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युथनेसिया (द प्रोसेस ऑफ डाइंग फ्रॉम सेल्फ विल ): एक समसामयिक मुद्दा

 


नईदिल्ली।। युथनेसिया (द प्रोसेस ऑफ डाइंग फ्रॉम सेल्फ विल )स्वैच्छिक मृत्यु अर्थात  मैं समाधिष्ट प्राण त्यागने  के  आध्यात्मिक प्रक्रिया की बात  नहीं कर रही हूं यहां मसला है कानूनी तौर पर जीवन को खत्म करने की जायज़ मांग  ।

विदेशों में इस पर बहस है और कई देशों में स्वीकृति भी है पर हमारे भारत में धर्म और कानून आड़े आते हैं क्योंकि आत्महत्या (धारा 309 ) अपराध है धार्मिक तौर पर भी और कानूनी तौर पर भी  यानि आत्महत्या किसी भी एंगल से ठीक नहीं है । तो क्या हम  मान लें कि युथनेसिया अर्थात इच्छा मृत्यु /रहम पर मरने की अपील की मांग उचित है???
मेरे दिमाग में यह प्रश्न आता है कि  जब आप डॉक्टर को कहते हैं मुझे अब नहीं जीना , जहर  दे दीजिए , बच्चे घर में नहीं रखना चाहते, पति गुजर गया है , आय का जरिया खत्म है ,  मानसिक संताप है या ससुराल में, कार्यस्थल में मानसिक संताप की स्थिति है जो बेहद  असहनीय है  , यदि आप यह डॉक्टर को कहेंगे तो वह   क्या आपको जहर दे सकता है ??  नहीं ... कभी नहीं ..! !
ऐसे मामले तो मनोचिकित्सक के दायरे में आते हैं ।







अब दूसरी तरफ एक अपाहिज व्यक्ति है जिसमें महिला , पुरुष , या कोई भी सदस्य जो अपना निर्णय खुद लेकर आत्मनिर्भर थे और किसी एक्सीडेंट या प्राकृतिक तौर पर  बेहद लाचार अवस्था में है जिसमे ना वो बोल सकते हैं ना खा  सकते हैं , कोमा में है  या फिर बोल  सकते हैं पर जीवनभर के लिए बेड से  खड़े होने , उठने बैठने में असमर्थ हैं तो क्या डॉक्टर उन्हे जहर का इंजेक्शन  दे सकता है ???    तो हां बिलकुल  दे सकता है ....;  वह ऐसा कर सकता है लेकिन.." कानूनी तौर पर  लिखित इजाजत  द्वारा"  जिसमे कई सारी शर्तें होती हैं  जैसे वसीयतनामा, रोगी  के गार्जियन  की अनुमति, यदि रोगी बोल  सकता है तो उसकी इजाजत  आदि ।



यह इतना आसान नहीं है  कई ऐसे  केस जिसमे भारतीय भी यूथनेसिया की मांग करने लगे   व्यंकटेश , बीके पिल्लई  ,मोहम्मद युनूस अंसारी आदि  इन सबकी याचिका खारिज कर दी गई ।
नर्स अरुणा शानबाग केस भी  दया मृत्यु से जुड़ा था  42 साल बिस्तर पर पड़ी रहीं दिमाग के डेड होने की स्थिति में एक जिंदा लाश थी  उनके लिए इच्छामृत्यु की मांग में पूरे 7 साल लग गए और यह कानून कड़े शर्तों पर वैध हुआ   ।
असल में जीवन मृत्यु ऊपरवाले के हाथ में है हम इंसान केवल एक मोहरे हैं विधाता की श्रृष्टि में  ! 

कब वह प्रलय लायेगा और किस तरह  नूतन सृजन करेगा  यह केवल विधाता ही जानता है   । इंसान की शक्ति जहां तक समर्थ्यता है वह प्रयास कर सकता है जिंदगी को जीने का प्रयास, उलझनों से निकलने का प्रयास, खुद को जीवित या  मृत्यु प्राप्ति का प्रयास  यानी मानसिक स्थिति के डांवाडोल होने की स्थिति में खुद को ही मिटा देना , यह  सारे कृत्य इंसान कर सकता  है पर वह विधाता नहीं बन सकता ।

कहते है  बिन मांगे मोती मिले मांगे मिले ना भीख  ,अब आप मृत्यु की कामना  करते हैं तो भूल जाइए  । यह बात क्योंकि आप मृत्यु मांगेंगे तो कोई भी व्यक्ति मरने का सुझाव तो आपको बिलकुल नहीं दे सकता ।
भारतीय परंपरा में किसी का कत्ल करना या आत्मदाह घोर पाप  है  , गरुण पुराण के अनुसार तो आत्महत्या के बाद व्यक्ति कई जन्मों तक पिशाच जन्म में भटकता है उसकी मुक्ति नहीं है
यह  धर्म , नीति वालों का विषय है लेकिन जो नास्तिक हैं वह भी तो मानवता को प्रथम स्थान देते हैं उनका भी परिवार है उन्हे भी संसार से मोह है , परिवार से प्रेम है  ऐसे में   आपके पास जीवन खत्म करने का  कोई उपाय नहीं  है । और ऐसा करना भी नहीं चाहिए।

लेकिन सवाल उठता है कि आप मरना क्यों चाहते हैं ? क्या आप  दुनिया से  लड़ते लड़ते थक चुके हैं? क्या आप  लंबी बीमारी अथवा भयानक पक्षाघात झेलते हुए अपनों के बीच अपमान झेल रहे हैं ?
यह कारण आप जानते हैं ' कोई और नही ...!

हमारे देश में डॉक्टर को भगवान कहा जाता है और भगवान हरसंभव जीवन बचाने का प्रयास करता है  ना कि जीवन खत्म करने का प्रयास करेगा।
जहां सक्रिय इच्छा मृत्यु की मांग जिसमे आपको डॉक्टर इंजेक्शन और  दवा से मौत दे सकते हैं  अधिकतर देशों में यह प्रक्रिया रोगी के लिए अपमानजनक  माना गया  है क्योंकि यह एक क्रूर तरीका है इसलिए भारत निष्क्रिय इच्छा मृत्यु जिसमे जीवन बचाने वाली दवाओं को  बंद कर देना ,  कोमा या बेहोशी की अवस्था में ग्रास नली को निकाल देना , यदि रोगी वेंटिलेटर पर है उसे वेंटिलेटर स्पोर्ट से हटा देना मान्य है ।
ठीक उसी तरह जिस तरह जीने का अधिकार है  तो सम्मान से मरने का भी हक होना चाहिए ।




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गायत्री शर्मा गुंजन
स्वतंत्र लेखिका
दिल्ली प्रदेश