Breaking News

5 जून पर्यावरण दिवस पर विशेष -पर्यावरण को बचाने हेतु बदलनी होगी जीवनशैली - डा० गणेश पाठक



 बलिया।।पर्यावरण संरक्षण हेतु पूरे विश्व में 5 जून को प्रतिवर्ष 'पर्यावरण दिवस' मनाया जाता है,जिसके लिए प्रतिवर्ष कोई न कोई विशेष थीम रखी जाती है ,जिसको केन्द्रित कर पूरे वर्ष पर्यावरण संरक्षण हेतु कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। इस वर्ष की पर्यावरण थीम रखी गयी है "बीट प्लास्टिक प्रदूषण" अर्थात् प्लास्टिक प्रदूषण को पीटना। यानि कि येन - केन प्रकारेण प्लास्टिक प्रदूषण को समाप्त करना  ही इस वर्ष की मुख्य थीम रखी गयी है। इसके अतिरिक्त हमारे प्रधानमंत्री माननीय  श्री नरेन्द्र मोदी जी द्वारा  इस वर्ष की पर्यावरण दिवस पर मुख्य थीम के रूप में "पर्यावरण के लिए जीवन शैली" को एक मिशन के रूप में माना गया है,जिसके तहत हमें ऐसी जीवन शैली अपनानी जिससे पर्यावरण को किसी प्रकार से नुकसान न पहुंचे , बल्कि पर्यावरण का संबर्द्धन हो। 

    इस संदर्भ में अमरनाथ मिश्र पी जी कालेज दूबेछपरा, बलिया के पूर्व प्राचार्य पर्यावरणविद् डा० गणेश पाठक ने एक भेंटवार्ता में बताया कि मानव एवं पर्यावरण एक दूसरे के पूरक हैं । परस्पर समायोजन द्वारा ही पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र को बचाकर पृथ्वी को विनष्ट होने से बचाया जा सकता है।





  डा० पाठक ने बताया कि हमें ऐसी जीवन शैली अपनानी होगी जो पर्यावरण के अनुकूल हो। हमारी संस्कृति सनातन संस्कृति है ,जिसके अन्तर्गत प्रकृति के सभी कारकों की सुरक्षा एवं संरक्षा का विधान बनाया गया है। हम प्रकृति के तत्वों को सुरक्षित एवं चिरस्थाई बनाए रखें,इसके लिए सभी महत्वपूर्ण कारकों जैसे- महत्वपूर्ण वृक्षों,जल संसाधन, मिट्टीसंसाधन,वायु  एवं महत्वपूर्ण पशुओं तथा जीव जंतुओं को देवी- देवताओं से सम्बद्ध कर उनकी पूजा करने का विधान बना दिया गया, ताकि उनकी रक्षा हो सके। हम वृक्ष, मिट्टी, वायु,आकाश और अग्नि को देवता मानकर पूजा करते हैं। हम भगवान की पूजा करते हैं और भगवान में पांच अक्षर हैं- भ,ग,व,अ एवं न। अर्थात् भी से भूमि,ग से गगन,व से वायु,अ से अग्नि एवं न से नीर । इस प्रकार प्रकृति के पांच मूलभूत तत्वों क्षिति,जल,पावक,गगन एवं समीर की पूजा ही भगवान के रूप में करते हैं और यही हमारी जीवन शैली है, जिसका विलोपन होता जा रहा है। पर्यावरण की रक्षा हेतु हमें पुनःसनातन जीवन शैली को अपनाना होगा। हमें सादा जीवन ,उच्च विचार का भाव रखना होगा। हमें ऐसी सुख- सुविधाओं को कम करना होगा ,जिनसे पर्यावरण को नुक़सान न पहुंचे। हमें माता भूमि: ,पुत्रो अहम् पृथिव्या: की भावना से ओत : प्रोत होकर पर्यावरण के कारकों की रक्षा करनी होगी।

       हमें पर्यावरण के साथ सामंजस्य बनाकर रहना होगा। प्रारम्भ से ही मानव प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग करता आ रहा है, किंतु जब तक मानव एवं प्रकृति के संबंध सकारात्मक रहा, तब तक पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी असंतुलन संबंधी कोई भी समस्या नहीं उत्पन्न हुई,किंतु  जैसे- जैसे मानव की भोगवादी प्रवृत्ति एवं विलासितापूर्ण जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अनियोजित एवं अनियंत्रित विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अतिशय दोहन एवं शोषण बढ़ता गया,पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र का असंतुलन बढ़ता गया, जिससे प्राकृतिक आपदाओं में भी निरन्तर वृद्धि होती जा रही है। मानव पर पर्यावरण के प्रभाव एवं पर्यावरण पर मानव के प्रभाव दोनों में बदलाव आता गया, जिसके परिणामस्वरूप अनेक तरह के बढ़ते घातक प्रदूषण तथा ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन  के चलते मानव एवं पर्यावरण के अंतर्संबंधों में भी बदलाव आता गया। मानव के कारनामों के चलते हरितगृह प्रभाव एवं ओजोन परत के क्षयीकरण ने इसमें अहम् भूमिका निभाई, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र में तीव्रता के साथ बदलाव आता गया , कारण कि पारिस्थितिकी के विभिन्न कारक तेजी से समाप्त होते गये ,जिससे पारिस्थितिकी तंत्र में असंतुलन बढ़ता गया और मानव वातावरण के अंतर्संबंधों में भी बदलाव आता गया।

     आज आवश्यकता इस बात की है कि यदि हमें पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी को बचाना है तो पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र के समाप्त हुए घटकों की पुनर्बहाली करनी होगी।हमें विकास के ऐसे पथ को अपनाना होगा, जिसमें हमारा विकास भी चिरस्थाई हो एवं पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी तंत्र की क्षति भी कमसे कम हो।इसके लिए मानव एवं पर्यावरण के मध्य समायोजन करना होगा, तभी पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र को सुरक्षित एवं संरक्षित रखा जा सकेगा।

       वर्तमान समय में पर्यावरण को बचाने का एकमात्र सार्थक उपाय वृक्षारोपण कर वन आवरण को बढ़ाना होगा। इसके लिए जन-जागरूकता लाकर जन- जन को वृक्ष लगाने हेतु प्रेरित करना होगा। हमें प्रत्येक त्यौहारों,उत्सवों, जन्मदिन, वैवाहिक दिवस एवं श्राद्ध कर्म के अवसर पर अवश्य वृक्ष लगाकर पर्यावरण को समृद्ध बनाना होगा।

        जहां बलिया सहित पूर्वांचल की बात है तो इस क्षेत्र के अधिकांश जिलों में प्राकृतिक वनों का बिल्कुल अभाव है। बलिया तो प्राकृतिक वनस्पति की दृष्टि से वन शून्य क्षेत्र है। बलिया में मानव रोपित वृक्षावरण भी  दो प्रतिशत से भी कम है। जबकि तैंतीस प्रतिशत क्षेत्रफल पर वनों का होना आवश्यक है। अत: वन शून्य ऐसे क्षेत्रों वृक्षारोपण ही एकमात्र उपाय है,जिसके लिए जन- जन की सहभागिता आवश्यक है।