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जाने क्या है श्राद्ध करने का कारण,क्या है इससे जुड़ी कथायें

 



डॉ भगवान प्रसाद उपाध्याय

प्रयागराज ।। पूरा ब्रह्मांड 12 राशियों में विभाजित है ।मेष राशि समग्र विश्व का प्रवेश द्वार है जबकि मीन राशि मोक्ष द्वार है । मीन राशि ब्रह्मलोक या देवलोक के साथ जुड़ी है जब की कन्या राशि पितृ लोग या चंद्रलोक के साथ जुड़ी है ।


15 जुलाई के बाद सूर्य की दक्षिण यात्रा चालू होती है जिसको हम दक्षिणायन बोलते हैं । दक्षिणायन में  सूर्य धीरे धीरे कन्या राशि और तुला राशि में  जाता है और वहां पितृ लोक को जागृत करता है । दक्षिणायन में सूर्य की ऊर्जा या प्राण तत्व निर्बल हो जाता है और इसीलिए हमारी रक्षा के लिए इस चातुर्मास में  गुरु पूर्णिमा से शुरू करके पर्युषण,  गणेश पर्व तथा नवरात्रि पर्व जैसे त्यौहार मनाए जाते हैं ताकि साधना करके हमारी उर्जा और प्राण तत्व बढ़े ।


दीपावली के पर्व पर सूर्य तुला राशि में नीच अवस्था में होता है और उस समय सूर्य की ऊर्जा एकदम क्षीण होने से प्रेत लोग एकदम जागृत होते हैं और पृथ्वी पर आते हैं इसीलिए काली चतुर्दशी को काली पूजा का महत्व है ।


दक्षिणायन में सूर्य अताल विताल सुताल रसातल तलातल  महातल और पाताल लोक की यात्रा करता है । ये 7 लोक अधो लोक कहे जाते हैं ।


15 सितंबर से जब सूर्य कन्या राशि में आता है तब सुतल में और तुला में रसातल में  यात्रा करता है । जो प्रेत लोग को जागृत करता है ।


मृत्यु के बाद जीव की दो गतियां होती है । जो पवित्र और संत आत्मा होते हैं वह देवयान की तरफ आगे बढ़ते हैं और जो वासना से जुड़े आत्मा होते हैं  वह पितृ यान  तरफ गति करते हैं । देवयान का संबंध सूर्य से है और पितृ यान  का संबंध चंद्र से हैं । चंद्र सूक्ष्म जगत को संभालता है । चंद्रलोक को पितृ लोक भी कहा जाता है ।


शास्त्रों में  चंद्र की 16 कला बताई गई है । यह सोलह कला हमारी 16 तिथि से जुड़ी हुई है । मृत्यु के बाद आत्मा अपनी मृत्यु तिथि के अनुसार इन 16 तिथियों में से किसी एक कला में निवास करता है जैसे प्रथमा तिथि को मृत्यु होता है तो प्रथम कला में,  पंचमी तिथि को मृत्यु होता है तो 5 वी कला में, पूर्णिमा को जन्म होता है तो 15 वी कला में और अमावस्या का जन्म होता है तो 16 वी कला में आत्मा की गति होती है । एक ही कला में नीचे से ऊपर तक कई कक्षाएं होती है ।  जो अधम आत्मा होता है वह एकदम निचली कक्षा में या निचले स्तर में निवास करता है जबकि आध्यात्मिक प्रगति वाला आत्मा उसी कला में बहुत ऊपर की कक्षा में या उच्च स्तर में निवास करता है ।


जब सूर्य कन्या राशि में आता है और जब भाद्रपद मास की पूर्णिमा आती है तब प्रेत लोक जागृत होता है और चंद्र लोक की 15 वी कला के द्वार खुलता है और चंद्र के श्रद्धा नाम के विशेष किरण के सहारे जो भी प्रेतात्मा वहां निवास करते हैं वह पृथ्वी पर आते हैं । इसी तरह  प्रथमा को प्रथम कला का द्वार खुलता है और वहां के निवासी अपने अपने परिवार को मिलने आते है । श्राद्ध के 16 दिनों में 16 कला जागृत होती है । हर रोज एक तिथि जागृत होती है । श्रद्धा किरणों के नाम से श्राद्ध पक्ष नाम रखा गया । चंद्र का आधिपत्य दूध और चावल के ऊपर होने से श्राद्ध में दूध पाक या खीर का ज्यादा महत्व माना गया है ।


एक दूसरी बात । सूर्य उदय से मध्यान्ह काल तक का समय राहु संभालता है जबकि मध्यान्ह काल से सूर्यास्त तक का समय केतु संभालता है । राहु केतु का प्रेत लोक पर संपूर्ण कंट्रोल होता है इसीलिए दोपहर के 12  बजे के आसपास यानी मध्यान्ह काल में जब राहु केतु का काल अदल बदल होता है तब आत्मा अपनी वासना पूरी करने हमारे घर आता है ।


श्राद्ध के दिन हर मृत आत्मा अपने निकट के स्वजन,  पुत्र या पौत्र के घर आता है और तृप्त होकर आशीर्वाद भी देता है ।अगर मृत आत्मा के लिए श्राद्ध नहीं किया जाता तो मृत आत्मा निराश हो के शाप देकर वापस चला जाता है और उसका फल भी परिवार को भुगतना पड़ता है । वापस गया हुआ मृत आत्मा अमावस्या को फिर से एक बार अपने घर श्राद्ध के लिए आता है ।


इसी लिए अगर किसी को अपने स्वजन की तिथि याद ना भी हो तो भी सर्व पितरों के लिए अमावस्या को श्राद्ध करना ही चाहिए । ज्यादा से ज्यादा 3 पीढ़ी तक और कम से कम 2 पीढ़ी तक के  हमारे स्वजनों का हमें श्राद्ध करना चाहिए ।


श्राद्ध के दिन ब्राह्मण को भोजन देना या गाय को खिलाने का भी एक महत्व है लेकिन समय के चलते यह सब आज कल कोई नहीं करता । श्राद्ध के दिनों में जल से तर्पण करने का भी एक महत्व है ।


रामचरितमानस में भी ऐसा उल्लेख है की भगवान राम ने भी दशरथ जी का श्राद्ध किया था और तब सीता जी को अपने तमाम पितरों के दर्शन हुए थे । श्राद्ध सिर्फ श्रद्धा का विषय नहीं है ,यह एक वास्तविकता है ।