और आत्मश्रद्धा पैदा होगी वही श्रम में संलग्न होगा और सत्य श्रम से ही मिलता है । यह स्थिति "आत्म दीपो भव" की ओर उन्मुख होने का प्रथम सोपान है। अन्यथा की स्थिति को हम यह कह सकते हैं कि आत्महीनता हमें किसी दूसरे की शरण में जाकर अवनत होकर भीख में सत्य को मांगने के लिए प्रेरित करती है। सत्य कोई उपहार या भीख में प्राप्त होने वाली वस्तु नहीं। उसके लिए स्वयं को साधना करनी पड़ती है। जब इस जगत में शुद्रतम चीजें भी बिना श्रम और बिना सधना के उपलब्ध नहीं होती हैं, क्षुद्रतम चीज़ों के लिए भी मूल्य चुकाना पड़ता है,तब मेरे मित्रों सत्य के लिए भी मूल्य चुकाना होगा। सत्य के लिए सिवाय जीवन‌ के मूल्य के और कोई मार्ग नहीं है। सब चीजें छोटी पड़ जाती हैं और कोई चीज सत्य का मूल्य नहीं हो सकती है।श्रम और आत्यांतिक श्रम और उस सीमा तक मूल्य चुकाने का साहस कि अगर मुझे जीवन भी खोना पड़े तो कर दूंगा ।राजा हरिश्चंद्र भारतीय संस्कृति में एक उदाहरण हैं। सुकरात को जब जहर दिए जाने को था तो उसके मित्रों ने कहा कि कह दो कि जो तुमने कहा था वह सत्य नहीं है, तब सुकरात ने कहा कि नहीं और यदि जीवन को देकर भी सत्य को बचाया जाय तो जीवन को दे देना ही श्रेयस्कर होगा, क्योंकि यह जीवन तो एक दिन नष्ट होना ही है।अतः इसे अभी दे करके यदि सत्य बचा लिया जाय तो सत्य तो बच जायेगा अन्यथा दुनिया से सत्य उठ जायेगा। जीवन के लिए लोग सत्य को छोड़कर असत्य के मार्ग पर चलकर जीवन बचा तो लेंगे लेकिन असत्य के आधार पर जीवन आनंदमय नहीं बल्कि दुःखमय होगा और यह स्थिति विनाशकारी होगी। यह कहकर सुकरात ने कहा जल्दी ले आओ विष का प्याला,मुझे इस पुनीत कार्य के लिए अतिशीघ्रता है और यह कहकर विष का प्याला लेकर तुरंत पी गए।सत्य की रक्षा के लिए इस हद तक जाना पड़े तो जाना होगा। इसलिए कहा गया है कि सत्य की साधना स्वयं करनी होगी स्वयं प्राप्त करना होगा सत्य सुकरात की तरह बुद्ध महावीर एवं कृष्ण की तरह स्वानुभूति का विषय है। 

संसार में जितने भी धर्म हैं,धर्मग्रंथ हैं ,धार्मिक स्थल हैं ,धर्मगुरु हैं ,यह सभी उस सत्य की ओर इंगित करते हैं ।कहते हैं सत्य वह है उसे पकड़ो किन्तु बिना श्रम और साधना के अज्ञान के वशीभूत लोग इंगित करने वाले धर्म ,धार्मिक स्थल, धर्मगुरु और धर्म ग्रंथ को ही सत्य यानि साधन नहीं साध्य मानकर अपनी आत्मसाधना को त्याग कर साधन की शरण में चले जाते हैं ,साध्य (सत्य) से विमुख हो जाते हैं।