पत्रकारिता या एजेंडा ?: अब ‘माइकधारी भीड़’ से सवाल पूछने का आ गया है वक़्त :अजय दुबे
प्रयागराज।।एक वक्त था जब पत्रकारिता को ‘मिशन’ कहा जाता था।वो दौर था जब पत्रकार सत्ता से सवाल करता था, ज़मीन की सच्चाई को ज़मीर की तरह उठाता था। लेकिन आज वही पत्रकारिता एक ‘कमिशन’ बन चुकी है सौदों में बिकी हुई, विचारधाराओं में जकड़ी हुई और TRP की भूख में सड़ी हुई। आज पत्रकार आम जनता नहीं है,और अगर वो खुद को ‘आम आदमी’ बताकर अपने झूठ को वैधता दिलाने की कोशिश करता है, तो यह और भी खतरनाक है। पत्रकार वह है जिस पर समाज विश्वास करता है, लेकिन जब पत्रकार ही अपने माइक और कैमरे को सत्ता, पार्टी या पूंजी का औजार बना दे — तो लोकतंत्र की रीढ़ टूट जाती है।
आज पत्रकारिता भीड़ बन चुकी है दिशाहीन, विवेकहीन, और जिम्मेदारीविहीन। हर दूसरा शख्स मोबाइल लेकर ‘पत्रकार’ बन रहा है।न कोई प्रशिक्षण, न कोई संपादकीय जवाबदेही, न कोई नैतिकता।जिसको जहां से जो मिला, उसे तोड़-मरोड़कर, रंग-रोगन करके लोगों के सामने पेश कर दिया। खबर नहीं, अब ‘राय’ बिक रही है,और राय भी वो जो किसी खास के फायदे की हो।मीडिया अब आईना नहीं दिखाता, चेहरा बनाता है और वो चेहरा ऐसा होता है, जो उनके मालिकों और आकाओं को पसंद आए। आज खबरें खरीदी और बेची जाती हैं। कहीं रिपोर्टर जाति का एजेंडा चलाता है, तो कहीं पत्रकार मज़हब का झंडा उठाए खड़ा है। जनता को लड़ाया जा रहा है, भड़काया जा रहा है, बांटा जा रहा है और सब कुछ 'पत्रकारिता' के नाम पर।क्या यही लोकतंत्र की जिम्मेदार मीडिया है? सवाल यह है कि क्या अब पत्रकारिता का मतलब सिर्फ मुनाफा, एजेंडा और सनसनी रह गया है? किसी का चरित्र हनन करना हो, तो बस एक वायरल वीडियो चला दो।किसी का करियर तबाह करना हो, तो एक ‘एक्सक्लूसिव ब्रेकिंग न्यूज’ चला दो।सच क्या है? स्रोत क्या है? प्रमाण क्या है? अब ये कोई नहीं पूछता न जनता, न सरकार, न संपादक और जब कोई इन माइकधारियों से सवाल करता है, तो वही 'पत्रकार' अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में खुद को मासूम घोषित कर देते हैं।
लेकिन सच्चाई यह है कि आज की पत्रकारिता, लोकतंत्र का चौथा स्तंभ नहीं, एक गिरती हुई दीवार बन चुकी है जो किसी भी दिन किसी की भी आज़ादी को कुचल सकती है। अब प्रशासन को भी चेतने की जरूरत है हर कैमरा लिए व्यक्ति को कवरेज की छूट देना, प्रेस कार्ड बांटना और उसे वीआईपी ट्रीटमेंट देना खतरनाक है।जरूरी है कि पत्रकारों की जवाबदेही तय हो। जरूरी है कि खबर के नाम पर फैलाए जा रहे झूठ और नफरत को कानून के दायरे में लाया जाए और सबसे जरूरी जनता को भी अब जागना होगा। हर चमकती चीज खबर नहीं होती,और हर वीडियो सच नहीं होता। पत्रकारिता और प्रोपेगेंडा के बीच की रेखा को समझना अब अनिवार्य है, वरना कल किसी की भी आवाज इन झूठी खबरों में गुम हो सकती है और फिर कोई माइक उठाकर माफी नहीं मांगेगा। इसलिए आज जरूरत है ‘पत्रकार’ और ‘एजेंट’ के बीच फर्क करने की।जरूरत है, पत्रकारिता को बाजार और भीड़ से आज़ाद करने की और जरूरत है, मीडिया को उसकी असली भूमिका याद दिलाने की सच के लिए बोलो, न कि सत्ता के लिए।